असहमति में बसते हैं लोकतन्त्र के प्राण

एक थे रमेश दुबे। शाजापुर के विधायक थे। 1967 में भारतीय जनसंघ के उम्मीदवार के रूप में चुने गए थे किन्तु बाद में, तत्कालीन मुख्य मन्त्री द्वारकाप्रसादजी मिश्र के प्रभाव से काँग्रेस में आ गए थे। यह किस्सा उन्होंने मुझे तो नहीं सुनाया था किन्तु जिस जमावड़े में सुनाया था, उसमें मैं भी मौजूद था।

बात आपातकाल की थी।  अखबारों पर सेंसरशिप लागू थी। तत्कालीन काँग्रेसाध्यक्ष देवकान्त बरुआ ने ‘इन्दिरा ही भारत और भारत ही इन्दिरा’ (इन्दिरा इज इण्डिया एण्ड इण्डिया इज इन्दिरा) का नारा देकर अपनी अलग पहचान बनाई हुई थी। काँग्रेस का सिण्डिकेट जिस इन्दिरा गाँधी को ‘गूँगी गुड़िया’ कह कर कठपुतली की तरह नचाने के मंसूबे बाँधे हुए था वही इन्दिरा गाँधी सबको तिगनी का नाच नचा रही थी। लोकनायक जयप्रकाश नारायण ‘दूसरी आजादी’ का उद्घोष कर चुके थे। पूरा देश उनके पीछे चल रहा था। जेपी समेत तमाम जेपी समर्थक काँग्रेसियों सहित विरोधी दलों के नेता जेलों में बन्द किए जा चुके थे। सेंसरशिप के बावजूद चुप न रहनेवाले पत्रकार भी कैद किए जा रहे थे। इन्दिरा गाँधी दहशत का पर्याय बन चुकी थी। किन्तु इन्दिरा खेमे में जेपी के नाम की दहशत थी। उन्हें खलनायक बनाने के उपक्रम शुरु हो चुके थे। इन्हीं में से एक उपक्रम था - फासिस्ट विरोधी सम्मेलन। गाँव-गाँव में ऐसे सम्मेलन आयोजित किए जा रहे थे। काँग्रेसी इन्हें ‘फासिस्ट सम्मेलन’ कहते थे। 

ऐसे ही एक सम्मेलन में तत्कालीन मुख्य मन्त्री प्रकाशचन्द्रजी सेठी ने जेपी को चुनौती दे दी - ‘मध्य प्रदेश में कहीं से विधान सभा  चुनाव जीतकर बता दें।’ उनका कहना था कि दुबेजी उठ खड़े हुए और बोले - ‘ओ साब! बस करो। आज ये कह दिया सो कह दिया। आगे से ऐसा कहने की भूल मत करना। हमारे गाँवों में पंचायतों के ऐसे वार्ड भी हैं जहाँ इन्दिराजी भी नहीं जीत सकती। किसी सड़कछाप आदमी  ने इन्दिराजी को ऐसी चुनौती दे दी तो, आप तो चले जाओगे लेकिन हम लोगों को लेने के देने पड़ जाएँगे। बोलती बन्द हो जाएगी। जवाब देते नहीं बनेगा।’ सेठीजी अपनी सख्ती के कारण अलग से पहचाने जाते थे। लेकिन कुछ नहीं बोले। अपना भाषण खत्म किया और बैठ गए। यह चुनौती उन्होंने कहीं नहीं दुहराई। 

