जिसका बाराती, उसी का अर्थीधारी होन का अभाग्य

यह शोकान्तिका मैं केवल खुद के लिए, खुद को समझाने, खुद को ढाढस बँधाने के लिए लिख रहा हूँ। इसका कोई सार्वजनिक औचित्य और महत्व नहीं है। मेरे प्रिय सुरेश चोपड़ा के, अनपेक्षित, असामयिक और स्तब्ध करदेनेवाले आकस्मिक निधन से उपजी नितान्त व्यक्तिगत पीड़ा का यह प्रकटीकरण करने से मैं खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ या कहूँ कि ब्लॉग के जरिए अपनी घुटन से मुक्ति पा रहा हूँ - बस! इसीलिए यह सब लिख रहा हूँ।


सुरेश वह आदमी था जिसने, कोई इक्कीस बरस पहले, उस समय मेरी ओर सहायता का हाथ बढ़ाया था जब मैं खड़े रहने के लिए जमीन और परिवार के लिए जीविका की तलाश में था। दवाइयाँ बनानेवाली, तीन भगीदारोंवाली हमारी औद्योगिक इकाई संकटगग्रस्त हो, बन्द होने के कगार पर आ गई थी। आगत की आहट सुनकर, मेरी अतिरिक्त चिन्ता करते हुए मेरे दोनों भागीदारों ने मुझे भागीदारी से मुक्त कर दिया था और 01 अप्रेल 1991से मैं ‘बिना काम-काजी’ हो गया था। मेरी उत्तमार्द्ध यद्यपि नौकरी में थी और जनवरी 1991 से मैं एलआईसी अभिकर्ता भी बन चुका था। किन्तु ये दोनों साधन भी अपर्याप्त थे। ऐसे में एक शाम, जयन्त बोहरा और राजेन्द्र पाटौदी के साथ सुरेश मेरे घर आया था - यह प्रस्ताव लेकर कि जो काम अब तक मैं अपनी इकाई के लिए कर रहा था, वही काम मैं सुरेश की इकाई के लिए करूँ।

सुरेश भी इवाइयाँ बनाने की एक लघु औद्योगिक इकाई का मालिक था और यह उसके व्यवसाय का शुरुआती दौर था। सरकारी कार्यालयों से, अपनी-अपनी इकाइयों के लिए क्रयादेश प्राप्त करने के लिए मैं और सुरेश उन दिनों, अविभाजित मध्य प्रदेश में घूमा करते थे और ऐसी यात्राओं में प्रायः ही, किसी न किसी शासकीय कार्यालय में हमारी भेंट हो जाया करती थी। हम तीन भागीदारों में से मेरे जिम्मे यह काम था जबकि सुरेश अपनी इकाई का सारा काम-काज अकेले ही देख रहा था। उसका विश्वास था कि यदि मैं उसकी इकाई के लिए शासकीय क्रयादेश प्राप्त करने की जिम्मेदारी ले लूँगा तो, इस विपत्ति-काल में मुझे भी दो पैसे मिल जाएँगे और वह भी अपनी इकाई के प्रबन्धन, उत्पादन और विपणन के लिए अधिक समय प्राप्त कर सकेगा। सुरेश का मानना था कि यह तरकीब हम दोनों जरूरतमन्दों के लिए सहयोगी, उपयोगी और लाभदायक रहेगी। उसकी बात सच भी थी किन्तु तब तक मैं, लगातार लम्बी-लम्बी (40-40, 45-45 दिनों की) यात्राओं से थक भी चुका था और ऊब भी चुका था। सुरेश का प्रस्ताव सुनकर मेरा जी भर आया था किन्तु तब मैं शायद अधिक दम्भी था इसलिए उन तीनों के सामने खुलकर रो नहीं पाया और मैंने धन्यवाद देते हुए विनम्रतापूर्वक सुरेश का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया था।

