हताशाजनक उदासीनता


मेरे कस्बे रतलाम का माणक चौक स्कूल (वर्तमान अभिलेखीय नाम - शासकीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय क्रमांक-1) अपनी स्थापना के सवा सौ वर्ष पूरे कर रहा है। यहाँ पढ़े लोग पूरे देश में फैले हुए हैं और अपने-अपने क्षेत्र में ‘नामचीन’ हैं। होना तो यह चाहिए था कि इस स्कूल के सवा सौ वर्ष पूरे होने पर ऐसा भव्य और व्यापक समारोह मनाया जाता जिसमें पूरा कस्बा शामिल होता-विशेषतः वे तमाम जीवित लोग अपने परिवार सहित शामिल होते जो यहाँ पढ़े हैं, इस स्कूल की ऐतिहासिकता के बारे में, स्वाधीनता संग्राम में इसकी साक्ष्य के बारे में, नगर विकास में इसकी भूमिका के बारे में विस्तार से वर्तमान पीढ़ी को बताया जाता।


लेकिन इसके विपरीत जो कुछ हो रहा है वह ‘चौंकानेवाला’ से कोसों आगे बढ़कर ‘हताश करनेवाला’ है। हमारे नगर नियन्ताओं ने घोषणा कर दी है कि वे इसे ध्वस्त कर यहाँ ‘शापिंग मॉल’ बनाएँगे। उन्होंने केवल घोषणा ही नहीं की, जिला योजना समिति से तत्सम्बधित प्रस्ताव पारित करवा कर प्रदेश सरकार को भी भेज दिया है।


इस समाचार से जिन कुछ लोगों को अटपटा लगा, उनमें मैं भी शरीक रहा। किन्तु मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब मैंने पाया कि अटपटा लगने वाले इन लोगों में रतलाम का मूल निवासी एक भी नहीं है - हम सबके सब वे लोग हैं जो बाहर से आकर रतलाम में बसे हैं। न तो हम लोग और न ही हमारे बच्चे इस स्कूल में पढ़े हैं। सीधे-सीधे कहा जा सकता है कि बेचैन हो रहे हम लोगों का इस स्कूल से कोई लेना-देना नहीं है।


लेकिन इससे क्या अन्तर पड़ता है? जो मिट्टी मेरी कर्म स्थली है, जिसने मुझे पहचान, प्रतिष्ठा, हैसियत दी, वह अकड़ दी कि मैं लोगों से आँखें मिलाकर बदतमीजी से बात कर लेता हूँ - उस मिट्टी के प्रति मेरी सहज नैतिक जिम्मेदारी बनती है। फिर, मेरी बात को आगे पहुँचाने के लिए मेरे पास ‘उपग्रह’ नामका अखबार भी है - भले ही उसका प्रसार और प्रभाव सीमित हो! यही सोच कर मैंने ‘पुरातात्विक और ऐतिहासिक स्कूल को ध्वस्त करने को उतावला ‘बनिया शहर’ शीर्षक से एक विस्तृत समाचार ‘उपग्रह’ में दिया। बदले में जो कुछ हुआ उसने मेरी यह धारणा मिथ्या साबित कर दी कि ( 33 वर्षों से यहाँ रह रहा) मैं अपने कस्बे को जानता-पहचानता हूँ।


मुझे लगा था कि मेरे समाचार से ‘अच्छी-खासी’ भले ही न हो, ऐसी और इतनी हलचल तो होगी ही कि हमारे नेताओं और प्रशासन को अपने प्रस्ताव पर पुनर्विचार के लिए कम से कम बार तो सोचना ही पड़ेगा।


किन्तु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। गिनती के लोगों ने प्रतिक्रिया व्यक्त की-वह भी, समाचार के लिए मुझे बधाई और धन्यवाद देने के लिए। केवल, श्री नवीन नाहर नामके एक सज्जन ने लोगों के नाम एक पत्र लिखकर उसकी कुछ फोटो प्रतियाँ कस्बे में बँटवाई हैं। किन्तु श्री नाहर को मेरे कस्बे ने कभी भी गम्भीर आदमी नहीं माना।


