बुलबुल भी हम, सैयाद भी हम

जब से उसके पास से लौटा हूँ, वह रोज सुबह वाट्स एप पर ‘सुविचार-सन्देश’ देने लगा है। पहले नहीं देता था। आज का चलन यही है। किन्तु आज आया उसका सन्देश पढ़कर मन जाने कैसा-कैसा तो हो गया है! सन्देश है - ‘रोटी कमाना बड़ी बात नहीं है। परिवार के साथ खाना बड़ी बात है।’ इन तेरह शब्दों ने मुझे झिंझोड़ दिया है। उसने यह सन्देश खुद भी पढ़ा या नहीं? केवल मुझे ही भेजा है या सबको? मुझे कह रहा है या अपनी व्यथा-कथा सुना रहा है? 
वह घर से कोई तीन सौ किलो मीटर दूर है। मित्र का बेटा है। अट्ठाईस बरस का, अविवाहित। मुझे पितृवत् मान देता है। किसी काम से उसके नगर जाना हुआ तो तीन दिन उसी के कमरे पर ठहरा। हम लोग बहत्तर घण्टे एक छत के नीचे रहे किन्तु दिन के उजाले में एक बार भी एक-दूसरे को नहीं देखा। वह सुबह सवा पाँच, साढ़े पाँच बजे निकल जाता। मैं अपनी सुविधा और आवश्यकतानुसार निकलता। मैं दिन ढलते कमरे पर पहुँच जाता किन्तु वह कभी भी रात साढ़े नौ बजे से पहले नहीं पहुँचा। वह भोजन करके आता और मैं उसके आने से पहले भोजन कर चुका होता। उसने चाहा भी कि कम से कम एक समय तो हम दोनों साथ भोजन करते। किन्तु ऐसा हो नहीं पाया। मैं लौटा तो उससे मिले बिना ही। उसकी गैर हाजरी में। उसने फोन पर कहा - ‘तीन साल से नौकरी कर रहा हूँ। लेकिन जैसा आज लग रहा है, वैसा पहले कभी नहीं लगा। मम्मी-पापा आते रहे। उनके साथ भी ऐसा ही हुआ। लेकिन आपका इस तरह जाना बर्दाश्त नहीं हो रहा। मम्मी-पापा तो आते रहेंगे लेकिन आप कब आएँगे? आज पहली बार अपनी नौकरी पर गुस्सा भी आ रहा है और शर्म भी। आप मुझे माफ कर दीजिएगा।’ उसकी भर्राई आवाज ने मुझे हिला दिया। मानो, कोई वट वृक्ष अपनी जड़ें छोड़ रहा हो। मैंने कठिनाई से कहा - ‘वल्कल (मेरा बड़ा बेटा)  की दशा भी कुछ ऐसी ही है। मैं समझ सकता हूँ। तुम मन पर बोझ मत रखो।’ 
माँ-बाप जल्दी से जल्दी उसका विवाह कर देना चाहते हैं। वह भी राजी है। किन्तु  वह पहले ‘सेटल’ हो जाना चाहता है। ‘सेटल’ याने इतना समृद्ध कि अपनी और अपनी पत्नी की इच्छाएँ पूरी कर सके। उसकी दशा देख कर फिल्म ‘रोटी, कपड़ा और मकान’ की, बरसात में भीगते हुए, ‘तेरी दो टकिया की नौकरी में मेरा लाखों का सावन जाए’ गाती हुई, नायिका नजर आने लगी। मुझे दहशत हो आई। मन ही मन प्रार्थना की - ‘हे! भगवान। इसे वैसी दशा से बचाना।’ 
गए रविवार को कुछ घण्टों के लिए भोपाल में था। तीन परिवारों में जाना हुआ। तीनों ही परिवारों में बूढ़े/अधेड़ पति-पत्नी। बिलकुल मुझ जैसी दशा तीनों की। बच्चे गिनती के और वे भी अपनी-अपनी नौकरी पर बेंगलुरु या पूना में। वहाँ, बच्चों को अपनी देखभाल करनी है और यहाँ हम बूढ़ों को अपनी। वे हमें लेकर चिन्तित और हम उन्हें लेकर। न वे हमारे साथ रह सकते और न ही हम वहाँ जाने की स्थिति में। तीनों जगह एक ही विषय। सम्वाद भी लगभग एक जैसे। उलझन भी एक जैसी - “बच्चों की ‘अच्छी-भली’ नौकरी पर खुश हों या सकल परिस्थितियों पर झुुंझलाएँ?” क्या स्थिति है! प्रत्येक वार त्यौहार पर वे हमें याद करें और हम उन्हें। त्यौहारों पर व्यंजन बनाने का जी न करे और बना लें तो स्वाद नहीं आए। मुझे रह-रह कर पुराना फिल्मी गीत याद आता है - ‘कैद में है बुलबुल, सैयाद मुस्कुराए। कहा भी न जाए, चुप रहा भी न जाए।’ किससे शिकायत करें? किसे दोष दें? हम ही बुलबुल, हम ही सैयाद! 