बिलकुल ऐसा का ऐसा तो नहीं लेकिन मूल विचार में ऐसा ही किस्सा बैतूलवाले राधाकृष्णजी गर्ग वकील साहब ने सुनाया था। गर्ग साहब काँग्रेस के जुझारू मैदानी कार्यकर्ता रहे। यह किस्सा भी 1967 के विधान सभा चुनावों का है। उन्हें पूरा भरोसा था कि काँग्रेस की उम्मीदवारी उन्हें ही मिलेगी। उनकी तैयारी और भागदौड़ भी तदनुसार ही थी। किन्तु निजी नापसन्दगी के कारण द्वारकाप्रसादजी मिश्र ने किसी और को उम्मीदवारी दे दी। गर्ग साहब ने आपा नहीं खोया। सीधे जाकर मिश्रजी से मिले और बोले - ‘दादा! आपने मेरा टिकिट काट दिया। कोई बात नहीं। किन्तु मैं यह कहने आया हूँ कि मैं चुनाव लडूँगा और काँग्रेसी उम्मीदवार बन कर लडूँगा। मैं यही कहूँगा कि नाराजगी के कारण मिश्रजी ने भले ही मुझे उम्मीदवार नहीं बनाया किन्तु असली काँग्रेसी उम्मीदवार मैं ही हूँ। आज निर्दलीय लड़ने का मजबूर कर दिया गया हूँ लेकिन जीतने के बाद काँग्रेस में ही जाऊँगा। आपसे एक ही निवेदन है कि प्रचार के लिए आप मेरे विधान सभा क्षेत्र में मत आना। वहाँ आपके बनाए काँग्रेसी उम्मीदवार की हार तय है। आप प्रचार पर आओगे तो लोग इसे आपकी हार कहेंगे। यह मुझे अच्छा नहीं लगेगा। आपने भले ही मुझे टिकिट नहीं दिया लेकिन मेरे नेता तो आप ही हो।’ मिश्रजी चुपचाप सुनते रहे। कुछ नहीं बोले।

अपनी बात कह कर गर्ग साहब लौट आए और काम पर लग गए। मिश्रजी ने गर्ग साहब का कहा माना। बैतूल क्षेत्र में प्रचार के लिए नहीं गए। हुआ वही जो गर्ग साहब घोषित करके आए थे। काँग्रेसी उम्मीदवार को पोलिंग एजेण्ट नहीं मिले। गर्ग साहब अच्छे-भले बहुमत से जीते। वे ‘निर्दलीय’ के रूप में विधान सभा में पहुँचे लेकिन लोगों ने उन्हें काँग्रेसी विधायकों के बीच ही पाया। 

ये किस्से यूँ ही याद नहीं आए। गए दिनों प्रधानमन्त्री मोदी ने भाजपाई सांसदों को कुछ भी पूछताछ न करते हुए, चुपचाप, हनुमान की तरह दास-भाव से काम करने की सलाह दी। वही देख/पढ़कर मुझे दुबेजी और गर्ग साहब याद आ गए। दोनों ने अपने-अपने नेता को अनुचित पर टोका और टोकने के बाद भी निष्ठापूर्वक अपनी-अपनी जगह बने रहे। इसके समानान्तर यह भी उल्लेखनीय कि दोनों नेताओं ने इनकी बातों की न तो अनुसनी, अनदेखी की न ही इनकी बातों का बुरा माना। ये दोनों अपने नेताओं से असहमत थे लेकिन नेताओं ने इनकी असहमति को ससम्मान सुना और परिणाम आने से पहले ही स्वीकार किया। 

देश हो या दल, लोकतन्त्र के प्राण तो असहमति को सुनने और संरक्षण देने में ही बसते हैं। अंग्रेजी का ‘इण्डियन एक्सप्रेस’ इन्दिरा गाँधी को ‘अ.भा. काँग्रेस समिति की एकमात्र पुरुष सदस्य’ (ओनली मेल मेम्बर ऑफ एआईसीसी) लिखता था। जिस पर इन्दिरा गाँधी की आँख टेड़ी हो जाती, उसका राजनीतिक जीवन समाप्त मान लिया जाता था। उन्हीं इन्दिरा गाँधी की इच्छा के विपरीत युवा तुर्क चन्द्रशेखर  काँग्रस समिति का चुनाव लड़े भी और जीते भी। लेकिन काई अनुशासनात्मक कार्रवाई करना तो दूर रहा, इन्दिरा गाँधी ने सार्वजनिक रूप से अप्रसन्नता भी नहीं जताई। ऐसा ही एक और मौका आया था जब जतिनप्रसाद चुनाव लड़े थे। वे हार गए थे किन्तु इन्दिरा गाँधी ने तब भी कोई कार्रवाई नहीं की थी। 

