सरोजकुमार होने का मतलब

अब तो यह याद करना भी दुरुह है कि सरोज भाई से पहली मुलाकात कब हुई थी। इसका जवाब मुझे इसी में मिलता है कि मैं यह जवाब पाने की कोशिश न करूँ। सम्भवतः 1975 के आधा बीतते-बीतते, मेरी उत्तमार्द्ध का चयन करने के लिए, मेरे दादा-भाभी के साथ वे भी गए थे। मेरे विवाह को यह अड़तीसवाँ बरस चल रहा है। जाहिर है कि उनसे मेल-मुलाकात उससे भी बरसों पहले ही हुई थी। गोया, आधी सदी के आसपास जितना वक्त हो गया है उनसे जुड़े। इस काल खण्ड में मैंने उनके मिजाज और तेवरों के अनगिनत इन्द्रधनुष देखे और ऐसा प्रत्येक इन्द्रधनुष, अपने से पहलेवाले इन्द्रधनुष से अलग ही दिखा। बस, एक बात ने सारे इन्द्रधनुषों को जोड़े रखा - उनका हर बार मुझे चौंकाना। न चौंकाएँ तो मुझे उनके सरोज भाई होने पर सन्देह होने लगता है। मुझे चौंकाने के उनके किस्से लिखने लगूँ तो निश्चय ही एक छोटा-मोटा ग्रन्थ तो बन ही जाएगा। मौका मिलने पर वे किस्से भी कभी न कभी लिखने का इरादा है। किन्तु इस समय, बस! आँख मूँदकर मेरी बात पर विश्वास करने का उपकार कर दीजिए कि सरोज भाई मुझे हर बार चौंकाते हैं। अपने ‘सरोजकुमारपन’ को कायम रखते हुए उन्होंने मुझे, अभी-अभी ही, एक बार फिर चौंकाया।

‘नईदुनिया’ के बिक जाने से मैं दुःखी था। अभी भी हूँ। यह वह अखबार है (इसके लिए ‘था’ प्रयुक्त करने की इच्छा अभी भी नहीं हो रही) जिसने न केवल पत्रकारिता को नये तेवर, नया कलेवर दिया था अपितु भाषा का महत्व भी अपने पाठकों को समझाया था। यह भी समझाया था कि भाषा का अपना संस्कार होता है और भाषा को औजार की तरह भी प्रयुक्त किया जा सकता है। ‘विचार’ और ‘विमर्श’ का अन्तर और महत्व भी, मुझ जैसे अनेक लोगों ने इसी अखबार से सीखा-जाना और समझा था। इसका, ‘पत्र, सम्पादक के नाम’ स्तम्भ, इसके मुखपृष्ठ से अधिक महत्वपूर्ण होता था। इतना कि अनगिनत लोग सबसे पहले वही पृष्ठ खोलते और पढ़ते थे। समसामयिक विषयों पर उत्तेजक वैचारिक विमर्श इस अखबार के खाते में जमा हो, पत्रकारिता का इतिहास बने हुए हैं। अपने व्यावसायिक और व्यापारिक हितों और जन-भावनाओं के बीच समुचित सन्तुलन साधते हुए अपनी लोकप्रियता को अक्षुण्ण रखने का कौशल आज भी इस अखबार के इतिहास में तलाशा जा सकता है। अखबारी विश्वसनीयता का जो कीर्तिमान इस अखबार ने बनाया, वह पत्रकारिता का जगमगाता उदाहरण है। हालत यह थी कि इसके प्रतिद्वन्द्वी अखबार से सम्बद्ध लोग भी, अपने ही अखबार में छपे समाचार पर तब ही विश्वास कर पाते जब वह ‘नईदुनिया’ में छप जाता। भोपाल और जबलपुर में मैंने लोगों को ‘नईदुनिया’ की प्रतीक्षा में व्याकुल होते असंख्य बार देखा है जबकि जबलपुर में तो यह अखबार अगली सुबह पहुँचता था। मुझे यह स्वीकार करने में रंचमात्र भी संकोच नहीं है कि मैंने इस अखबार से ही लिखना सीखा, इसीने ने मुझे पहचान दिलाई। ‘बाबा’ (स्वर्गीय राहुलजी बारपुते) और ‘रज्जू बाबू’ (राजेन्द्र माथुर) ने इसे न केवल सब अखबारों से अलग और श्रेष्ठ अखबार होने का स्थान दिलाया अपितु इसे ‘पत्रकारिता का मदरसा’ का दर्जा भी दिलाया। इस मदरसे के अनेक तालिब आज कई अखबारों और खबरिया चैनलों में नजर आते हैं।

