सच और केवल सच ही कहा

5 जुलाई वाली अपनी यह पोस्ट प्रकाशित करते समय ही इसके अधूरेपन का अहसास मन में था। इसमें, वकील साहब बाबूलालजी जैन का उल्लेख तो था किन्तु न तो उनका चित्र था और न ही उनका कोई सम्पर्क सन्दर्भ।  ऐसे में, इस पोस्ट की विश्वसनीयता संदिग्ध होनी ही थी। चूँकि (जैसाकि मैंने पोस्ट में उल्लेख किया था) बाबूलालजी जैन साहब से मेरा जीवन्त सम्पर्क नहीं था इसलिए, मेरे पास न तो उनका मोबाइल नम्बर था और न ही उनका चित्र। ऐसे में, इन दोनों कमियों के साथ ही पोस्ट प्रकाशित कर दी।

किन्तु धन्यवाद अनामिकाजी को जिन्होंने अपनी टिप्पणी के जरिए न केवल इस अधूरेपन को इंगित किया अपितु उनकी इस टिप्पणी के कारण ही मैं, अपनी उस पोस्ट का अधूरापन दूर कर पा रहा हूँ। मैंने, जैसे-तैसे बाबूलालजी जैन वकील साहब से सम्पर्क कर मदद माँगी। परिणाम सामने है। उनका का चित्र तो यहाँ दे ही रहा हूँ, उनका मोबाइल नम्बर भी प्रस्तुत है - 094254 91063.

अपना चित्र और मोबाइल नम्बर उपलब्ध कराते हुए वकील साहब ने अपनी एक पीड़ा और लिख भेजी है। उन्हें इस बात का तो दुःख है ही कि अपने ही लोग उनका साथ नहीं दे रहे। इससे अधिक दुःख उन्हें इस बात का है कि लोग उन्हें समझाइश दे रहे हैं कि उन्हें यह सब करने की क्या जरूरत थी और क्यों उन्होंने (वकील साहब ने) बैठे-बैठाए पत्थर फेंक कर माथा माँड लिया? वकील साहब की पीड़ा उनके इस वाक्य से समझा जी सकती है  - ‘यदि गाँधी ने भी यही सोचा होता तो हम आज भी गुलाम ही होते।’

मेरा अनुरोध है कि मेरी पोस्ट की विश्वासनीयता की पुष्टि के लिए नहीं, वकील साहब का मनोबल बढ़ाने के लिए उनसे एक बार सम्पर्क करने के बारे में विचार अवश्य करें।

इस बहाने एक बात और।

केवल यह पोस्ट ही नहीं, विभिन्न टेगों के अन्तर्गत प्रकाशित मेरी तमाम पोस्टें सौ टका सच हैं। सारी घटनाएँ, उनका विवरण  और उनका क्रम - सब कुछ जस का तस, सच है। भाषा का, शब्दों का और वाक्यावली का फेर हो सकता किन्तु एक भी पोस्ट काल्पनकि या कि ‘गल्प कथा’ बिलकुल नहीं है। मैंने सच और केवल सच ही प्रस्तुत किया है। बीमा एजेन्सी के कारण मुझे, समाज के तमाम वर्गों, श्रेणियों के लोगों से सम्पर्क करना पड़ता है। उसी वजह से मैं जीवन के इन्द्रधनुष के रंगों को साकार करने वाले संस्मरणों से समृद्ध हो पाया हूँ।

हाँ, एक सावधानी मैंने अवश्य बरती है। प्रेरक और प्रशंसनीय तथा अनुकरणीय प्रसंगों में मैंने संस्मरण के नायक का वास्तविक नाम तो दिया ही है, उनके चित्र और सम्पर्क सन्दर्भ भी देने की पूरी-पूरी कोशिश की है। लेकिन ऐसा भी हुआ है कि ऐसे कुछ प्रेरक और प्रशंसनीय तथा अनुकरणीय प्रसंगों के नायकों के नाम मुझे, उनके विशेष अनुरोधों के कारण छुपाने पड़े। किन्तु जिन सस्मरणों में नायकों की आलोचना या निन्दा होने की आशंका अनुभव हुई, वहाँ उनकी पहचान छुपा दी। अपनी बात की सम्प्रेषणीयता की चिन्ता करते हुए, मैं परिहास तो कर लेता हूँ किन्तु कोशिश करता हूँ कि किसी का उपहास न हो। मेरा मानना है कि उपहास और अवमानना, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं और दोनों की विभाजन रेखा बहुत ही धुंधली है। उपहास के अवमानना में बदल जाने का खतरा बराबर बना रहता है और यह मेरी न्यूनतम जिम्मेदारी बनती है कि यदि मैं किसी का सम्मान बनाए नहीं रख सकता, बढ़ा नहीं सकता तो किसी का असम्मान भी नहीं होना चाहिए। किसी की अवमानना/असम्मान कर मैं अपना मान कैसे बढ़ा सकता हूँ? अवमानना बो कर मान की फसल कैसे काट सकता हूँ?

सो, अनामिकाजी को पुन: धन्यवाद कि उन्होंने न केवल मेरी उस पोस्ट का अधूरापन दूर करने में मेरी मदद की अपितु अपनी मानसिकता एक बार फिर उजागर करने का अनुपम अवसर भी मुझे दिया।

यही नजर और यही कृपा भाव बना रहे।

2 comments:

  1. आपकी पोस्ट तो तभी भी पूर्ण थी, आज उसे व्यक्तित्व का चित्र मिल गया है।

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  2. मान गए बैरागी जी आप सचमुच ही बैरागी ही है . आपकी बातें सौ टके की

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.