शुद्धता ने हमें दूसरे गाँधी से वंचित कर दिया

या तो अस्पताल में भर्ती रहना या अस्पतालों और पेथालॉजी प्रयोगशालाओं के चक्कर लगाना, कोई तीन महीनों से यही क्रम बना हुआ है। रतलाम-बड़ौदा की यात्राओं ने ऊब पैदा कर दी। बाहर आना-जाना प्रतिबन्धित। घर में या तो बिस्तर पर रहो या फिर चहल कदमी कर लो। चिढ़ और झुंझलाहट का गोदाम बन गया है मन। न कुछ पढ़ने की इच्छा हो रही न कुछ लिखने की। अपने मन से मेरे मन की बात को अनुभव करनेवाले मित्र ईश्वर की तरह मदद कर रहे हैं। लगता है, सबने तय कर लिया है कि कौन, कब आएगा। जो भी आता है, पठन-पाठन की कुछ न कुछ सामग्री लेकर आता है। मैं पढ़ने से इंकार कर देता हूँ।  वे पढ़कर सुनाने लगते हैं। मैं चिढ़ जाता हूँ। कहता हूँ - ‘पढ़कर नहीं, किसी किस्से की तरह, किसी बात की तरह सुनाओ-कहो।’ दुनिया से अलूफ रहना चाहता हूँ। वे मुझे दुनियादार बनाकर लौटते हैं।

इसी क्रम में एक मित्र ने किसी अखबार के रविवारी परिशिष्ट में छपा, अल्लामा आरजू और ए. हमीद का किस्सा सुनाया। आरजू साहब, भाषा के निष्णात् विद्धान थे और हमीद साहब उर्दू के जाने-माने लेखक। आरजू साहब ने फिल्म निदेशक नितिन बोस के लिए एक गीत लिखा था। हमीद साहब ने कहा कि उस गीत में एक शब्द गलत प्रयुक्त हुआ है। सुनकर आरजू साहब ने विस्फारित नेत्रों से देखा। उस शब्द को रेखांकित कर बोले कि वे उस शब्द का बेहतर पर्यायी/वैकल्पिक शब्द सोचेंगे।

हमीद साहब चले तो आए किन्तु आरजू साहब की भेदती नजर ने उनका आत्मविश्वास हिला दिया। शाम को घर पहुँच कर दीवान-ए-गालिब देखा तो पाया कि गालिब ने वही शब्द ठीक उसी तरह प्रयुक्त किया था जिस तरह आरजू साहब ने किया था। हमीद साहब को अपने ज्ञान के सतहीपन अनुभव हुआ और खुद पर शर्म हो आई। वे बेकल हो गए। घर पर रुकना कठिन हो गया। वे तीन ट्रामें बदल कर देर रात आरजू साहब के घर पहुँचे। हमीद साहब को बेवक्त अपने दरवाजे पर देख कर आरजू साहब को हैरत हुई। आने का सबब पूछा। हमीद साहब ने अपने अल्प ज्ञान आधारित दुस्साहसी अपराध के लिए क्षमा माँगी। आरजू साहब कुछ भी नहीं बोले और ईश्वर को धन्यवाद देने के लिए नमाज पढ़ने बैठ गए।

किस्सा सुनकर मेरे रोंगटे खड़े हो गए। कुछ क्षणों के लिए अपनी बीमारी भूल गया। हमीद साहब की भाषाई चिन्ता, सावधानी और अपनी गलती को तत्क्षण स्वीकार कर, क्षमा याचना करनेे के साहस के प्रति मन में आदर का समन्दर उमड़ पड़ा तो आरजू साहब के बड़प्पन और भाषाई उत्तरदायी-भाव ने एक पल में ही आरजू साहब को बीसियों बार प्रणाम करवा दिया। 

किन्तु भाषा के प्रति यह सतर्कता भाव अब नजर नहीं आता। कम से कम हिन्दी में तो नहीं। यदि कोई ऐसी चिन्ता करता भी है तो या तो उसकी अनदेखी कर दी जाती है या उसे उपहास झेलना पड़ता है। इस किस्से ने मुझे कुछ किस्से याद दिला दिए।