किन्तु कालान्तर में यह सब रीत गया। ‘बाबा’ और ‘रज्जू बाबू’ की विनम्रता, अभयजी (छजलानी) के कालखण्ड तक, जस की तस भले ही न बनी रही हो किन्तु, उसके क्षरण होने के समानान्तर उसका यथेष्ठ प्रभाव भी अनुभव होता रहा। किन्तु २००५ के बाद तो मानो चोला बदल गया। इसकी प्राथमिकता सूची में ‘जनता की नब्ज’ का स्थान, मालिकों का अहम् लेता दिखाई देने लगा। मालिक के नाम भेजे गए पत्रों के उत्तर नौकर देने लगे, वह भी फोन पर। लगने लगा, मानो बाजार का हिस्सा बनने की चाह में अखबार खुद ही सबसे बड़ा बाजार बनने पर आमादा हो गया है। भाषा तो इसकी प्राथमिकता में मानो कहीं रही ही नहीं। तय कर पाना कठिन होने लगा कि यह अखबार हिन्दी का है या अंग्रेजी का? निजी अनुभव के आधार पर कह पा रहा हूँ कि नियमित पाठकों और शुभ-चिन्तकों ने अपनी खिन्नता, अप्रसन्नता और आपत्ति जताई तो उनका उपहास उड़ाया गया, उन्हें ‘नासमझ’ और ‘अपने समय में ठहरे हुए लोग’ जैसे ‘अलंकरण’ दिए गए। जो विनम्रता इस अखबार का संस्कार थी वह ‘दम्भ’ में बदलती अनुभव होने लगी। स्थिति यह हो गई कि मुझ जैसे, ‘नईदुनिया के व्यसनी और आदी’ आदमी ने ‘नईदुनिया’ खरीदना और पढ़ना बन्द कर दिया। मालूम हुआ कि ऐसा में अकेला नहीं हूँ।

इसके बाद भी, ‘नईदुनिया’ से (जुड़ाव खत्म कर लेने के बाद भी) लगाव बना रहा। इसीलिए, जब इसके बिक जाने का समाचार मिला तो अपने किसी आत्मीय परिजन की मृत्यु जैसे शोक भाव से ग्रस्त हो गया। इसके बिकने की खबरें कोई तीन-चार महीनों से बराबर मिल रही थीं। खबर का सच होना मेरे लिए निजी स्तर पर हादसे से कम नहीं रहा। दो-तीन दिन अनमना, उदास रहा। किसी के सामने खुल कर रोना चाह रहा था। कोई नहीं मिल रहा था। बरबस ही सरोज भाई याद आए। मेरे लिए वे नईदुनिया का पर्याय और प्रतिरूप रहे हैं। उन्हें फोन लगाया। कहा - ‘कुछ कहिए मत। बस, मेरी सुन लीजिए।’ मेरी सुनने के बाद जब वे बोले तो पहले ही वाक्य से अनुभव हो गया कि मुझ जैसे अनेक शोक सन्तप्तों को रुदन वे पहले ही झेल चुके थे। उन्होंने मुझे ढाढस बँधाया।

रोना-धोना कब तक चलता? थोड़ा सामान्य हुआ तो सरोज भाई बोले - ‘अच्छा विष्णु! सुनो। मेरी एक किताब आई है। तुम्हें भिजवा रहा हूँ। पढ़कर बताना, कैसी लगी।’ दो दिन बाद ही किताब मिल गई। ‘शब्द तो कुली हैं’ शीर्षक उनके इसी कविता संग्रह के जरिए सरोज भाई ने मुझे चौंकाया, सदैव की तरह।

इस कविता संग्रह के बाँये वाले फ्लेप पर सरोज भाई ने, अपने लेखन के बारे में जो टिप्पणी की है, उसी ने मुझे चौंकाया। विश्वास नहीं हुआ कि कोई आदमी इस सीमा तक खुद के प्रति ‘निर्भ्रम’ हो सकता है? मैं समझाने की मूर्खता करूँ, उसे अच्छा होगा कि सरोज भाई की टिप्पणी को जस की तस प्रस्तुत करने की समझदारी बरत लूँ। आप खुद ही जान लीजिए, क्या कहते हैं सरोज भाई अपने लेखन के बारे में -