प्रख्यात कवि सुरेन्द्र शर्मा का एक वीडियो अंश मुझे एक के बाद एक, कई मित्रों ने भेजा। इस वीडियो अंश में सुरेन्द्र भाई दिल्ली के किसी कॉलेज में व्याख्यान देते हुए, अपने स्वभावानुरूप परिहासपूर्वक पालकों और बच्चों की मौजूदा ‘कैदी दशा’ और विसंगतियों पर तंज कस रहे हैं। सुनते हुए, कभी लगता है वे हमें रुला देंगे तो कभी लगता है खुद ही न रो दें। साफ अनुभव होता है कि तमाम बातों में कहीं न कहीं वे खुद भी शामिल हैं। उलझनों के बीहड़ में वे अपना रास्ता कुछ इस तरह घोषित करते हैं - ‘मेरा बेटा केवल पन्‍द्रह हजार रुपये महीने की नौकरी करता है लेकिन रात का भोजन मेरे साथ करता है। मेरे लिए इससे बड़ा और कोई पेकेज नहीं।’
यह तीन दिन पहले की बात है। रात के आठ बजनेवाले थे। प्रीमीयम जमा करने के लिए विजय भाई माण्डोत मेरे घर आए। मैंने चाय की मनुहार की। हाथ जोड़कर, नम्रतापूर्वक इंकार करते हुए बोले - ‘अंकुर दुकान मंगल करके घर पहुँच रहा होगा। सब भोजन पर मेरी राह देखेंगे। हम तीनों बाप-बेटे, एक ही थाली में, एक साथ भोजन करते हैं। पहले मेरी पत्नी भी साथ देती थी। किन्तु अंकुर की शादी के बाद वे दोनों सास-बहू एक साथ भोजन करती हैं और हम तीनों एक साथ। (विजय भाई के दो बेटे हैं।) इसके लिए हमने एक बड़ी थाली अलग से खरीद रखी है।’ मुझे रोमांच हो आया। उन्हें दरवाजे से ही विदा किया और मन ही मन याचना की - ‘हे! प्रभु! कृपा करना। इस थाली को सदैव उपयोगी बनाए रखना।’
नहीं जानता कि आज स्थिति क्या है। किन्तु, जब तक गाँव में रहा तब तक मालवा के लोक मानस में ‘पढ़ाई’ सदैव ही दोयम पायदान पर पाई। बच्चे को पढ़ाने का मतलब घर से दूर करना। पढ़-लिख कर घर से दूर जाने के बजाय, जीवन यापन का कोई ठीक-ठीक जतन कर, गाँव-घर में ही रहने को बेहतर माना जाता था। यहाँ तक कि अपनी मिट्टी न छोड़ने के लिए भीख माँगने तक की अनुमति दी जाती थी। 
एक गीत हमने खूब गाया भी और खूब सुना भी। किन्तु गाते-सुनते समय इसकी व्यंजना का अनुमान कभी नहीं हो पाया। आज की हकीकत अब इस गीत की व्यंजना अनुभव करा रही है। आज, बारहवीं के बाद, ‘उच्च शिक्षा’ के लिए घर से निकल रहा बच्चा, वस्तुतः हमेशा के लिए घर से दूर हो रहा है। मालवा के ‘लोक’ ने इस यथार्थ का अनुमान पता नहीं कब से लगा रखा है। इन सारे क्षणों से गुजरते हुए वही सब याद आ रहा है।
पंछियों से फसलों की रक्षा के लिए खेत के बीचोंबीच मचान बनाया जाता है। रखवाला किसान, गोफन (और पत्थर लिए) लिए उसी पर अपने दिन-रात काटता है। कभी गोफन चला कर, कभी थाली बजा कर तो कभी मुँह से विभिन्न आवाजें निकाल कर पंछियों को फसल पर बैठने से रोकता है। मालवी में मचान को ‘डागरा’, पढ़ाई/शिक्षा को ‘भणाई, पंछियों को भगाने को ‘ताड़ना’ और तोते को ‘हूड़ा’ कहते हैं। उच्च शिक्षा के लिए बाहर जाने को मचल रहे बेटे को रोकने के लिए किसान कहता है -
‘बेटा! भणे मती रे!
आँपी माँगी खावाँगा।
डागरा पे बेठा-बेठा,
हूड़ा ताड़ाँगा।’
अर्थात्-बेटे! अपन यहाँ माँग कर खा लेंगे, तोतों को भगा-भगा कर, मचान पर बैठ, खेतों की रखवाली करके अपना पेट पाल लेंगे। किन्तु तू पढ़ाई के लिए बाहर मत जा। घर मत छोड़।   
गाँवों से पलायन में तेजी आई है। गाँव का पिता यह गीत गाता तो अब भी होगा लेकिन उसकी आवाज धीमी हो गई होगी। जिन्दा रहना पहली शर्त है। क्या पता, रोकनेवाला पिता खुद भी बेटे के पीछे-पीछे चल पड़ा हो। 
किससे कहें? क्या कहें? बुलबुल भी हम और सैयाद भी हम। 
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(दैनिक ‘सुबह सवेरे’, भोपाल में 09 मार्च 2017 को प्रकाशित।) 

2 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (12-03-2017) को
    "आओजम कर खेलें होली" (चर्चा अंक-2604)
    पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. यही स्थिति है आज के परिवारों की यही नियति बन गई है.

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