कविता के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने के लिए जी-जान झोंके हुए एक युवा ने मुझसे सैलाब का अर्थ पूछा। मैंने कहा कि इसका सामान्य अर्थ तो बाढ़ होता है किन्तु यदि वह प्रयुक्त करने का सन्दर्भ, प्रसंग बता दे मैं शायद कुछ अधिक सहायता कर सकूँ। उसने उत्तर दिया कि अपनी कविता में वह सैलाब को प्रयुक्त तो कर चुका। मैं तो बस, उसका अर्थ भर बता दूँ। मेरी बोलती बन्द हो गई। मेरे एक मित्र का पचीस वर्षीय बेटा, कोई दो बरस पहले अचानक ही फेस बुक पर प्रकट हुआ। उसने अपनी कविताएँ, एक के बाद एक, धड़ाधड़ कुछ इस तरह भेजी मानो कोई फैक्टरी खुल गई हो। उसने अपनी कविताओं पर मेरी राय पूछी। सारी कविताएँ पढ़ पाना मेरे लिए सम्भव नहीं था। पाँच-सात कविताएँ पढ़ कर मैंने कहा कि कविताओं में विचार तो अच्छा है किन्तु वर्तनी की अशुद्धियाँ सब कुछ मटियामेट कर रही हैं। उसने पूछा - ‘अंकल! ये वर्तनी क्या होता है?’ मैं एक बार फिर अवाक् हो गया। 

यह गए बरस की ही बात है। एक शाम, मेरे एक और मित्र का, तीस वर्षीय बेटा, तीन डायरियाँ लेकर मेरे घर आया। तीनों डायरियाँ अच्छी-खासी मोटी और मँहगी जिल्द वाली थीं। उसने कहा कि अपनी शायरी से उसने ये तीनों ही डायरियाँ भर दी हैं। मैं देख लूँ। मैंने गालिब, फैज से लेकर मौजूदा वक्त के कुछ शायरों के नाम लेकर पूछा कि उसने अब तक कितना, क्या पढ़ा है। जवाब में उसने तनिक हैरत से पूछा कि ये सब कौन हैं और इन्हें क्यों पढ़ा जाना चाहिए? उसने कहा कि उसने पढ़ा-वढ़ा कुछ नहीं। सीधा लिखना शुरु कर दिया। उसके यार-दोस्तों को उसकी शायरी खूब पसन्द आ रही है और उसने फिल्मों में जाने की कोशिशें शुरु कर दी हैं। मैंने कहा कि वह यहाँ अपना वक्त खराब नहीं करे। फौरन मुम्बई पहुँचे। मुम्बई खुद ही सब कुछ दुरुस्त कर देगी।

जलजजी भाषा विज्ञान के प्राधिकार हैं। मैं उनके यहाँ जाने का कोई मौका नहीं छोड़ता। जब भी जाता हूँ, समृद्ध होकर ही लौटता हूँ। ऐसी ही एक बैठक के दौरान एक नौजवान आया और चुपचाप बैठ गया। हम लोग हिन्दी और इसके व्याकरण के साथ हो रही छेड़छाड़ पर बात कर रहे थे। अनुस्वार के उपयोग में बरती जा रही उच्छृंखलता हमारा विषय थी। अचानक ही नौजवान बोल उठा - ‘सर! यह बिन्दु कहीं भी लगा दो। क्या फर्क पड़ता है?’ जलजजी निश्चय ही उसके बारे में विस्तार से जानते थे। उन्होंने एक कागज उसके सामने सरकाया और बोले-‘लिखो! मेरी साँस से बदबू बाती है।’ उसने लिख दिया। जलजजी बोले-‘ अब इसमें साँस के ऊपरवाला बिन्दु हटा दो और जोर से पढ़ो।’ नौजवान ने आज्ञापालन किया। जलजजी ने कहा-‘कोई अन्तर लगा? अब बिना बिन्दुवाला यही वाक्य, दस लोगों के बीच, अपनी पत्नी की मौजूदगी में जोर से पढ़ना और फिर आकर मुझे बताना कि क्या हुआ?’ नौजवान को पसीना आ गया। घबरा कर बोला-‘अरे! सर! बड़ी गड़बड़ हो जाएगी। मेरा तो घर टूट जाएगा!’ जलजजी हँस कर बोले-‘यह होता है बिन्दु के साथ मनमानी करने से। यह घर बना भी देता है और तोड़ भी देता है।’ 

यह तो अभी-अभी की ही बात है। एक अखबार के दफ्तर में बैठा था। एक अतिमहत्वाकांक्षी और उत्साही नेता आया। सहायक सम्पादक को अपनी प्रेस विज्ञप्ति थमाते हुए बोला-‘जरा ढंग-ढांग से छाप देना। झाँकी जम जाएगी।’ सहायक सम्पादक ने प्रेस विज्ञप्ति पढ़कर मेरी ओर सरका दी। नेता ने खुद के लिए एक स्थान पर ‘नेताद्वय’ प्रयुक्त किया था। सहायक सम्पादक ने दूसरे नेता का नाम पूछा। नेता बोला कि अपने समाचार में वह किसी और का नाम भला क्यों देगा? सहायक सम्पादक ने पूछा-‘तो फिर नेताद्वय क्यों लिखा?’ नेता बोला कि अच्छा शब्द है। इससे नेता और समाचार दोनों का वजन बढ़ जाएगा। 