‘‘मैं अत्यन्त साधारण कवि हूँ। समय से आँखें मिलाते हुए, अपनी जमीन पर खड़ा हूँ। न कालातीत, न देशातीत। वर्ड्स्वर्थ ने जिस ‘ट्रेंक्विलिटी’ की बात कही है, वह मुझे भी जरूरी होती है। पर वर्ड्स्वर्थ की तरह मेरी कविता स्वतःस्फूर्त ‘ओवरफ्लो’ नहीं रही। मेरे ऐसी टोंटी, कभी किसी मानसिकता की नहीं रही, जिसे खोलते ही अथवा जिसके खुलते ही, कविता अनायास बह निकले। कविता मेरे लिए ‘इलहाम’ नहीं, मानवीय प्रयत्न है। उसके रचाव की अलौकिकता का अर्थ मेरे लिए, केवल असामान्यता तक सीमित है।

‘‘मेरी चक्की बहुत बारीक नहीं पीसती, न मुझे बारीक कताई भाती है। मैं पाठक/श्रोता तक सरलता से पहुँचना चाहता हूँ। मेरे जैसा ही एक कवि, 13वीं शताब्दी में था, अद्दहमाण (जुलाहे का पुत्र कवि अब्दुल रहमान)। उसने अपनी कविता के बारे में, अपने ग्रन्थ ‘सन्देश रासक’ (अपभ्रंश) की 21वीं गाथा में जो कहा था, वही मैं कहना चाहता हूँ -

‘‘णहु रहइ बुहह कुकवित्त रेसु/अहबत्तणि अबुहह णहु पवेसु/जिण मुक्ख ण पण्डित मञ्झयार/तिहपुरउ पढिब्बउ सव्ववार। (अर्थात् पण्डितों का मेरी कुकविता से कोई सम्बन्ध नहीं रहता और मूर्ख अपनी मूर्खता के कारण कविता में रम ही नहीं पाता। इसलिए, जो न पण्डित हैं और न मूर्ख, जो मध्यम कोटि के हैं, उनके सामने इस कृति को पढ़ना)।’’

जहाँ हर कोई अपने लिखे को मौलिक, प्रकृति प्रदत्त, अभूतपूर्व जैसा बताने का तुमुलनाद रचने में लगे हैं वहाँ अपने लिखे को सामान्य कहना, मुझे अपने आप में असामान्य लगा। जानता हूँ कि इस वक्तव्य में अपनी सुविधानुसार अर्थ तलाशे जा सकते हैं और तदनुसार ही व्याख्याएँ भी की जा सकती हैं। किन्तु मुझ जैसे कमजोर आदमी को सरोज भाई की इस टिप्पणी ने बड़ी ताकत दी। कहा कि कमजोर और सामान्य होना अपराध नहीं। मैंने जो अर्थ लिया वह यह कि ऐसी सार्वजनिक साहसभरी स्वीकारोक्तियाँ आदमी को सबसे अलग, (दादा की एक पंक्ति के जरिए कहूँ तो) ‘असाधारण रूप से साधारण’ बनाती हैं। उसकी कमजोरियों को उसकी ताकत में बदल देती हैं।

इन्हीं सरोज भाई के, इसी कविता संग्रह ‘शब्द तो कुली हैं’ की कविताएँ, जल्दी ही मैं यहाँ प्रस्तुत करूँगा। इस आशा से कि शायद, आपको भी अच्छी लगें।

12 comments:

  1. मजा आ जाये यदि ये कवितायें आपकी आवाज़ मे सुनने को मिल जाये. ऐसा संभव है ये तो मैं जानता हूँ.
    लेकिन आपके और पाठक-गण की राय भी जानना चाहता हूँ. यदि 'पब्लिक डिमांड' रही तो साथ बैठ कर ये प्रयोग भी करेंगे.

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    1. मैं तुम्हारे साथ हूँ वल्कल! शुभस्य शीघ्रम!

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  2. पात्र पत्रिकाओं में आजकल मालिकों का ही बोल बाला है. उनकी नज़रों में लेखक भी तो उनके कुली ही हुए. वैसे आपने बड़े सुन्दर तरीके से सरोज कुमार जी से परिचित कराया. आगे उनकी कविताओं की प्रतीक्षा रहेगी.