सुरेश मुझसे कोई नौ वर्ष छोटा था, मुझे ‘दादा’ सम्बोधित करता था, मेरा अत्यधिक सम्मान करता था किन्तु इसके समानान्तर किसी ‘बड़े की तरह’ मेरी चिन्ता भी करता था। अपने आसपास की छोटी-मोटी बातों में मुझे शामिल करने का कोई अवसर वह नहीं छोड़ता था। अभी कुछ ही दिन पहले वह आया था - बहुत ही खुश। मुझे बाहर बुलाया और कहा - ‘दादा! यह गाड़ी आपको दिखाने आया हूँ। रिमझिम (उसकी बिटिया) ने जिद करके कार खरीदवाई है। थोड़े पैसे उसने दिए और थोड़े मैंने मिलाए। रिमझिम अड़ गई कि कार तो लेनी ही पड़ेगी।’ अपने प्रति अपनी बेटी का ‘ममत्व’ जताते-बताते उसके चेहरे पर गर्व भी था और भीगापन भी। बिना किसी काम के, बिना किसी बात के वह, महीने-बीस दिन में मुझे फोन किया करता था। वह मधुमेह का रोगी था किन्तु परहेज करने और दवाइयाँ लेने के मामले में अतिरिक्त सावधानी बरत कर उसने मधुमेह को अपनी सीमाओं में सिमटे रहने को विवश कर दिया था। किन्तु उसका दिल कब बेकाबू हो गया, यह वह खुद भी नहीं जान पाया और दिल के पहले ही दौरे में, बेदिल होकर सबको छोड़ गया।

पाँच भाइयों में वह शायद सबसे छोटा था। डॉक्टर बनना उसकी लालसा थी। वह ‘चिकित्सा प्रवेश परीक्षा’ में पास भी हुआ था किन्तु डॉक्टरी की पढ़ाई नहीं कर पाया। ऐसा क्योंकर हुआ - यह न तो मैंने कभी पूछा और न ही उसने बताया। उसकी इस ‘लालसा’ के कारण उसके तमाम परिजन और अन्तरंग मित्र उसे ‘डॉक्टर’ कह कर ही पुकारते थे। वह डॉक्टरी तो नहीं कर सका किन्तु अपने लम्बे-चौड़े परिवार के तमाम छोटे-बड़े सदस्यों को डॉक्टर की तरह ही हिदायतें, समझाइश और सलाह देता था।

वह ‘सस्मित’ शब्द का मानवाकार था। मुस्कान उसकी स्थायी पहचान थी। मुझे लगता है, वह नींद में भी मुस्कुराता रहता रहा होगा। कल, जब मैंने श्मशान में उसे अन्तिम बार देखा तो भी यह मुस्कान उसके चेहरे पर जस की तस मौजूद थी - बिलकुल ईश्वर और मृत्यु जैसे अटल सत्यों की तरह ही एक सत्य के समान।

‘होने के बावजूद न होना’ उसकी विशेषता थी। वह बहुत ही कम, बहुत ही धीमी आवाज में और बहुत ही धीमी गति से बोलता। उसका कहा सुनने के लिए मुझे हर बार अतिरिक्त रूप से सतर्क और सचेष्ट रहना पड़ता था - फोन पर भी। महत्वपूर्ण सूचनाएँ भी वह ऐसे सहज-सपाट तरीके से देता मानो उससे कोई फालतू बात जबरन कहलवाई जा रही हो।

जिसका मौन बोलता था, वही ‘चुप्पा’ सुरेश अचानक ही हमेशा के लिए चुप हो गया।

परसों, मैं अपने शाखा कार्यालय में बैठा था। शनिवार था। दफ्तर आधे दिन का था। दो बज रहे थे। मैं गणन संसाधन इकाई के वातानुकूलित कमरे में बैठा राजेश देवतारे से गपिया रहा था कि साथी अभिकर्ता पंकज जैन आया और पूछा - ‘आप, उन रामबागवाले चोपड़ाजी को जानते हो?’ मैंने हामी भरी तो पंकज बोला - ‘आज वे मर गए।’ मुझे सम्पट ही नहीं पड़ी। मैंने, सुरेश से जुड़े अलग-अलग सन्दर्भ देकर तीन-चार बार पूछा कि वह सचमुच में मेरेवाले सुरेश की ही बात कर रहा है या किसी और की? मेरा दुर्भाग्य कि पंकज का उत्तर हर बार मेरेवाले सुरेश से ही जुड़ा।