समाचार को छपे आज नौंवा दिन है। कस्बे में जहाँ कहीं जाता हूँ, लोग समाचार के लिए मुझे धन्यवाद देकर प्रश्नवाचक नजरों से दखने लगते हैं - ‘स्कूल भवन को बचाने के लिए क्या कर रहे हैं?’ मैं उनसे कहता हूँ - ‘आप लोग कुछ करते क्यों नहीं?’ उत्तर मिल रहा है - ‘आप कर तो रहे हैं? आपने काम हाथ में लिया है तो पूरा हो ही जाएगा।’ देख रहा हूँ अपनी भागीदारी की बात करने से हर कोई बड़ी चतुराई से बच रहा है।


ले-दे कर एक जलजजी (डॉक्टर जयकुमारजी जलज) हैं जो लगभग अस्सी का आँकड़ा छूते हुए भी कह रहे हैं - ‘आप निराश मत होईए। अपने से जो बन पड़े, करेंगे।’


मुझे अकुलाहट हो रही है। क्या कोई पूरा का पूरा कस्बा, अपनी ऐतिहासिक और पुरातात्विक धरोहरों के प्रति इस तरह उदासीन हो सकता है?


किसी को क्या कहूँ? अपने लिए ही कह सकता हूँ - अभागा।
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आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने हेतु मैं प्रस्तुत हूँ। यदि अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

लोकतन्त्र का नया स्वरूप?

कल शाम हम चारों पहले तो हतप्रभ हुए, फिर उदास और फिर निराश। बैठे तो थे ‘वक्त कटी’ के लिए। किन्तु पता नहीं, एक दूसरे की टाँग खिंचाई करते-करते, कब और कैस हमारा ‘फुरसतिया चिन्तन’ गम्भीर अन्त पर पहुँच गया। कुछ इस तरह मानो ‘शान्तता कोर्ट चालू आहे’ साकार हो गया।

कड़ाके की सर्दी चल रही है। पारा चार डिग्री तक लुड़क गया है। ढेर सारा काम निपटाना है किन्तु कोई काम करने का जी नहीं कर रहा। ऐसी ही मनःस्थिति में हम चारों, सड़क किनारे, मनोज के चाय ठेले पर मिल बैठे। चारों के चारों साठ पार - याने चारों के चारों ‘श्रेष्ठ आदर्श बघारु।’ कॉलेज के दिनों की अपनी-अपनी आदिम हरकतों का गर्व-गौरव बखान करते-करते हम, प्रशासन द्वारा चलाए जा रहे ‘अतिक्रमण हटाओ अभियान’ पर आ गए। बाजना बस स्टैण्ड, लक्कड़पीठा, चाँदनी चौक, न्यू रोड़, सैलाना रोड़, कोर्ट चौराहा, छत्री पुल, बाल चिकित्सालय आदि इलाकों की शकलें बदल गईं। सड़कें अचानक ही चौड़ी हो गईं। जिन सड़कों, चौराहों से निकलने के लिए ‘पीं-पीं’ करते हुए सरकस और कसरत करनी पड़ती थी, वहाँ से अब, हार्नों के शोरगुल के बिना ही ‘सर्र’ से निकला जा सकता था। साफ-सुथरा कस्बा देख कर अब लग रहा है कि पहले यही कस्बा गितना गन्दा और विकृत बना हुआ था।

किन्तु इस सुन्दरता को उजागर करने के लिए हजारों नहीं तो सैंकड़ों लोगों को तो अपने-अपने रोजगार के लिए नई जगहें तलाश करनी पड़ेंगी। विस्थापितों ने सरकार से नई जगह माँगनी शुरु कर दी है।

अचानक ही यह तथ्य उभर कर सामने आया कि अतिक्रमण हटाने और कस्बे को सुन्दर बनाकर यातायात सुगम बनाने का यह अभियान पूरी तरह से ‘प्रशासकीय’ है। इसमें ‘शासन’ याने हमारे निर्वाचित जन प्रतिनिधि कहीं दिखाई नहीं दे रहे - न तो अभियान का समर्थन करते हुए और न ही विस्थापितों को वैकल्पिक जगहें दिलाने के लिए। जिन्हें हटाया गया उनके प्रतिवाद-प्रतिकार में भी याचना ही प्रमुख है, आक्रोश नहीं। और तो और, अतिक्रमण हटाने में प्रशासन द्वारा पक्षपात बरतने का पारम्परिक आरोप भी नहीं लगा।