लेकिन कालान्तर में इन्दिरा गाँधी ने, पार्टी अध्यक्ष और प्रधान मन्त्री पद पर एक ही व्यक्ति रखने की शुरुआत कर काँग्रेस का आन्तरिक लोकतन्त्र खत्म कर दिया। काँग्रेस के क्षय का प्रारम्भ बिन्दु आज भी यही निर्णय माना जाता है। 

समाजवादी आन्दोलन का तो आधार ही असहमति रहा है। समाजवादियों से अधिक वैचारिक सजग-सावधान लोग अन्य किसी दल में कभी नहीं रहे। समाजवादियों की तो पहचान ही ‘नौ कनौजिए, तेरह चूल्हे’ बनी रही। एक समाजवादी सौ सत्ताधारियों पर भारी पड़ता था। संसद की तमाम प्रमुख बहसें आज भी समाजवादियों के ही नाम लिखी हुई हैं। समाजवादियों के कारण ही सत्ता निरंकुश नहीं हो सकी। किन्तु समाजवादियों का सत्ता में आना हमारे लोकतन्त्र की सर्वाधिक भीषण दुर्घटना रही। 

जहाँ तक संघ (भाजपा) का सवाल है, वहाँ तो आन्तरिक लोकतन्त्र की कल्पना करना ही नासमझी है। वहाँ तो ‘एकानुवर्तित नेतृत्व’ की अवधारणा ही एकमात्र घोषित आधार है। ऐसे में मोदी का, अपने सांसदों को चुप रहने की सलाह देना ही चकित करता है। याने, लोग बोलने लगे थे! यह तो संघ की रीत नहीं! वहाँ तो असहमति विचार ही अकल्पनीय है। भारतीय जनसंघ के संस्थापकों में अग्रणी और भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष रहे बलराज मधोक को आज कितने लोग जानते, याद करते हैं? वे मरे तो, दलगत आधार पर दस लोग भी नहीं पहुँचे। जिन्ना को धर्मनिरपेक्ष घोषित करने की सजा भुगतते आडवाणीजी को सबने देखा। कीर्ति आजाद, शत्रुघ्न सिन्हा की दशा सामने है। 

सवाल न करना, चुप रहना जीवन की निशानी नहीं। वह तो निर्जीव होने की घोषणा है। केवल ‘क्रीत दास’ (खरीदा हुआ गुलाम) ही सवाल नहीं करता। हमारी तो पहचान ही यह बोलना है - ‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे। बोल! जुबाँ अब भी है तेरी।’ 

केवल सन्तुष्ट गुलाम ही सवाल नहीं करता। और सारी दुनिया जानती है कि आजादी का सबसे बड़ा दुश्मन सन्तुष्ट गुलाम ही होता है।
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दैनिक ‘सुबह सवेरे’ (भोपाल) में दिनांक 20 अप्रेल 2017 को प्रकाशित जिसमें मैंने गलती से देवकान्त बरुआ की जगह हेमकान्त बरुआ लिख दिया।