लोग बिना सोचे-विचारे बोलते ही नहीं, लिखते भी हैं। आशीर्वाद लिखो तो प्रेस वाला सुधार कर आर्शीवाद कर देता है। किसी संस्थान के दो-तीन वर्ष पूरे होने पर पूरे पृष्ठ के विज्ञापन में बड़े गर्वपूर्वक ‘सफलतम दो वर्ष’ लिखा जाता है। इसका अर्थ न तो विज्ञापन लिखनेवाला जानता है और संस्थान का मालिक। अनजाने में ही घोषणा की जा रही होती है कि संस्थान को जितनी सफलता मिलनी थी, मिल चुकी। 

जानता हूँ कि शुद्धता सदैव संकुचित करती है। सोने की सिल्लियाँ या बिस्किट लॉकर में ही हैं रखे जाते हैं। आभूषण में बदलने के लिए सोने में न्यूनतम मिलावट अपरिहार्य होती है। मिलावट सदैव विस्तार देती है। भाषाई सन्दर्भों में संस्कृत इसका श्रेष्ठ उदाहरण है। व्यापक शब्द सम्पदा और क्रियाओंवाली यह देव-भाषा यदि संकुचित हुई है तो उसका एक बड़ा कारण उसकी शुद्धता भी है। इसी शुद्धता के चलते हम अब तक दूसरा गाँधी नहीं पा सके हैं।

विस्तार के लिए मिलावट अपरिहार्य है। किन्तु इसकी आवश्यकता, मात्रा और प्रतिशत का ध्यान नहीं रखा जाए तो विस्तार के बजाय विनाश होने की आशंका बलवती हो जाती है। कम से कम समय में अधिकाधिक आर्थिक लाभ प्राप्त करने के लक्ष्य से बोलचाल की भाषा के नाम पर हिन्दी शब्दों का जानबूझकर, सायास किया जा रहा विस्थापन इस अनुपात का अनुशासन भंग कर रहा है। मिलावट यदि सहज और प्राकृतिक न हो तो वह न केवल बाजार से बल्कि चलन से ही बाहर कर देती है।
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पूछ लेते तो मुझे हार्ट अटेक नहीं होता

तरालीस डिग्री की, चमड़ी झुलसा देनेवाली गर्मी-धूप की सुनसान दोपहरी में वे पाँचों मेरे घर आए तो उनकी शकलों पर गर्मी के कोप की छाया के स्थान दहशत छायी हुई थी। गर्मजोशी भरे मेरे ‘आओ! आओ!!’ स्वागत के जवाब में पाँचों ने ‘नमस्कार दादा’ कहा तो सही किन्तु मरी-मरी आवाज में। कुछ इस तरह मानो कोई उनसे जबरन कहलवा रहा हो।

उनकी यह दशा देख मैं घबरा गया। रुक नहीं पाया और उनमें से कोई कुछ बोलता उससे पहले ही पूछा बैठा - ‘सब ठीक-ठाक तो है? कोई बुरी खबर तो लेकर नहीं आए?’ मेरे सवाल ने मानो उन्हें हिम्मत दी। प्रदीप जादोन बोला - ‘नहीं। कोई बुरी खबर नहीं। लेकिन आप बताओ! यह कब हुआ?’ मैंने कहा - ‘जैसा कि तय था, अभी आठ दिन पहले। बीस मई को।’ प्रदीप तनिक चिहुँक कर बोला - ‘तय था मतलब? हार्ट अटेक और उसका ऑपरेशन कब से पहले से तय होने लगा?’ अब मैं चिहुँका। प्रतिप्रश्न किया - ‘कौनसा हार्ट अटेक? किसे हुआ? कब हुआ?’ जवाब में सवाल इस बार कैलाश शर्मा ने किया - ‘क्यों? आप बड़ौदा नहीं गए थे? आपका ऑपरेशन नहीं हुआ?’ मैंने कहा - ‘हाँ। मैं बड़ौदा गया था और मेरा ऑपरेशन भी हुआ। लेकिन आपसे किसने कहा कि वह ऑपरेशन हार्ट अटेक की वजह से था?’ मेरी यह बात सुनते ही पाँचों ने मानो राहत की साँस ली। सबके चेहरे तनिक खिल गए। 