हम लोग धीरे-धीरे निष्कर्ष पर पहूँच रहे थे। हमें लगने लगा कि ‘शासन’ याने निर्वाचित जनप्रतिनिधियों ने अपनी भूमिका बिलकुल ही नहीं निभाई। उनके जरिए ‘जन अभिलाषाओं का प्रकटीकरण’ होता है किन्तु हमें लग रहा था उन्होंने ‘अपनेवालों की अभिलाषाओं’ की चिन्ता की। उन्होंने ‘अपनेवालों’ को उपकृत किया और ऐसा करने में व्यापक जन हितों की अनदेखी और उन पर कुठाराघात किया। उन्होंने ‘अपनेवालों’ को अतिक्रमण करने के लिए प्रोत्साहन, खुली छूट भी दी और राजनीतिक संरक्षण भी। कस्बे को विकृत-विरूप किया। व्यापक जनहितों की रक्षा करने के अपने न्यूनतम उत्तरदायित्व को वे सब भूल गए। तुर्रा यह कि ये सबके सब ‘नगर का विकास’ करने की दुहाई देकर चुने गए थे।

इसके ठीक विपरीत, जो ‘प्रशासन’ मनमानी, अधिकारों के दुरुपयोग, लोगों की बातें न सुनने जैसे पारम्परिक आरोपों से घिरा रहता है उसी प्रशासन ने मानो जनभावनाएँ समझीं और तदनुरूप कार्रवाई कर सरकारी जमीन को अतिक्रमण मुक्त कराया, कस्बे की सुन्दरता लौटाई और लोगों को सुगम यातायात उपलब्ध कराने की कोशिश की। उल्लेखनीय बात यह रही कि इन कोशिशों में प्रशासन ने समानता बरती। न तो किसी को छोड़ा और न ही किसी को अकारण छेड़ा। इस समानता और निष्पक्षता के कारण ही तमाम निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की बोलती बन्द रही। एक भी माई का लाल मैदान में नहीं आया।

तो क्या अब ‘जनभावनाओं का प्रकटीकरण’ हमारे अफसर करेंगे? तब, हमारे जनप्रतिनिधि क्या करेंगे? वे अनुचित, अनियमितताओं, अवैधानिकताओं को प्रोत्साहित-संरक्षित करेंगे? और, उनकी इन हरकतों से मुक्ति पाने के लिए हमें अफसरों के दरवाजे खटखटाने पड़ेंगे? उन अफसरों के, जो जनसामान्य से दूर रहने, मनमानी करने, भ्रष्टाचार कर अपनी जेबें भरने जैसी बातों के लिए जाने-पहचाने जाते हैं और बदनाम हैं? तो क्या, हमारे जनप्रतिनिधियों और अफसरों ने अपनी-अपनी भूमिकाएँ बदल ली हैं?
हम चारों ही अचकचा गए। हमारी बोलती बन्द हो गई। हम एक दूसरे की ओर देख रहे थे - चुपचाप।

शायद हम चारों, एक दूसरे से पूछने से बच रहे थे - यह लोकतन्त्र का कैसा स्वरूप है?

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राजा व्यापारी (तो) प्रजा भिखारी

मेरी स्थायी शिकायत है -‘लोग नहीं बोलते। चुपचाप सब सह लेते हैं।’ लेकिन कल लगा, मुझे अपनी शिकायत पर पुनर्विचार करना चाहिए। लोग भले ही न बोलते हों किन्तु ‘लोक’ बोलता है।