कर्मफल पर अधिकार माँगनेवाला कलमकार

श्री मध्य भारत हिन्दी साहित्य समिति, इन्दौर ने देश के प्रख्यात भाषाविद्, मूूूूर्धन्‍य साहित्‍यकार डॉक्टर जयकुमार जलज को अपने छठवें ‘प्रान्तीय शताब्दी सम्मान’ से अलंकृत किया। इस सम्मान में शाल-श्रीफल सहित पचास हजार रुपये नगद भेंट किए जाते हैं। रविवार दिनांक 26 मार्च 2017 को यह सम्मान समारोह इन्दौर में, ‘समिति’ के मुख्यालय, मानस भवन में सम्पन्न हुआ। नब्बे वर्षों से निरन्तर प्रकाशित हो रही, ‘समिति’ की प्रतिष्ठित मासिक पत्रिका ‘वीणा’ के, अप्रेल 2017 के अंक में जलजजी पर मेरा एक आलेख प्रकाशित हुआ है। अपना यह आलेख अपने ब्लॉग पर केवल इसलिए दे रहा हूँ ताकि यह स्थायी रूप से सुरक्षित रह सके। इसे पढ़ना और/या इस पर टिप्पणी करना आपके लिए बिलकुल ही जरूरी नहीं। किन्तु यदि आप ऐसा करते हैं तो यह मेरे लिए ‘अतिरिक्त बोनस’ ही होगा। इसके लिए आपको अन्तर्मन से आभार और धन्यवाद। हिन्दी की मौजूदा दशा पर केन्द्रित, जलजजी का एक महत्वपूर्ण आलेख यहाँ उपलब्ध है।


बाँये से ‘समिति’ के प्रधानमन्त्री श्री सूर्यप्रकाश चतुर्वेदी, श्रीमती प्रीती जलज, डॉ. जयकुमार जलज, कार्यक्रम के अध्यक्ष न्यायमूर्ति श्री वीरेन्द्रदत्तजी ज्ञानी, कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रो. सूर्यप्रकाशजी दीक्षित (लखनऊ) तथा ‘समिति’ के वाचनालय सचिव श्री अरविन्द ओझा।

जलजजी पर लिखना जितना सुखकर है उतना ही कठिन भी। किसी को उसके वास्तविक आकार में देखने के लिए एक निश्चित दूरी जरूरी होती है। बहुत पास आ जाए तो आकार धुंधला जाता है और दूर चला जाए तो ओझल हो सकता है। जलजजी और मेरे बीच की यह ‘आवश्यक निश्चित दूरी’ नहीं रही। लिहाजा मैं या तो उनके पीछे जयकार-मुद्रा मे हूँ या फिर ऐन सामने, मुठभेड़-मुद्रा में।

जलजजी पर लिखने की बात आई तो उनकी, एक के बाद एक अनेक छवियाँ उभरने लगीं। लेकिन एक भी ऐसी नहीं जो लिखने में मदद करे। जिस आदमी के पास घण्टा भर बैठने के बाद आपको गिनती के पाँच-सात वाक्य सुनने को मिलें, उस आदमी पर क्या लिख जाए? कैसे लिखा जाए? 

मैंने मुक्तिबोध को नहीं देखा न ही उनके बारे में कुछ जाना। किन्तु मुक्तिबोध से जुड़ा परसाईजी का संस्मरण पढ़ते-पढ़ते मुझे जलजजी नजर आने लगे। परसाईजी लिखते हैं -  ‘वे एकदम किसी से गले नहीं मिलते थे।‘ और ‘सामान्य आदमी का वे एकदम भरोसा करते थे लेकिन राजनीति और साहित्य के क्षेत्र के आदमी के प्रति शंकालु रहते थे।’ जलजजी से बरसों से मिलता चला आ रहा हूँ लेकिन वे मुझे हर बार ऐसे ही लगे। उनके साथ सबसे बड़ी दिक्कत (क्षमा करें, ‘दिक्कत’ नहीं, ‘चिढ़’) यह है कि वे आसानी से नहीं बोलते। गप्प-गोष्ठी के काबिल तो वे बिलकुल नहीं हैं। गप्प-गोष्ठी की बतरस का आनन्द, काम की बात से नहीं, बेकाम की बातों में ही आता है। खुद की तारीफ करने और गैरहाजिर की निन्दा करने का मजा ऐसी ही बैठकों में लिया जा सकता है। लेकिन जलजजी इन दोनों कामों के लिए कंजूस या कि ‘मिसफिट आदमी’ हैं। लिखने की कठिनाई का अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इनके बारे में कोई अफवाह भी सुनने का नहीं मिलती। 

