........और मुझे गुरुद्वारे जाना पड़ा


छः बजनेवाले हैं। साँझ होनेवाली है। जो कुछ मेरे साथ हुआ उसे कोई छः घण्टे हो रहे हैं लेकिन मैं अब तक उससे बाहर नहीं आ पाया हूँ।

सुबह से अच्छा-भला घर में बैठा था। अपना, छोटा-मोटा काम कर रहा था। कुछ भी ऐसा नहीं था कि ध्यान इधर-उधर हो। लेकिन कोई ग्यारह बजे लगा, किसी ने कहा - ‘चलो! गुरुद्वारे हो आएँ।’ मैं चौंक गया। आसपास देखा। नहीं। हम दोनों (पति-पत्नी) के अतिरिक्त घर में कोई नहीं था। मैं दरवाजे तक आया। बाहर देखा। घर के सामने ही नहीं, पूरा मोहल्ला सुनसान था। कोई चिड़िया भी नजर नहीं आ रही थी। आसपास देखते हुए ही अन्दर आया और पूर्वानुसार ही छोटा-मोटा काम निपटाने लगा।

लेकिन अब सब कुछ पूर्वानुसार सहज, सामान्य नहीं था। बार-बार लग रहा था, कोई आवाज दे रहा है। खुद को समझाया - ‘मन का वहम है।’ कुछ पलों तक तो सब ठीक ही ठीक रहा लेकिन उसके बाद अकुलाहट बढ़ने लगी। मैं मन को समझाता रहा लेकिन अकुलाहट बनी रही। बारह बजते-बजते तो कानों में नगाड़े बजने लगे - ‘चलो! गुरुद्वारे हो आएँ।’ हालत यह हो गई कि न काम में मन लगे न कुछ और सोचने में। 

अन्ततः घर से निकला। गुरुद्वारे पहुँचा। मानो यन्त्रवत पहुँचा। उसी दशा में सर पर रूमाल बाँध, प्रवेश किया। अन्दर भजन चल रहे थे। चिर-परिचित भजन ‘एक नूर ते सब जग उपज्या’ गाया जा रहा था। स्त्री-पुरुष हाथ जोड़े बैठे थे। कुछ परिचित चेहरे नजर आए। उन सबने मुझे कौतूहल और अविश्वास से देखा। मैंने, घुटने टेक कर ग्रन्थ साहब को प्रणाम किया। जेब में हाथ डाला। जो नोट हाथ में आया, भेंट पात्र में डाला। उल्टे पाँवों चलते हुए बाहर आया। उसी तरह, यन्त्रवत।

सर से रूमाल उतारते वक्त लग रहा था, किसी का बताया, बड़ा भारी काम कर लिया है। जिम्मेदारी से मुक्त हो गया हूँ। सारी अकुलाहट समाप्त हो गई है। सब कुछ शान्त और सामान्य हो गया है। अब खुल कर साँस ली जा सकती है।
मेरे लिए यह बहुत ही असामान्य अनुभव है। मैं धर्म को नितान्त निजी मामला मानता हूँ। अपना सारा धरम-करम घर के अन्दर ही करता हूँ। अपनी धार्मिक गतिविधियों के सार्वजनीकीकरण से यथासम्भ्वव बचता हूँ। उत्तमार्द्धजी के मनोनुकूल जब भी मन्दिर जाता हूँ तो यथासम्भव इतनी देर से जाता हूँ कि वहाँ पुजारी के अतिरिक्त शायद ही कोई मिले। मेरे घर से साई मन्दिर आधा किलोमीटर से भी कम दूरी पर है। पर याद नहीं आता कि वहाँ कब गया थ। मुझे बेसन की, चाशनी पगी बूँदी (जिसे मालवी में हम लोग नुक्ती/नुगदी कहते हैं) बहुत पसन्द है। साई मन्दिर पर जब भी भण्डारा होता है, वहाँ से अपने लिए बूँदी अवश्य मँगवाता हूँ।

ऐसे में आज का यह अनुभव मुझे अब तक चक्कर में डाले हुए है। केवल मुझ तक पहुँची अनजानी, निराकारी आवाज के अतिरिक्त मुझे एक भी कारण नजर नहीं आ रहा कि मैं गुरुद्वारे जाऊँ। इसका जवाब शायद मनोविज्ञान में ही होगा। खुद को टटोल रहा हूँ तो जवाब मिलता है कि आज गुरु नानक जयन्ती होने की बात और इसी वजह से गुरुद्वारे जाने की बात मेरे अवचेतन में रही होगी। लेकिन अवचेतन की कोई बात इतनी प्रभावी हो सकती है? मैं अपनी अकुलाहट का वर्णन अब भी नहीं कर पा रहा हूँ।

यह चाहे जिस कारण से हुआ, लेकिन मेरे लिए यह अत्यन्त असामान्य अनुभव है।
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8 comments:

  1. ईश्वर की प्रेरणा ही आवाज़ बनकर आपको गुरुद्वारे ले गई होगी । जीवन मे कभी न कभी
    अनहोनी घटनाएं होती ही है ।

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    1. शायद यही सही हो। मैं तो अभी भी उलझन में हूँ।

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  2. ईश्वर की प्रेरणा ही आवाज़ बनकर आपको गुरुद्वारे ले गई होगी । जीवन मे कभी न कभी
    अनहोनी घटनाएं होती ही है ।

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    1. हाँ। मुझे भी यही लगता है।

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    1. जी। मेरे पास भी इसके सिवाय कोई जवाब नहीं है अब तक।

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (06-11-2017) को
    "बाबा नागार्जुन की पुण्यतिथि पर" (चर्चा अंक 2780)
    पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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