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  3. "Lux" Uni-Liver banaaye ya koi aur Nirmata , upbhokta ko koi fark nahi padta ,yadi Lux ki maulikta evam gunvatta poorvavat bani rahe.yahan dukhad pahloo yah hai ki ullekhit avadhi me jin haathon me is akhabaar ka nizaam aaya, ve doordarshee saabit nahi huye ; aur ksharan ke in haalaat/daur me yah hashra to hona hi tha. Smaran rakhen, Neev ke pattharon ko bhulaakar "Kangooron" ki saraahna Dhaanche ko majbootee nahi pradaan karatee . Kisko bataaye ki Ateet ke gungaan maatra se bhavishya nahi sanwarataa.

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  4. विगत वर्षों में 'अनभिज्ञता' में ही 'नईदुनिया' पढ़ने की 'आदत' धीरे-धीरे छूट गयी, जबकि शब्दों और भाषा के प्रति 'संवेदनशीलता' ने आपको उससे जुदा किया. 'साहित्यिक स्तर' की गिरावट भी शायद हमें उससे दूर ले गयी.
    'सरोज कुमार जी' की रचनाओं का मैं भी प्रशंसक रहा हूँ, उनकी उल्लेखित पुस्तक कही उपलब्ध हो तो मैं अवश्य खरीदना चाहूँगा.

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  5. हमारा लेखन भी मोटा मोटा है, बस वही भाता है, बारीकियत परेशान करती है।

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  6. ई-मेल से प्राप्‍त, श्री सुरेशचन्‍द्रजी करमरकर, रतलाम की टिप्‍पणी-

    विष्‍णुजी! ''नई दुनिया'' के इस घटनाक्रम से मैं ऐसा दुखी हुआ कि किसी से कहने की सोच नहीं कह सकता।कारण, लोग ऐसी बातों को अनावश्यक कहतें हैं। इस अख़बार ने मुझे हिन्‍दी सिखाई है। चलो, एक आप तो मिले जो इस अखबार को लेकर इतने सम्‍वेदनशील हैं।

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  7. एक ही आलेख में जीवन के इतने सारे पक्ष एकसाथ सामने आ गये। अखबार के रूप में ही सही, एक आदर्श का पतन दुखदाई है और इस हक़ीक़त को हज़म कर पाना कठिन है। सरोज जी और उनके सहारे अद्दहमाण के दर्शन कर पाना भी आपके सहारे ही हुआ है, आभार। कवितायें आप अवश्य पढिये और रिकॉर्ड कीजिये। साधारण पर एक साधारण सा विचार मेरा भी है:

    ईश्वर को साधारण प्रिय है, बार बार रचता क्यों वरना
    खास बनूं यह चाह नहीं है, मुझको भी साधारण रहना

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  8. सरोजकुमार जी को पहली बार तब देखा था जब कवि सम्मेलन के लिए खरगोन आए थे...और उससे भी पहले मेरे घर मेरे पिताजी से मिलने...इसलिए कि पिताजी उनके शिक्षक रहे थे...शायद १९७५-७६ की बात होगी ये ...फ़िर वर्षों बाद इन्दौर आने पर एक-दो बार मुलाकात हुई संयोग से..पर पिताजी के लिए सम्मान वही...और इस बार जनवरी में बच्चों की शादी पर मेरे सामान्य बुलावे पर आशिर्वाद देने पहुंचे...सिर्फ़ इसलिए कि-‘सर’ तो आज भी मेरे साथ है,और वे सर के परिवार के साथ हैं...उन्हें सादर चरण स्पर्श...
    वल्कल की बात से मैं भी सहमत ... और बिना पब्लिक डिमांड के भी हमारे लिए आपको ये करना ही चाहिए....

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  9. गिरीश वर्मा
    मेरी अधकचरी कवितायें पूरी गम्भीरता से पढ़ना और उन पर अपनी राय देना उनके प्रति एक बड़ा आत्मीय भाव पैदा कर देता है-एक शेर याद
    आता है -'आपसे झुक कर जो मिला होगा,क़द में वो आपसे बड़ा होगा ' मेरे दूरदर्शन से सेवामुक्त होने के बाद ,ये उन्ही का आग्रह था कि
    कुछ करो ,तुम्हें करना चाहिये और आज मैंने कई बरस बाद अपनी पेंटिग और कवितायें फिर शुरू की हैं, मैं उन्हें ह्र्दय से सादुवाद देना चाहता हूं -आदमी का सहज -सरल होना कितना कठिन है ये समझा जा सकता है चूंकि हर कोई सरोज कुमार नहीं हो सकता ।

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आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.