लेकिन जब ‘किनारे से धार तक’ की कविताएँ पढ़ीं तो बात समझ में आई। जलजजी बोलते हैं, खूब बोलते हैं, बखूबी बोलते हैं लेकिन अपनी कविताओं में, कविताओं के जरिए बोलते हैं। एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था - ‘कविता नहीं तो जीवन नहीं।’ तब यह एक जुमला लगा था। लेकिन जब इनकी कविताओं से मुलाकात हुई तो जलजजी का न बोलना समझ में आया।

जलजजी की कविताओं ने मेरे सारे मुख्य प्रश्नों के उत्तर दे दिए। केवल पूरक प्रश्न रह गए जिनके उत्तर पाना बहुत कठिन नहीं था। वस्तुतः संघर्षों, प्रतिकूलताओं ने जलजजी को किसी और से बात करने का समय ही नहीं दिया। जिन्दगी ने कदम-कदम पर इम्तिहान लिए। जिद और जीवट यह कि हर कदम पर जवाब दिया - ‘तू तेरी करनी में कसर मत रख। बन्दा रुकनेवाला नहीं।’ पढ़ने के लिए घर से कानपुर चले तो मालूम था कि पढ़ने के साथ कमाना भी पड़ेगा। वहाँ से झाँसी आना पड़ा। कॉलेज में प्रवेश के साथ ही स्कॉलरशिप और फ्रीशिप, दोनों के लिए आवेदन दिया। प्राचार्य ने कहा - ‘कोई एक मिलेगा।’ जरूरतमन्द विद्यार्थी अड़ गया - ‘दोनों मिलें तो यहाँ पढ़ूँ। वर्ना मैं चला।’ प्राचार्य ने रोका नहीं। उल्टे डराया - ‘तुम फर्स्ट डिविजन नहीं ला पाओगे।’ जवाब जलजजी ने नहीं, उनकी अंकसूची ने दिया। संस्कृत में विशेष योग्यता के साथ इण्‍टर प्रथम श्रेणी में किया। मुकाम मिला इलाहाबाद में। ‘पढ़ाई और कमाई’ की जुगलबन्दी यहाँ भी जारी रखनी पड़ी। महादेवी द्वारा प्रकाशित ‘साहित्यकार’ में एक कविता छपने पर दस रुपये मिलते थे। उत्तर प्रदेश सरकार की डाक्यूमेण्टरी फिल्मों के आलेख लिखे। नवभारत टाइम्स और हिन्दुस्तान में कविताएँ छपने लगीं। यह 1953 से 1957 का काल खण्ड था। 1958 में नौकरी लगी। बड़ौत (मेरठ) कॉलेज में ज्वाइन करना था। स्थिति यह रही कि मित्र राजकुमार शर्मा ने कुर्ता-पायजामा उपलब्ध कराया। वास्तविकता को झुठलाना या छुपाना कभी नहीं रुचा। जीवनसंगिनी का चुनाव खुद किया और विवाह से पहले ससुराल जाकर ससुरजी को साफ बता आए कि उनका दामाद बारात लेकर तो आएगा किन्तु सजधज कर नहीं आएगा। 

ये सारी और ऐसी अनेक कहानियाँं जलजजी की कविताएँ सूत्रों में कहती हुई बहती हैं। प्रतिकूलताओं से पेश चुनौती कबूल कर जलजजी जवाब में विधाता से कर्म पर ही नहीं, कर्मफल पर भी अधिकार की हठ कर ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन’ से आगे जाने की ताल ठोकते मिले। कहावतों के जरिए मजबूरी को छुपाना उन्हें नहीं सुहाया। चाँदी का चम्मच मुँह में लेकर पैदा होनेवाले भी खुद को संघर्ष-पूत बताने के मौके तलाशते रहते हैं। लेकिन जलजजी ऐसे मौकों से दूर की नमस्ते करते हैं। 

