पत्रकारिता के सरोकार और गाँधी -3

(इसी आलेख  को, पत्रकारिता से जुड़े अपने मित्रों को पढ़वाने के लिए मैं ‘अकार 46’ की अतिरिक्त प्रतियाँ मँगवाना चाह रहा था और पूरा मूल्य मिलने के बाद भी, यह जानकर कि मैं मुफ्त वितरण के लिए मँगवा रहा हूँ, सम्पादक प्रियम्वदजी ने प्रतियाँ  भेजने से इंकार कर दिया था। मुझे आकण्ठ विश्वास है कि इसे पसन्द किया जाएगा और सराहा भी जाएगा। आलेख मुझे ‘अकार’ से ही प्राप्त हुआ है।)  


संसद की स्थायी समिति की सिफारिशों का भी वही हाल हुआ जैसा पहले प्रेस सम्बन्धी बनी समितियों, आयोगों और वेज बोर्डों की सिफारिशों का हुआ था। लिहाजा समिति ने जो आशंका व्यक्त की थी उसका परिणाम 2014 के आम चुनाव में देखने को मिला। यह बात अलग है कि आशंका व्यक्त करने वाली समिति के अध्यक्ष राव इन्द्रजीत भी उसी दल की नाव पर सवार हो गए, जिस पर 2014 के चुनाव को खरीदने का आरोप लगा। यह आम चुनाव इसलिए भी यादगार रहेगा क्योंकि यह अब तक का सबसे मँहगा चुनाव साबित हुआ। अरबों रुपए का वारा-न्यारा किया गया। पूरा चुनाव अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव की तरह लड़ा गया। जाहिर सी बात है कि पैसा भी उसी तरह से लगाया गया। दो साल पहले अमेरिका में हुए चुनाव पर 42,000 हजार करोड़ रुपए लगे थे, वहीं भारत के इस आम चुनाव पर अनुमानतः 31,950 करोड़ रुपये लगाए गए, जिसमें अकेले भाजपा ने ही 21,300 करोड़ रुपए खर्चे हैं। शेष राशि सभी दलों ने मिलकर खर्च की। करीब 3,350 करोड़ रुपए प्रिण्ट, इलेक्ट्रानिक और सोशल मीडिया पर न्यौछावर किए गए। एक तरह से कारपोरेट और पीआर ने मिलकर चुनाव को कैप्चर कर लिया। भारतीय राजनीति में यह नया फेनोमिना था, जिसमें सब कुछ कारपोरेट और पीआर ने तय किया। यह फेनोमिना जहाँ भारतीय पत्रकारिता की कब्र खोदने का काम कर रहा है वहीं लोकतन्त्र को तहस-नहस कर देगा। अभी तक लोकतन्त्र में जनता की भूमिका अहम मानी जाती थी, लेकिन अब एमबीए डिग्रीधारी मैनेजर ही लोकतन्त्र की नींव माने जा रहे हैं। राजनीतिक दल करोड़ों-अरबों रुपए देकर जनता का मूड बदलने के लिए उन्हें हायर कर रहे हैं। वे ऐसा मानते हैं कि ये मैनेजर जनता का मूड उनके पक्ष में कर देते हैं। लोकतन्त्र की हत्या करने वाली इस परिपाटी पर शायद ही कहीं पत्रकारिता में सवाल उठें। ऐसी पत्रकारिता देखकर गणेश शंकर विद्यार्थी की पत्रकारीय नीति याद आती है। उन्होंने 1913 में साप्ताहिक पत्र ‘प्रताप’ निकाला था, जिसके पहले अंक में ‘प्रताप की नीति’ के बारे में बताते हुए लिखा था ‘मनुष्य की उन्नति भी सत्य की जीत के साथ बँधी है, इसलिए सत्य को दबाना हम महापाप समझेंगे और उसके प्रचार और प्रकाश को महापुण्य।.......जिस दिन हमारी आत्मा ऐसी हो जाए कि हम अपने प्यारे आदर्श से डिग जावें, जान-बूझकर असत्य के पक्षपाती बनने की बेशर्मी करें और उदारता, स्वतन्त्रता और निष्पक्षता को छोड़ देने की भीरुता दिखावें, वह दिन हमारे जीवन का सबसे अभागा दिन होगा और हम चाहते हैं कि हमारी उस नैतिक मृत्यु के साथ ही साथ हमारे जीवन का अन्त हो जाए।’ अगर गणेश शंकर विद्यार्थी की इस कसौटी पर आज की पत्रकारिता को कसा जाए तो शायद ही कोई समाचार पत्र और टीवी न्यूज चैनल खरा उतरे।