मेरा जी मिचलानेलगा। घबराहट होने लगी। लगा, मेरे प्राण निकल जाएँगे। भाग कर डॉक्टर के पास पहुँचा तो मालूम हुआ कि मेरा रक्त चाप अच्छा-खासा बढ़ा हुआ है। डॉक्टर साहब ने मुझे हाथों-हाथ लिया। गोलियाँ दीं, पानी पिलाया। पासवाले कमरे में आराम करने को कहा। कोई घण्टा-डेड़ घण्टा वहाँ रुककर, तनिक सामान्य हो, खिन्न-मन, खिन्न-वदन घर पहुँचा। शकल देख कर उत्तमार्द्ध घबरा गईं। रक्तचाप बढ़ने की बात के अलावा सारी सूचनाएँ दीं। वे भी कुम्हला गईं। बोलीं - ‘यह तो भगवान ने अच्छा नहीं किया। उनका तो बेटा अभी बहुत छोटा है और बेटी की भी शादी बाकी है!’ मैं क्या कहता? मेरे पास कहने को कुछ भी तो नहीं था! उन्होंने पूछा - ‘आप उनके घर जा रहे हैं?’ मैंने कहा कि मैं नहीं जा रहा हूँ। सुरेश के परिजनों का सामना करने का साहस मुझमें नहीं है। सुरेश की पत्नी अरुणा को ऐसे क्षणों में देख पाना मेरे बस की बात नहीं। मैं नहीं गया। मैं न तो ‘व्यवहार’ निभा पाया और न ही बीमा एजेण्ट की जिम्मेदारी। (सुरेश मेरा ‘अन्नदाता’, बीमाधारक भी था।)

कैसे बताऊँ कि अपने से छोटे, अपने प्रिय पात्र की अर्थी को कन्धा देना कितना पीड़ादायक होता है? यह पीड़ा तब हिमालय को भी छोटा कर देती है जब आपको याद आता है कि जिसकी अर्थी को आप कन्धा दे रहे हैं उसके विवाह में भी आप शरीक हुए थे और उसके विवाह की रजत जयन्ती समारोह के भी भागीदार बने थे। निस्सन्देह ईश्वर तो कृपालु है किन्तु ऐसे क्षणों में उसके कृपालु होने पर सन्देह भी होता है और उस पर गुस्सा भी आता है।

कितना पीड़ादायक होता है एक, अस्सी वर्षीय बूढ़े बाप को, अपने बेटे की अर्थी को कन्धा देने के लिए व्याकुल होकर दौड़ते हुए देखना और बाद में उसी बूढ़े पिता को, श्मशान में, अपनी, अभी-अभी पितृहीन हुई पोती को बाँहों में भींचकर सांत्वना बँधाते, पुचकारते देखना! लगभग चौदह वर्षीय अबोध उज्ज्वल को, अपने पिता को मुखाग्नि देते देखना मेरे अभाग्य के सिवाय और क्या है?

सुरेश के बहुत ही कम बोलने और अपने अधिक बोलने को लेकर मैं कहा करता था - ‘सुरेश! लगता है, तुम्हारा बोलना भगवान ने मुझे अलॉट कर दिया है।’ वह कुछ नहीं कहता। अपनी आदत के मुताबिक चुप ही रहता। हाँ, उसकी मुस्कुराहट तनिक बड़ी हो जाती, होठ तनिक अधिक फैल जाते।

वही सुरेश अब नहीं है। वह सामने होता था तो यहाँ जो कुछ कहा, उसमें से कुछ भी याद नहीं आता था। लगता था, इस सबमें कहने की कौन सी बात है? किन्तु अब सब याद आ रहा है। एक-एक बात याद आ रही है। लग रहा है, अभी तो कुछ भी नहीं कह पाया हूँ। लेकिन इसी क्षण मन ही मन सवाल उठा - यहाँ जो भी कहा है, वह सब सचमुच में मेरा ही कहा हुआ है? शायद नहीं। यह सब तो सुरेश का ही कहा हुआ है जो कहना तो उसे था किन्तु कहने के लिए मुझे अलॉट हो गया था।