मैं 1977 में रतलाम आया। तबसे जलजजी को देखता-सुनता रहा हूँ। वे 1994 में रिटायर हुए। पहले प्राध्यापक, फिर हिन्दी विभागाध्यक्ष और फिर 1983 से लेकर 1994 तक, (सेवानिवृत्ति तक) प्राचार्य रहे। लेकिन मुझे आज भी ताज्जुब है कि वे विवादास्पद नहीं हुए जबकि राजनीतिक रूप से रतलाम कम सम्वेदनशील नहीं। प्राचार्यकाल में न तो किसी नेता से मिलने गए न ही कलेक्टर से। वे दिगम्बर जैन हैं। किन्तु अपना जैनी होना अपनी ओर से कभी नहीं जताया। जैन समाज ने बुलाया तो चले गए वर्ना अपने काम से काम। अब तो उन्हें याद भी नहीं कि उन्होंने खुद को ‘जयकुमार जैन’ के बजाय ‘जयकुमार जलज’ लिखना कब शुरु किया था। उनकी पढ़ाई के जमाने में जातिवाद बहुत प्रभावी था। किन्तु उन्हें जातिगत पहचान अनुचित लगी। सो,जैन से जलज बन गए। 

उनका जमाना, गाँधी-नेहरू का जमाना था। किन्तु मुझे वे क्रमशः जेपी (जयप्रकाश नारायण), राममनोहर लाहिया और गाँधी से प्रभावित लगे। जेपी की सादगी, लोहिया का फक्कड़पन और अपने विचार के प्रति गाँधी की दृढ़ता से वे आज भी मोहित और प्रभावित हैं। 

जलजजी से मिलना-जुलना बढ़ा तो कुछ मित्रों ने मुझे सावधान किया - ‘जलजजी मेनुपलेट करते हैं।’ मुझे बात समझ में नहीं आई। ‘मेनुपलेट’ पल्ले ही नहीं पड़ा। मुझे समझाया गया - ‘मूर्ख बनाकर अपना काम साधना।’ मैं सचमुच में सावधान हो गया। लेकिन यह देखकर हैरत भी हुई और खुशी भी कि जलजजी ने मुझसे अपने कुछ काम साधे तो जरूर किन्तु हर बार साफ-साफ कहकर। 

सन् 2002 में उनकी पुस्तक ‘भगवान महावीर का बुनियादी चिन्तन’ आई। एक प्रति मुझे भी दी और कहा - ‘पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया बताइएगा जरूर।’ मैंने किताब पढ़ी। बहुत अच्छी लगी। वस्तुतः  इतनी सरलता से सुस्पष्ट तौर पर ‘महावीर’ मुझे पहली बार समझ में आए। अपनी अनुभूति सुनाते हुए मैंने जलजजी से कहा - ‘यह किताब आपको बहुत यश दिलाएगी।’ वे कुछ नहीं बोले। एक छोटी सी ‘हूँ’ करके रह गए। उनके न बोलने के स्वभाव से परिचित होने के कारण उनका कुछ न कहना मुझे अटपटा नहीं लगा।

किन्तु जब उस किताब के एक के बाद एक संस्करण आने लगे, विभिन्न भाषाओं में उसके अनुवाद होने लगे तो एक दिन अचानक ही बोले - ‘आपने जब कहा था कि यह किताब मुझे बहुत यश दिलाएगी तब मैंने आपकी बात को औपचारिक प्रशंसा ही माना था। किन्तु अब देख रहा हूँ कि आपकी बात सच साबित हुई।’ ‘जलजजी को  आखिरकार मेरी बात माननी पड़ी’ इस अहम् तुष्टि से अधिक इस बात ने मेरा ध्यानाकर्षित किया कि जलजजी ने अपने, उस समय के अविश्वास को बिना किसी भूमिका के, दो-टूक शब्दों में व्यक्त कर दिया। मैं तो शायद ही ऐसा कर पाता।