लेकिन अब मैं उलझन में था। मैंने कैलाश की ओर सवालिया मुद्रा में मुण्डी उचकाई। तनिक झेंपते हुए कैलाश बोला - ‘वो, परसों शाम को आपके घर आया था। ताला लगा था। गुड्डू भैया (अक्षय छाजेड़, जिसका मैं पड़ौसी हूँ) की मिसेस बाहर ही थीें। उन्होंने बताया कि आप बड़ौदा गए हैं, आपका ऑपरेशन हुआ है और कल शाम को आप लौटनेवाले हैं। मैंने सोचा कि अब आपको फोन करके क्या कहूँ और क्या पूछूँ? सीधे मिल कर बात करूँगा।’ मैं कुछ कहता उससे पहले ही राजेन्द्र मेहता ने ‘मैं गुनहगार नहीं हूँ’ का उद्घोष करने की तरह हस्तक्षेप किया - ‘मुझे तो दादा! इसीने (कैलाश ने) कहा कि आपका हार्ट का ऑपरेशन हुआ है और बताया कि आप कल आनेवाले हो। मैंने भी सोचा कि अब फोन करने के बजाय खुद मिलना ही अच्छा। इसीलिए आपको फोन नहीं किया।’ मेरी हँसी तो चल गई किन्तु मेरे ऑपरेशन को हार्ट अटेक से जोड़नेवाली बात अब भी समझ में नहीं आई थी। मैंने कैलाश से पूछा - ‘उन्होंने (गुड्डू की मिसेस ने) कहा था कि मेरा हार्ट ऑपरेशन हुआ है?’ तनिक याद करते हुए कैलाश बोला - ‘नहीं। यह तो उन्होंने नहीं कहा था।’ मैंने पूछा - ‘तो फिर आपने कैसे कह दिया कि मेरा हार्ट का ऑपरेशन हुआ?’ कैलाश अब मानो सफाई देता हुआ बोला - ‘क्यों! सर? आप तो जानते हो कि अपने रतलाम का कोई आदमी अगर ऑपरेशन कराने बड़ौदा जाता है तो उसका एक ही मतलब होता है कि उसे हार्ट अटेक हुआ है। फिर, आपको तो साल-डेड़ साल पहले हार्ट अटैक हो चुका है जिसका इलाज आपने बड़ौदा में ही कराया था! तो बस! मैंने सोचा कि आपको हार्ट अटेक हुआ है और ऑपरेशन भी उसी का हुआ है। आप ही बताओ! मैंने क्या गलत सोचा?’ कैलाश की बात से इंकार कर पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं था। हमारे रतलाम में, बड़ौदा जाकर ऑपरेशन कराने का लोक प्रचलित अर्थ ‘हार्ट का ऑपरेशन’ ही होता है। इस लिहाज से कैलाश ने कुछ भी गलत नहीं सोचा।

बाकी चारों मानो कैलाश पर टूट पड़ना चाहने लगे। मैंने उन्हें ‘नियन्त्रित’ किया। तनिक झंुझलाहट और ढेर सारी प्रसन्नताभरे स्वरों में प्रदीप बोला - ‘चलो! इससे (कैलाश से) तो हम बाद में निपट लेंगे। पहले आप बताओ कि यदि यह ऑपरेशन हार्ट का नहीं था तो किस बात का था?’

मैंने सविस्तार बताया कि मेरी मूत्रेन्द्री की बाहरी चमड़ी संक्रमित हो गई थी। उसे कटवाने के लिए फरवरी 2015 में एक छोटा सा ऑपरेशन डॉक्टर यार्दे से करवाया था। ऑपरेशन के बाद उन्होंने कहा था मेरी उम्र को देखते हुए उन्होंने संक्रमित चमड़ी सारी की सारी नहीं काटी है। इस ऑपरेशन के बाद दवाइयों से उस संक्रमण को दूर करने की कोशिश करेंगे और यदि सफलता नहीं मिली तो फिर एक ऑपरेशन और करना पड़ेगा। डॉक्टर यार्दे का आशावाद फलीभूत नहीं हुआ और मेरा दूसरा ऑपरेशन जनवरी 2016 में बड़ौदा में डॉक्टर नागेश कामत ने किया। ऑपरेशन पूरी तरह सफल रहा। संक्रमित चमड़ी पूरी काट दी गई। बायोप्सी रिपोर्ट भी पक्ष में आई। अब मैं संक्रमण मुक्त था। इस बीच इसी बारह मार्च को मुझे अचानक तेज बुखार आया। गुड्डू ने ही मुझे सुभेदार साहब के अस्पताल में भर्ती कराया। विभिन्न परीक्षणों का निष्कर्ष रहा कि मैं ‘मूत्र नली संक्रमण’ (यूरीनरी ट्रेक इंफेक्शन) का मरीज हो गया हूँ। सत्रह मार्च को छुट्टी हुई तो इस हिदायत के साथ कि मैं किसी यूरोलाजिस्ट से सलाह हूँ। मैंने ऐसा ही किया तो यूरोलाजिस्ट ने कहा कि संक्रमण ने मेरी मूत्र नली को बहुत सँकरा कर दिया है। अब मैं उनका नहीं, किसी ‘यूरोसर्जन’ का केस हो गया हूँ। मुझे फौरन ही ऑपरेशन करा लेना चाहिए।