कहते हैं, बाँटने से दुःख कम होता है। किन्तु इस समय मुझे ऐसा नहीं लग रहा। सुरेश का जाना सहन और स्वीकार नहीं हो पा रहा है। बार-बार रुलाई फूट रही है। कल सुभाष भाई जैन ने बताया था और आज (रविवार की) शाम जब सुरेश के परिवार में गया तो उसके बड़े भाई रमेश भैया ने भी बताया कि कल सुबह जब उसे अस्पताल ले जाया जा रहा था तो उसने कहा था - ‘विष्णु भैया को खबर कर देना।’

मेरी रुलाई कैसे रुके?

7 comments:

  1. अत्यन्त दुखद है सुरेशजी जैसे आत्मीय का यूँ चले जाना, हृदय स्थिर रखिये। सुरेशजी को विनम्र श्रद्धांजलि।

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  2. कुछ ऐसे रिश्ते बन जाते हैं जिनसे खून का रिश्ता न होते हुए भी नितांत अपने लगते हैं| शोक की इस वेला में इश्वर से शक्ति की कामना|

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  3. ईश्‍वर की इच्‍छा के आगे किसी का वश नहीं ..

    आप धैर्य बनाए रखें ..

    उन्‍हें श्रद्धांजलि !!

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  4. Ishwar unki aatma ko shanti de aur unke pariwar evam aapko yah vajrapaat sahne ki shakti pradaan kare; Ityalam.

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  5. आत्मीय संबंध ताजिन्दगी बने रहते हैं। जाने वाले की याद रह रह कर आती है। ईश्वर उन्हे अपनी शरण में ले और उनके परिजनों को दारुण दु:ख सहने की असीम शक्ति प्रदान करे।

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  6. ई-मेल से प्राप्‍त, श्रीयुत सुरेशचन्‍द्रजी करमरकर की टिप्‍पणी -
    विष्‍णुजी! ईश्‍वर के दयालु और कृपालु होने पर शंका न करें, हालांकि मुझे भी कभी-कभी ऐसी शंकाएँ हो चुकी हैं।मेरे मामा उम्र मैं मुझसे छोटे थे। उनके विवाह मैं, बाराती था और उन्हें कन्धा भी दे चुका हूँ। शंका तो होती है उस पर। लेकिन एक समय जब सईद आफताब मीर के सुपुत्र आसिफ मीर की दुखद मृत्यु जब एक दुर्घटना मैं हुई (वह स्वयं की शादी की पत्रिका वह बाँटने गया था) तो उस वक्त ऐसा बरबस मेरे मुँह से निकल गया। बेरिस्टर अब्बासी साहेब भी उस वक्त मातमपुरसी के लिए बैठे हुए थे। उन्‍होंने कहा कि खुदा का शुक्र तो मानना ही पड़ेगा। मेरे मन मैं फिर प्रशान्वाचक चिन्ह! बैरिस्टर साहब ने जो बाद मैं मुझे समझाया, वह सही था। हर हालत मैं उसका शुक्र मानने के अलावा कोई हल और सही कदम है ही नहीं। आप धीरज रखें। हालाँकि ऐसी सलाह देना बड़ा आसान है।

    अभी मैं पारादीप उड़ीसा मैं हूँ और जहाँ से यह लिख रहा हूँ वह पूरा कमरा १९९९ के तूफान मैं चार दिनों तक पानी मैं डूबा हुआ था। कल भगवान जगन्‍नाथ के दर्शन करने पुरी और फिरशाम को कोणार्क जाऊँगा। एक मई को रतलाम लौटूँगा।

    पुन:, अपने मन को शान्‍त रखें।. स्वास्थ पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़ने दें।

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  7. बहुत दुःख हुआ। मेरी सम्वेदनायें उनके परिवार के साथ हैं। आपकी तकलीफ़ आसानी से समझी जा सकती है।

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