यह कल सुबह कोई साढ़े दस, पौने ग्यारह बजे की बात है। पाँच डिग्री से भी कम तापमान में ठिठुर रहे मेरे कस्बे का बाजार मानो अभी भी रजाई में ही पड़ा हुआ था। नाम मात्र की दुकानें खुली थीं। शकर और पिण्ड खजूर लेने के लिए मैं पारस भाई पोरवाल की दुकान पर पहुँचा। दो ग्राहक पहले से ही वहाँ बैठे थे। दुकान खुली ही खुली थी। पारस भाई, मुझसे पहलेवाले ग्राहकों के सामान की सूची बना तो रहे थे किन्तु कुछ इस तरह कि ‘यार! कहाँ सुबह-सुबह चले आए?’ दुकान के कर्मचारियों के काम की गति पर भी ठण्ड का जोरदार असर था। सो, कुल मिलाकर ठण्ड के मारे हम ग्राहक और खुद पारस भाई मानो जबरिया फुरसत में आ गए थे।

‘फुरसतिया चिन्तन’ की शुरुआत ही मँहगाई से हुई। बीएसएनएल वाले नारलेजी बोले - ‘यहाँ सर्दी जान ले रही है और उधर चीजों की कीमतों में आग लगी हुई है। पता नहीं, यह मँहगाई कहाँ जाकर रुकेगी?’

पारस भाई ने बात इस तरह लपकी मानो ऐसे सवाल की प्रतीक्षा ही कर रहे हों। मानो मुझसे सवाल पूछ रहे हों, इस तरह, मेरी ओर देखते हुए तपाक से बोले - ‘नहीं रुकेगी। और रुकेगी भी क्यों? जिसके जिम्मे जो काम किया था, वह उस काम के सिवाय बाकी सब काम कर रहा है! ऐसे में मँहगाई क्यों रुके और कैसे रुके?’

पारस भाई प्रबुद्ध व्यापारी हैं। मैंने प्रायः ही अनुभव किया है कि बाजार की बातें करते समय वे बाजार की मूल प्रवृत्ति को प्रभावित करनेवाले तत्वों और तथ्यों पर बहुत ही सटीक टिप्पणियाँ करते हैं। उनके पास जब भी जाता हूँ, किराना सामान के अतिरिक्त भी कुछ न कुछ लेकर ही लौटता हूँ। मुझसे सवाल कर मानो उन्होंने मुझे मौका दे दिया। तनिक अधिक लालची होकर मैंने प्रति प्रश्न किया - ‘क्या मतलब?’

पारस भाई ने ऐसी गर्मजोशी से बोलना शुरु किया कि लुड़के पारे को भी गर्माहट आ गई। बोले - ‘मतलब यह कि जैसे अपने शरद पँवार को ही लो। उन्हें काम दिया था कि हमारी खेती-बाड़ी की और किसानों की फिकर करें। लेकिन वे लग गए दूसरे कामों में। उन्हें क्रिकेट भी खेलनी है, पास्को (यह शायद कोई विराट् औद्योगिक परियोजना है) भी चलानी है, शुगर मिलों की चेयरमेनशिप और डायरेक्टरशिप भी करनी है, अपनी बेटी और भतीजे का राजनीतिक भविष्य भी मजबूत करना है। इन सबसे उन्हें उस काम के लिए फुरसत ही नहीं मिल रही है जिसके लिए उन्हें मनमोहन सिंह ने बैठाया है। ऐसे में मँहगाई क्यों नहीं बढ़े?’

नारलेजी चूँकि बीएसएनएल से जुड़े हैं सो बात ए. राजा पर आने में पल भर भी नहीं लगा। नारलेजी और पारस भाई का निष्कर्ष था कि राजा तो बेवकूफ बन गया। उसने तो सोचा कि वह सरकार को खूब कमाई करवा रहा है लेकिन टाटा जैसे व्यापारियों ने उसे और सरकार को मूर्ख बना लिया। सरकार को और राजा को कितना क्या मिला यह तो गया भाड़ में, असल खेल तो व्यापारियों ने खेला। अकेले टाटा ने ही हजारों करोड़ रुपये कमा लिए और राजा तथा सरकार का मुँह काला हो गया और दोनों ही आज कटघरे में खड़े हैं।