यह संयोग ही रहा कि जनवरी में मेरा ऑपरेशन करने के बाद डॉक्टर कामत ने ‘फॉलो-अप’ के लिए मुझे सत्ताईस अप्रेल को बड़ौदा  बुलाया था। डॉक्टर कामत ने मेरे, यूटीआई उपचार के और यूरोलाजिस्ट के कागज देखे। मेरी जाँच की और यूरोलाजिस्ट के निष्कर्ष की पुष्टि की। मैंने तत्क्षण कहा - ‘ऑपरेशन की तारीख तय कीजिए।’ उन्होंने बीस मई तय की। निर्धारित तारीख और समय पर मेरा ऑपरेशन हुआ और निर्धारित कार्यक्रमानुसार सत्ताईस मई की शाम मैं रतलाम लौट आया।

पाँचों ने तसल्ली की साँस ली। ईश्वर को धन्यवाद दिया। अमृत जैन ने कहा - ‘अन्त भला सो सब भला दादा! आप राजी-खुशी हो, यही ऊपरपावले की मेरबानी है। आप तो मेरे जैसा कोई काम हो तो जरूर बताना।’ लेकिन पाँचवा, संजय शर्मा इन चारों से अलग निकला। ‘हो! हो!’ कर हँसता हुआ बोला- ‘दादा! मजा आ गया। आपसे जब भी मिलना होता है, आप मजा ला देते हो।’ लेकिन इस बीच वे चारों कैलाश को कनखियों से देखते रहे। मैंने ‘कुछ ठण्डा-गरम’ की मनुहार की तो राजेन्द्र बोला - ‘हाँ! हाँ! क्यों नहीं! ठण्ठा पीएँगे। जरूर पीएँगे। लेकिन यहाँ नहीं। अब यह (कैलाश) हम सबको जूस पिलाएगा।’ पाँचों ने विनम्रतापूर्वक नमस्कार कर विदा ली।

लेकिन कैलाश को ‘हार्ट अटेक’ वाली बात सूझने के पीछे मुझे रतलाम में व्याप्त लोकधारणा के अतिरिक्त ‘सम्पर्कहीनता/सम्वादहीनता’ भी लगी। ये पाँचों ही भारतीय जीवन बीमा निगम के ऐसे एजेण्ट हैं जिनसे रोज का मिलना-जुलना है। कोई काम हो, न हो, मैं थोड़ी देर के लिए ही सही, हमारे शाखा कार्यालय जरूर जाता हूँ। सबसे मिलना-जुलना हो जाता है। बाजार की और हमारे धन्धे की काफी-कुछ जानकारियाँ मिल जाती हैं। लेकिन मैं एक काम ऐसा करता हूँ जो बाकी एजेण्ट नहीं करते हैं। (आप इस ‘नहीं करते हैं।’ को ‘निश्चय ही नहीं करते हैं।’ पढ़ सकते हैं।) नियमित रूप से शाखा कार्यालय आनेवाले एजेण्टों में से कोई एजेण्ट यदि तीन-चार दिन लगातार नजर नहीं आता है तो मैं या तो सीधे उसे ही फोन लगाकर या फिर उसके अन्तरंग किसी एजेण्ट से उसका कुशल क्षेम पूछ लेता हूँ।

इस बार मैं खुद बीमार रहा। शाखा कार्यालय नहीं जा पाया। मेरी अनुपस्थिति सबने देखी और अनुभव की। आपस में जिक्र और पूछताछ भी की किन्तु किसी ने मुझसे सम्पर्क करने कर कोशिश नहीं की क्योंकि यह उनकी आदत में नहीं। सो, इस ‘सम्पर्कहीनता और सम्वादहीनता’ ने मुझे हृदयाघात से ग्रस्त रोगी और एक छोटे से ऑपेरशन को ‘हार्ट ऑपरेशन’ में बदल दिया।