पिछले आम चुनाव में सत्ता में आने वाली नरेन्द्र मोदी सरकार के शुरुआती महीनों में भारतीय दूरसंचार नियामक आयोग (ट्राई) की मीडिया स्वामित्व व उससे जुड़े मसलों पर रिपोर्ट आई। आयोग ने खबरों के प्रकाशन और प्रसारण में स्वतन्त्रता और बहुलता सुनिश्चित करने के लिए समाचार पत्रों और टीवी चैनलों में प्रवेश करने वाले राजनीतिक दलों और कारपोरेट घरानों पर पाबन्दी  की सिफारिश की। न्यूज मीडिया में शेयर बँटवारे के ढाँचे, प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष हितों का खुलासा करने की बात कही। आन्तरिक बहुलता से निपटने के लिए आयोग ने 2008 के एक सुझाव को दोहराते हुए कहा कि राजनीतिक, सरकारी अथवा धार्मिक इकाइयों एवं उनसे जुड़े लोगों को बाहर करना चाहिए। चौथा बिन्दु-मीडिया को कम्पनियों के नियन्त्रण से मुक्त रखना होगा। पाँचवाँ-दूरदर्शन को स्वतन्त्र और निष्पक्ष ढंग से प्रसारण करने के लिए स्वायत्त बनाना होगा। छठा-प्रिण्ट और टीवी मीडिया के लिए एक ही स्वतन्त्र नियामक (इसमें अधिकतर मीडिया जगत से बाहर के प्रमुख लोगों को रखना) की स्थापना करना, जिसे पेड न्यूज व निजी समझौतों के आधार पर खबरों के प्रकाशन व सम्पादकीय स्वतन्त्रता से जुड़े मुद्दों की जाँच करने और जुर्माना लगाने का अधिकार देने की सिफारिश की है। इस स्वतन्त्र नियामक को पेड न्यूज पर सभी पक्षों की जिम्मेदारी तय करने की बात कही गई है। सातवाँ बिन्दु सम्पादकीय मण्डल में निजी समझौते, पेड न्यूज या विज्ञापन से जुड़े किसी भी हस्तक्षेप पर प्रतिबन्ध लगाना है तो आठवाँ बिन्दु राजनीतिक दलों, धार्मिक संस्थाओं, सार्वजनिक धन से चलने वाली संस्थाओं व उनकी सहायक एजेंसियों को प्रसारण और टीवी चैनल वितरण क्षेत्र में आने से रोका जाना है। साथ ही अगर किसी संगठन को पहले से मंजूरी मिली है तो उसे बाहर निकलने का विकल्प भी रखना चाहिए। लेकिन जैसी आशंका थी, मोदी सरकार ने ठीक वैसा ही किया। सरकार ने आयोग की रिपोर्ट को ठण्डे बस्ते में डाल दिया। सरकार के पास इसके सिवा दूसरा विकल्प भी नहीं था, क्योंकि जिन लोगों (कारपोरेट, पीआर और मीडिया) ने सामूहिक रूप से मोदी को यहां तक पहुँचाने में अहम किरदार निभाया हो उन पर मोदी सरकार शिकंजा कसेगी, यह उम्मीद करना बेमानी है।

गाँधी ने भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन को दिशा देने का काम किया। जीवन के अन्तिम समय तक राजनीतिक और सामाजिक काम किए। सत्याग्रह, जुलूस से लेकर आन्दोलनों का नेतृत्व किया। इसके बावजूद उन्होंने अपनी पत्रकारिता को कभी किसी व्यक्ति विशेष अथवा संगठन का मोहरा नहीं बनाया। वह अपने लिखे एक-एक शब्द पर मनन करते थे। उसके सकारात्मक और नकारात्मक परिणाम के बारे में सोचते थे। सच की कसौटी पर खरा उतरने वाली भाषा का इस्तेमाल करते थे। इसके साथ ही वह पाठकों को यह अधिकार देते थे कि वे समाचार पत्र पर नजर रखें कि कहीं कोई अनुचित और झूठी खबर तो नहीं छपी है। अविवेकपूर्ण भाषा का इस्तेमाल तो नहीं हुआ है। उन्होंने यहाँ तक लिखा कि ‘सम्पादक पर पाठकों का चाबुक रहना ही चाहिए, जिसका उपयोग सम्पादक के बिगड़ने पर हो।’ ऐसा लिखते हुए गाँधी एक तरह से पत्रकारिता को चोट पहुँचाने वालों को शक की नजर से देखने की वकालत करते थे। शक करने वाली उनकी सीख का मायने आज कहीं अधिक है। मौजूदा समय के जनसंचार माध्यमों में जिस तरह से खबरों के प्रकाशन और प्रसारण में पक्षपात किया जा रहा है उसे देखते हुए पाठकों और दर्शकों को हर खबर को शक की नजर से देखना होगा। उन पर आँख मूँदकर भरोसा करने के बजाय उसके आगे और पीछे के बारे में सोचना होगा। पत्रकारिता ने तथ्यों को क्रॉस चेक करने वाला सिद्धान्त लगभग बिसरा दिया है, लेकिन लोगों को ये जिम्मेदारी उठानी होगी कि वे पत्रकारिता में पेश किए जा रहे तथ्यों को क्रॉस चेक करें। तत्पश्चात अपनी राय बनाएँ। अगर ऐसा नहीं करेंगे तो उनमें और एक अशिक्षित व्यक्ति में किसी तरह का अन्तर नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति में आप वही भाषा बोलेंगे जो समाचार पत्र बोलता है और टीवी बोलता है।
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(लखनऊ में, 1-2 अक्टूबर 2016 को आयोजित दो दिवसीय ‘अहिंसा फेस्टिवल’ में दिए गए व्याख्यान का सम्पादित स्वरूप। मूल आलेख तथा सन्दर्भ सूची ‘अकार-46’ में उपलब्घ।)



अटल तिवारी - पत्रकारिता से दस-बारह वर्षों तक जुड़े रहे हैं। लखनऊ आकाशवाणी के लिए बेग़म अख़्तर पर श्रृंखला ‘कुछ नक्श मेरी याद के’ तैयार की है। आजकल दिल्ली के एक कॉलेज में पत्रकारिता पढ़ाते हैं।
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