प्रधान मन्त्री मनमोहन सिंह अब तक बचे हुए थे। लेकिन कब तक बचते? हमारा ‘लोक’ तो अच्छे-अच्छों को निपटा देता है। उसे तो मौका मिलना चाहिए! इन्दिरा गाँधी और अटल बिहारी वाजपेयी तक को एक-एक बार कूड़े में फेंक चुका है। सो, मनमोहन सिंह के लिए सर्वसम्मत राय आई - ‘उन्हें शासन करना था किन्तु वे धृतराष्ट्र बन गए हैं। उनकी उपस्थिति में द्रौपदी का चीर हरण हो रहा है और वे अपनी ईमानदारी को बचाने की चिन्ता में चुप बैठे हैं। उन्हें चाहिए कि वे शरद पवार और दूसरे मन्त्रियों पर अंकुश लगाएँ।’

और इसके बाद पारस भाई ने जो कुछ कहा, उसने मानो हमारे ‘लोक’ के सुस्पष्ट चिन्तन और परिपक्वता का परचम फहरा दिया। बोले - ‘इन्हें राज करना था। लोगों की बेहतरी, खुशहाली की चिन्ता करनी थी। लेकिन ये तो वायदे के सौदे कराने लगे! राजा का काम है, राज करना। लेकिन ये तो व्यापार करने लगे! ऐसे में वही होगा जो अभी हो रहा है। राजा व्यापारी तो प्रजा भिखारी।’

मैं या नारलेजी कुछ कहते उससे पहले ही पारस भाई के कर्मचारी ने, नारलेजी का सामान बाँध देने की सूचना दी। पारस भाई, सूची से मिलान और रकम का मीजान करने लगे। कर्मचारी ने मुझसे मेरे सामान की सूची माँगी। मुझे तो दो ही चीजें लेनी थीं। जबानी ही कह दी। पारस भाई, नारलेजी का हिसाब करते उससे पहले ही मैं निपट गया था।

अपना सामान लेकर चला तो पारस भाई की कही उक्ति - ‘राजा व्यापारी तो प्रजा भिखारी’ भी मेरे सामान की पोटली में बँधी थी। मुझे अच्छा लगा। भरोसा हुआ। लोग भले ही नहीं बोलते किन्तु ‘लोक’ तो बोलता है। और केवल बोलता ही नहीं, मौका मिलते ही अच्छे-अच्छों को निपटा भी देता है।
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आज मेरे भरोसे मत रहिएगा

इकतीस दिसम्बर और पहली जनवरी की सेतु रात्रि के ग्यारह बजने वाले हैं। एक विवाह भोज में शामिल होने के लिए कोई साढ़े आठ बजे घर से निकला ही था कि मोबाइल में, एसएमएस दर्ज होने की ‘टन्-टन्’ होने लगी थी जो भोजन करते समय और जाते-आते रास्ते भर बजती रही। घर आकर देखा - मेसेज बॉक्स छोटा पड़ चुका था और कुछ सन्देशों के हवा में तैरते रहने की सूचना पर्दे पर टँगी हुई थी।

सन्देश पढ़-पढ़ कर ‘डीलिट’ करने लगा तो हवा में तैरते सन्देश एक के बाद एक ऐसे मोबाइल में समाने लगे मानो दिल्ली के चाँदनी चौक मेट्रो रेल्वे स्टेशन पर खड़े लोग डिब्बे में घुस रहे हों। सन्देश पढ़ने और मेसेज बॉक्स खाली करने में भरपूर समय और श्रम लग गया। सन्देश पढ़ते-पढ़ते हँसी आती रही - एक ही सन्देश सात बार पढ़ना पड़ा। भेजनेवाले ने तो ‘अनूठा’ (यूनीक) ही भेजा होगा किन्तु ‘फारवर्डिंग कृपा’ से, पानेवाले तक आते-आते वह ‘औसत’ (कॉमन) बन कर रह गया। पता ही नहीं पड़ता कि तकनीक की विशेषता कब विवश-साधारणता में बदल जाती है!