कलमकारों का शोषण मुझे आज तक नहीं रुचा। तब तो बिलकुल ही नहीं रुचता जब आयोजक धनपति हो और आयोजन से उसे सीधा-सीधा आर्थिक-सामाजिक लाभ हो रहा हो। मध्य प्रदेश सरकार ने अपने एक समारोह में रतलाम के कवियों का काव्य पाठ कराया। जलजजी भी उनमें शामिल थे। मुझे लगा था कि सरकार ने कवियों को यथेष्ठ पारिश्रमिक दिया ही होगा। किन्तु (कुछ दिनों बाद) मालूम हुआ कि सरकार ने तो मुफ्तखोरी कर ली। मुझे बहुत बुरा लगा। (अब तक लगा हुआ है।) उन दिनों मैं साप्ताहिक ‘उपग्रह’ में ‘कही-अनकही’ स्तम्भ लिखता था। उस स्तम्भ में मैंने ’वे मुफ्तखोर, ये फुरसतिये’ शीर्षक से बहुत ही कड़वी और पत्थरमार टिप्पणी लिखी। उसकी जैसी प्रतिक्रिया होनी थी, हुई। काव्य पाठ करनेवाले कुछ कवियों ने और कलेक्टर के मुँह लगे कुछ अधिकारियों ने नाराजी जाहिर की। नजदीकी कवि मित्रों ने कुछ खरी-खोटी भी सुनाई। किन्तु जलजजी ने एक शब्द भी नहीं कहा। मुझे लगा, वे मेरी उपेक्षा कर, मुझे चिढ़ा रहे हैं। मैंने तनिक अशिष्ट लहजे में उनसे बात की। वे बोले - ‘मुझे लगा कि जाना चाहिए। मैं चला गया। आपको लगा, मुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था। आपने कह दिया। हम दोनों ने अपना-अपना काम किया। इसमें क्या कहना-सुनना?’ उनका जवाब अपनी जगह। किन्तु मैं आज भी गुस्सा हूँ और जलजजी आज भी अपनी बात पर कायम हैं। 

कोई दर्जन भर सम्मान आज जलजजी के नाम से जुड़े हुए हैं लेकिन यह सब उनके ‘सर पर सवार’ अनुभव नहीं होता। लगभग तीन लाख की आबादी वाले मेरे रतलाम में कोई साहित्यकार एक-दो बार मुख्य अतिथि या अध्यक्ष बन जाता हैं तो फिर वह श्रोता बनने से इंकार कर देता है। कोई साफ-साफ इंकार कर देता है तो कोई घुमा-फिरा कर। यह बात मैं यूँ ही, अनुमान से नहीं, अपने अनुभव से कह रहा हूँ। लेकिन जलजजी अहमन्यता के इस मामले में पिछड़े हुए हैं। श्रोता के रूप में बैठने में उन्हें आज भी असुविधा नहीं होती। 
मैं एक बहुत बड़े कवि का सगा छोटा भाई हूँ किन्तु आज के कवियों से घबराया, आतंकित की सीमा तक भयभीत रहता हूँ - पता नहीं, कौन, कब अपनी कविता सुनने का आग्रह कर दे! लेकिन इस मामले में  जलजजी ने सबको अभयदान दे रखा है। आप निश्शंक, निर्भय होकर जा सकते हैं। वे अपना ताजा लिखा या छपा न तो सुनाते हैं न ही पढ़ाते हैं। याद नहीं पड़ रहा कि मैं अब तक उनके घर कितनी बार गया। लेकिन यह पक्का याद है कि उन्होंने एक बार भी मुझे अपनी कविता नहीं सुनाई/पढ़ाई। 

जलजजी को सुनना आसान है लेकिन उनसे कुछ कहलवाना बहुत ही मुश्किल। वे बहुत सरल हैं। चौड़े पाटवाली, धीमे-धीमे बह रही, धीर-गम्भीर नदी की तरह सरल। इसीलिए उन पर लिखने को मैंने कठिन कहा है। धीमी बहती नदी में गर्जन-तर्जन नहीं होता। उसमें लहरें नहीं उठती। वह हिलोरें नहीं मारती। जलजजी को जलसों में सुना जा सकता है किन्तु अन्यथा तो मौन की साधना करनी पड़ेगी। वे नहीं बोलते। उनका मौन बोलता है। मैंने सुना है। मैं सुनता रहता हूँ।
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