अब मैं ठीक हूँ। दो नलियाँ लगी होने से घर से बाहर निकलना नहीं हो पा रहा। एक नली, जिसके कारण प्रायः ही मर्मान्तक पीड़ा होती थी, कल चार जून को निकाल दी गई है। तेरह जून को फिर बड़ौदा जाना है। तब दूसरी नली भी निकल जाएगी। उम्मीद है कि उसके बाद, जल्दी ही एक बार फिर अपना ब्रीफ केस लेकर ‘लो ऽ ऽ ऽ ओ! बीमा करा लो!’ की फेरी लगाता नजर आने लगूँगा।  

वास्तविकता जानने से जैसी राहत और प्रसन्नता मेरे मित्रों को (और उनके प्रसन्न हो जाने से मुझे भी) मिली, ईश्वर करे, वही सब आप सबको और आपके आसपास के तमाम लोगों को मिले।

हाँ। अब तक एक काम आप न कर रहे हों तो करना शुरु करने पर विचार कीजिएगा। अपने मिलनेवालों से मिल कर या उन्हें फोन कर ‘कैसे हो? सब ठीक तो है? घर में सब राजी खुशी है? काम काज बढिया चल रहा है ना? बहुत दिनों से नजर नहीं आए। कुछ मिलने-मिलाने की जुगत करो यार! अच्छा लगेगा।’ जैसी पूछताछ कर लिया करें। सच मानिए, उनसे अधिक अच्छा खुद आप को लगेगा।

आदमी खुद को गुदगुदी कर हँस नहीं सकता लेकिन ऐसे छोटे-छोटे उपक्रम कर खुद ही खुश जरूर हो सकता है।
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मन्दोदरी! काश! तुम वोट दिला पाती


दैनिक भास्कर के, 15 मई के रविवारी जेकेट पर आठ कॉलम में प्रकाशित इस विस्तृत सचित्र समाचार के अनुसार, गाँधीजी के हत्यारेे नाथूराम गोड़से को, जान पर खेलकर पकड़नेवाले बहादुर सिपाही रघु नायक की पत्नी, 85 वर्षीया मन्दोदरी अपनी बेटी के घर, बदहाली की जिन्दगी जी रही है। उसे सरकार से कुल एक सौ रुपया मासिक सहायता मिल रही है। यह रकम 50 रुपये मासिक थी। कोई तीन साल पहले बढ़ाकर 100 रुपये की गई है। यह रकम साल भर में एकमुश्त दी जाती है। रघु नायक को तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने 500 रुपये पुरुस्कारस्वरूप दिए थे। 1983 में रघु नायक की मृत्यु के बाद उसका पुलिसकर्मी बेटा भी एक हादसे का शिकार हो गया। जीने के लिए बेटी के पास रहना एकमात्र विकल्प बचा था। सो, बेटी के यहाँ आ गई। लेकिन दुर्दिनों ने पीछा नहीं छोड़ा। बेटी बासन्ती का पति भरी जवानी में केंसर का शिकार हो गया। उसके तीन बच्चे हैं-बड़ा बेटा डेड़ एकड़ का खेत सम्हाल रहा है। छोटा बेटा गरीबी के कारण पढ़ नहीं पाया। कोई पन्द्रह बरस पहले पंचायत ने इन्दिरा आवास योजना के तहत मकान बनाने के लिए जमीन दी। साल भर बाद, बेटी की मदद से दो कमरे बनवाने चाहे लेकिन ढाँचा खड़ा करने से आगे बात नहीं बनी। बिना छत, बिना खिड़की-दरवाजे, बिना प्लास्टर की दीवारोंवाला  मकान भी खण्डहर हो गया है। इस बीच मन्दोदरी मधुमेह और मोतियाबिन्द की मरीज हो गई। बेटी बासन्ती ने माँ से सरकार के नाम चिट्ठी लिखवाई। कोई साल भर पहले अचानक सरकारी बुलावा आया और उड़ीसा सरकार ने अभी ही उसे पाँच लाख रुपये दिए हैं। अखबार के मुताबिक, बेटी के साथ जोरल गाँव में रह रही मन्दोदरी, अपने ‘मकान’ के दो कमरों में 20-30 वाट के बल्बों की रोशनी में जी रही है। सामान के नाम पर कुछ पुराने बर्तन हैं। ज्यादातर सामान टूटा-फूटा है।

मेरे परिचय क्षेत्र के लोगों ने समाचार को अपनी-अपनी मानसिकता और मनःस्थिति के अनुसार पढ़ा और समझा। अधिकांश की प्रतिक्रिया एक जैसी ही रही। सबने मन्दोदरी के प्रति दया, करुणा जताई और अपनी-अपनी पसन्द की सरकारों का बचाव करते हुए बाकी सरकारों को और सरकारी तन्त्र को धिक्कारा।