कुछ सन्देश देखकर उलझन में पड़ गया। ये उन लोगों के थे जो वेलेण्टाइन डे का विरोध करते हैं और नव सम्वत्सर पर्व पर, सूर्योदय से पहले जल स्रोतों पर पहुँचकर, सूर्य को अर्ध्य देकर नव वर्ष का स्वागत खुद करते हैं और एक दिन पहले, कस्बे में ताँगा घुमा कर, लाउडस्पीकर के जरिए लोगों से, ऐसा ही करने का आह्वान करते हैं। भारतीयता और भारतीय संस्कृति की चिन्ता में दुबले होने वाले ऐसे ही दो ‘सपूतों’ ने तो अपने-अपने ‘फार्म हाउस’ पर आज विशेष आयोजन किए हैं। इन्हीं जैसे एक अन्य संस्कृति रक्षक ने अपनी होटल में, नव वर्ष स्वागत हेतु विशेष आयोजन किया है। मैं इन तीनों आयोजनों में निमन्त्रित हूँ। किन्तु मैं नहीं गया।

मैं नहीं मनाता पहली जनवरी को नया साल। इसे नया साल मानता भी नहीं। यह मेरा निजी मामला है और मुझ तक ही सीमित है। ऐसा करने के लिए किसी से आग्रह नहीं करता। मेरे आसपास के अधिकांश लोग मेरी इस मनःस्थिति को भली प्रकार जानते हैं। किन्तु इनमें से अधिकांश मुझे ‘ग्रीट’ करते हैं। मैं सस्मित उन्हें धन्यवाद और शुभ-कामनाएँ देता हूँ। मैं अशिष्ट नहीं होना चाहता।

जान रहा हूँ और भली प्रकार समझ भी रहा हूँ कि अब हमारे जन मानस ने, पहली जनवरी से ही नया साल शुरु होना मान लिया है और चैत्र प्रतिपदा के दिन नव-सम्वत्सर का उत्सव मनाना, यदि आत्म वंचना नहीं है तो इससे कम भी नहीं है। दोहरा जीवन तो हम सब जीते हैं। जी ही रहे हैं। जीना ही पड़ता है। मैं भी सबमें शामिल हूँ - घर में कुछ, बाहर कुछ और।

किन्तु कुछ मामलों में मैं ऐसा नहीं कर पाता। नव वर्ष प्रसंग ऐसा ही एक मामला है मेरे लिए। मैं चैत्र प्रतिपदा पर भी नव वर्ष नहीं मनाता। केवल दीपावली पर ही नव वर्ष मनाता हूँ। मेरे अन्नदाताओं (बीमाधारकों) में सभी धर्मों के लोग हैं। बीमा व्यवसाय शुरु करने के शुरुआती दिनों में मैं उन सबको, उनके नव वर्षारम्भ पर बधाई सन्देश भेजता था। साल-दो-साल तक ही यह सिलसिला चला पाया। उसके बाद बन्द कर दिया। मुझे लगा, मैं ‘धर्म’ को ‘धन्धे का औजार’ बना रहा हूँ। मेरी आत्मा ने ऐसा करने से मुझे टोका और रोक दिया। तबसे बन्द कर दिया। उसके बाद, अन्य धर्मावलम्बियों में से जिन-जिन से मेरे सम्पर्क घनिष्ठ हैं, उनके नव वर्ष पर बधाइयाँ देने के लिए उनके घर जाता हूँ। अब मैं अपने तमाम अन्नदाताओं को केवल दीपावली पर ही नव वर्ष अभिनन्दन और शुभ-कामना पत्र भेजता हूँ। मुझे यही उचित लगता है।

हमारे मंगल प्रसंग भी मेरे लिए ऐसे ही मामले हैं। मेरे बेटे के वाग्दान (सगाई) के समय हमारी होनेवाली बहू सहित हमारे समधीजी, सपरिवार उपस्थित थे। दोनों पक्षों की रस्म एक ही साथ पूरी की थी हम लोगों ने। किसी ने ‘मुद्रिका पहनाई’ (रिंग सेरेमनी) की बात कही। मुझे उसी समय मालूम हुआ कि दोनों के लिए अँगूठियाँ भी तैयार हैं। किन्तु मैंने इसके लिए दृढ़तापूर्वक निर्णायक रूप से मना कर दिया। ‘रिंग सेरेमनी’ हमारा न तो संस्कार है और न ही परम्परा। मुमकिन है, मेरे बेटे-बहू को (और मेरे परिजनों को भी) मेरी यह ‘हरकत’ ठीक नहीं लगी हो किन्तु इसमें मुझे रंच मात्र भी सन्देह नहीं कि उस दिन उपस्थित तमाम लोग आजीवन इस बात को याद रखेंगे कि ‘रिंग सेरेमनी’ भारतीय संस्कार/परम्परा नहीं है।