ऐसा यह इकलौता और अनूठा समाचार नहीं है। भीख माँग रहे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी, सायकलों के पंक्चर पकाते हुए, पानी पूरी का ठेला लगाए, बरफ के गोले बेचते हुए, हम्माली करते हुए, चाय की दुकानों, ढाबों पर झूठे कप-प्लेट, बरतन साफ करते हुए राष्ट्रीय/प्रान्तीय स्तर के महिला-पुरुष खिलाड़ियों, कलाकारों के सचित्र समाचारों की अब हमें आदत हो गई है। ऐसे सचित्र समाचार अब हमें न तो चौंकाते हैं न ही सिहरन पैदा करते हैं। अखबारों के लिए वे ‘एक्सक्लूसिव स्टोरी’ होते हैं और हमारे लिए ‘च्च्च! च्च्च! च्च्च!’ की ध्वनि निकालने की औपचारिकता पूरी करने के काम आते हैं। 

मन्दोदरी की दुर्दशा 1983 में पति की मृत्यु के बाद शुरु हुई। याने, लगभग तैंतीस बरस पहले। इस बीच लोक सभा, विधान सभाओं, स्थानीय के निकायों के चुनाव अपने समय पर होते रहे, उनके खर्चे चुनाव-दर-चुनाव बढ़ते रहे, नेताओं के आश्वासनों, वादों के ढेर लगते रहे, सरकारें बनती रहीं, गिरती रहीं, फिर और फिर-फिर बनती गईं, कलफदार कुर्तों/शेरवानियों की भीड़ बढ़ती गई। इसी चलन को मजबूत करते हुए, राष्ट्रीय/प्रान्तीय स्तर के महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक व्यक्तियों की दुर्दशा के समाचार भी बढ़ते रहे। 

मन्दोदरी का यह समाचार छपने के कोई एक पखवाड़े के बाद मैंने इस समाचार के बारे में लगभग साठ लोगों से उनकी राय पूछी। लगभग 95 प्रतिशत तो इसे भूल चुके थे। शेष में से अधिकांश ने ‘अच्छा! वो समाचार? हाँ। ऐसा समाचार पढ़ा तो था किन्तु ठीक-ठीक याद नहीं।’ जैसा जवाब दिया।

मन्दोदरी ऐसी अकेली ‘समाचार कथा’ (याने कि ‘न्यूज स्टोरी’) नहीं है। प्रत्येक कस्बे की ऐतिहासिकता और महत्व से जुड़े ऐसे कई लोग हमें हर जगह मिल जाएँगे। मेरे कस्बे के भी कम से कम चार लोगों के नाम तो मेरे जिह्वाग्र पर हैं। ऐसे सब लोगों के गम्भीर अपराध शायद यही हैं कि इनमें से कोई भी वोट दिलाऊ नहीं है और न ही ये लोग हमें ‘दो पैसे’ का लाभ दिला सकते हैं। 

हम बरस-दर-बरस शिक्षित होते जा रहे हैं। देश प्रगति के सापान, एक के बाद एक चढ़ता जा रहा है, देश में अरबपतियों की संख्या बढ़ती जा रही है। हम दुनिया की सबसे शक्तिशाली अर्थ व्यवस्था बनने की दिशा में तेजी से अग्रसर हैं। राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय भावना नसों में बहती थम नहीं रही, हमारी सम्वेदनशीलता का स्तर यह कि शौच-मूत्र-त्याग जैसी बातों पर भी हमारी भावनाएँ आहत हो रही हैं, राष्ट्र के प्रति निष्ठा का ज्वार ऐसा कि जिसे जी चाहे, देशनिकाला दे रहे हैं, राष्ट्र के सपूतों और शहीदों की रंचमात्र अवमानना हमें पल भर भी सहन नहीं हो रही और धर्म गंगा तो इतने वेग और इतनी विशालता/विकरालता से बहने लगी कि देश की जमीन कम पड़ती लग रही है। नहीं हुए तो बस दो काम नहीं हुए। पहला-हमारी सरकारें और सरकारी मशनरी मानवीय सन्दर्भों में जिम्मेदार नहीं हो पाईं और दूसरा हमारी सामाजिक चेतना-सम्वेदनशीलता और उत्तरदायित्व बोध नष्ट होने के कगार पर आ गया।

गए दिनों मेरे कस्बे के एक मन्दिर की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का वार्षिक समारोह सम्पन्न हुआ। एक सप्ताह चले इस समारोह में प्रभातफरियाँ, झाँकियाँ, धर्म यात्राएँ निकलीं। कस्बे के जिस-जिस क्षेत्र में ये उपक्रम सम्पन्न हुए वहाँ, जगह-जगह पर स्वागत मंच बने, फूल बरसाए गए, उपक्रमों में शामिल भक्तों की यथाशक्ति (‘प्रसादस्वरूप’) खान-पान सेवा की गई। मन्दिर के देवता पर केन्द्रित नाटक खेले गए, नृत्य नाटिकाएँ प्रस्तुत की गईं। समारोह का समापन ‘विशाल सार्वजनिक भण्डारा’ से हुआ। भण्डारे में ‘प्रसादी’ ग्रहण करनेवाले भक्तों का कोई अधिकृत आँकड़ा तो सामने नहीं आया किन्तु (लगभग तीन लाख की आबादी वाले मेरे कस्बे में) सबसे छोटा आँकड़ा सवा लाख लोगों का आया। 

मेरी गणित बहुत कमजोर है। मैंने मन्दिर और समारोह की प्रबन्ध व्यवस्था से जुड़े कुछ लोगों से पता करने की कोशिश की। ‘फायनल अकाउण्ट’ तो अभी नहीं हुआ है किन्तु, अलग-अलग लोगों द्वारा बताए गए आँकड़ों का औसत कम से कम सोलह लाख रुपये रहा। इसमें से भण्डारे पर कम से कम सात लाख रुपये तो खर्च हुए ही होंगे।

किन्तु यह तो एक उपक्रम मात्र की बात हुई। ऐसे उपक्रम (कम से कम मेरे कस्बे में तो) अब ‘बारहमासी’ हो गए हैं। कभी कोई कलश यात्रा, कभी कोई चुनरी यात्रा, विभिन्न देवोत्सव और पर्वोत्सव, विशाल संगीतमय सुन्दरकाण्ड’, किसी नेता के जन्म दिन पर या किसी राजनीतिक उपलब्धि पर, भारी भरकम डीजेवाली संगीत/भजन निशा। नवरात्रि और गणेशोत्सव पर गली-गली में ‘झकास’ पण्डाल। यह सब तो केवल हिन्दू धर्म के हैं। दूसरे धर्मों के भी ऐसे ही उपक्रम अब प्रतियोगिता भाव से होने लगे हैं। प्रत्येक उपक्रम भारी-भरकम खर्चीली साज-सज्जा वाला। एक के बाद होनेवाला दूसरा उपक्रम मानो, ‘मेरी कमीज से उसकी कमीज से ज्यादा उजली क्यों?’ की तर्ज पर पहलेवाले से प्रतियोगिता करता हुआ। इस सबके लिए अखबारों के पूर-पूरे पन्नों के रंगीन विज्ञापन। अधिक हैसियत हुई तो विशेष परिशिष्ट।

हकीकत मैं नहीं जानता किन्तु आकण्ठ विश्वास है कि केवल मेरा कस्बा एकमात्र ऐसा सौभाग्यशाली और गौरवशाली कस्बा नहीं होगा। इन्दौर में तो कुछ नेताओं की तो पहचान ही केवल धार्मिक आयोजनों और विशाल सार्वजनिक भण्डारों की बन चुकी है।

लेकिन केवल ये ही पहचान के प्रतीक नहीं हैं। अतिक्रमण से घिरे, बिना बिजली-पानी, बाउण्ड्रीवालवाले सरकारी स्कूल, मोहल्ले में चल रहे, ‘अनाथ दशा’ वाले सरकारी उप-चिकित्सालय, कूड़े के भारी भरकम ढेर, गन्दगी से बजबजाते शौचालय, सड़ांध मारती नालियाँ, दुर्गन्ध के भभके मार रहे सार्वजनिक मूत्रालय, और....और.....और......। लगता है, ऐसे कितने ही ‘और’ लिखे जा सकते हैं। यह सब हममें से प्रत्येक को अपने-अपने कस्बे, शहर, नगर, महानगर का ही ब्यौरा लगता है।

यह सब देख-देख कर मन्दोदरी पर केन्द्रित यह समाचार (और ऐसा प्रत्येक समचार) और कुछ नहीं, हमारे पाषाण हृदय, सम्वेदनाहीन, बेशर्म-गैर जिम्मेदार हो जाने के प्रमाण-पत्रों, तमगों के सिवाय भला और क्या है? 

आईए! अपने-अपने घरों के अगले कमरे में इन्हें सजाएँ।  
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