मैं देख रहा हूँ कि हम अपना ‘काफी-कुछ’ खो जाने का रोना तो रोते हैं किन्तु यह याद नहीं रखना चाहते कि ‘वह सब’ खो जाने देने में हम खुद या तो भागीदार होते हैं या फिर उसके साक्षी। हम बड़े ‘कुशल’ लोग हैं। जब भी हमारी ‘आचरणगत दृढ़ता’ का क्षण आता है तो हम बड़ी ही सहजता से, कोई न कोई तार्किक-औचित्य तलाश लेते हैं और वह सब कर गुजरते हैं जो हमारा ‘काफी-कुछ’ हमसे छीन लेता है।

हमारे नेता ऐसे कामों में माहिर होते हैं और चूँकि हम ‘आदर्श अनुप्रेरित समाज’ हैं, इसलिए आँख मूँदकर अपने नेताओं के उन अनुचित कामों का भी अनुकरण कर लेते हैं जिनके (अनुचित कामों के) लिए हमने उन नेताओं को टोकना चाहिए। मसलन, मेरे प्रदेश के मुख्यमन्त्री शिवराज सिंह चौहान। वे चैत्र प्रतिपदा के दिन ‘हिन्दू नव वर्ष’ मनाने के लिए अपनी पूरी सरकार के सरंजाम लगा देते हैं और खुद, नया साल मनाने के लिए 31 दिसम्बर को किसी प्रसिद्ध पर्यटक या धार्मिक स्थल पर पहुँच जाते हैं।

ऐसे स्खलित आचरण के लिए हम अपनी ‘उत्सव प्रियता’ का तर्क देने में न तो देर करते हैं और न ही संकोच। यदि ऐसा ही है तो हम भारत में ही प्रचलित अन्य धर्मों के मतानुसार उनके नव वर्षारम्भ पर उत्सव क्यों नहीं मनाते? मैं जानना चाहता हूँ कि जन्म दिन पर केक काटना कब से भारतीय संस्कार और परम्परा बन गया? मुझे हैरत होती जब मैं अटलजी के जन्म दिन पर उनके समर्थकों को केक काट कर जश्न मनाते देखता हूँ।

अपने आप को ‘अपने समय में ठहरा हुआ’ करार दिए जाने का खतरा उठाते हुए मैं, पहली जनवरी को नव वर्षारम्भ मानने को भी हमारी गुलाम मानसिकता का ही प्रतीक मानता हूँ - बिलकुल, राष्ट्र मण्डल खेलों की तरह ही।

सो, पहली जनवरी को मेरा नया साल शुरु नहीं हो रहा है। इस प्रसंग पर मैं अपनी ओर से किसी को बधाइयाँ, अभिनन्दन, शुभ-कामनाएँ नहीं देता। जो मुझे यह सब देता है, शिष्टाचार निभाते हुए मैं भी उसे यह सब कहता तो हूँ लेकिन अपने स्थापित चरित्र को कायम रखते हुए साथ में व्यंग्योक्ति भी कस देता हूँ - ‘जी हाँ, हम हिन्दुस्तानियों को अंग्रेजों का नया साल मुबारक हो।’

इसलिए, जो भी महरबान पहली जनवरी से अपना नया साल शुरु होना मानते हों, वे मेरे भरोसे बिलकुल न रहें। वे अपना जश्न मनाने के लिए फौरन ही मेरे मुहल्ले में चले आएँ। क्योंकि यह सब लिखते-लिखते रात के बारह कब के बज चुके हैं और मेरे अड़ोस-पड़ौस के बच्चे, सड़क पर पटाखे छोड़ते हुए खुशी में चीखते हुए एक-दूसरे को ‘ग्रीट’ कर रहे हैं।
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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें। यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें। मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.