बढ़ती उम्र, घटता विश्वास, घटता साहस!

बढ़ती उम्र व्यक्ति को अधिक स्वार्थी अधिक भयभीत, असुरक्षा-भाव से अधिक ग्रस्त या ऐसा ही कुछ कर देती है? मनीष और अजय से मिलने के बाद से ये बातें मेरे मन से निकल नहीं रही हैं।


दोनों ही जयपुर में हैं। आयु में मनीष तनिक वरिष्ठ है - यही, कोई दो-तीन वर्ष किन्तु (जैसा कि मैंने देखा) अजय को ‘अजयजी’ सम्बोधित करता है। अजय तो मनीष को ‘मनीषजी’ सम्बोधित करता ही है। दोनों एक ही कस्बे से निकल कर जयपुर में बस गए हैं और तीन भागीदारोंवाले व्यापारिक संस्थान में भागीदार हैं। व्यापार है - विदेशी मुद्रा विनिमय का। जयपुर, राजस्थान की राजधानी तो है ही, विदेशी पर्यटकों के लिए तो मानो भारत की राजधानी ही है। सो, स्थिति कुछ ऐसी कि तीनों भागीदार दिन भरे लोगों से घिरे तो रहते हैं किन्तु भारतीयों से कम और परदेसियों से ज्यादा। सुबह साढ़े नौ बजे से शाम सात-आठ बजे तक की दिनचर्या ऐसी कि भोजन के लिए भी समय कठिनाई से निकाल पाते हैं। स्थिति कुछ ऐसी कि कामकाज के छहों दिन घर का भोजन कभी नहीं कर पाते। महीने में लगभग दस दिन घर पर, पाँच-सात दिन संस्थान पर होटल से मँगवा कर और इतने ही दिन होटल में भोजन करना पड़ता इन्हें। हाँ, रविवार अनिवार्यतः अपने-अपने परिवार के साथ ही गुजारते हैं।

इनका व्यापार अत्यधिक सम्वेदनशील है। भारतीय रिजर्व बैंक के कठोर नियन्त्रणवाला। लेन-देन के सारे विस्तृत ब्यौरे, नियमित रूप से, निर्धारित समयावधि में अनिवार्यतः भेजने पड़ते हैं और कठोर अंकेक्षण से गुजरना पड़ता है। इनका संस्थान इन सारी बातों में प्रति वर्ष सौ में से सौ अंक लेने में कामयाब रहा है। कहते हैं, शिखर पर पहुँचना उतना कठिन नहीं है जितना कठिन होता है - शिखर पर बने रहना। सो, अपने संस्थान् की स्थापित ‘साख’ को बचाए, बनाए और उसे निरन्तर बेहतर बनाने के लिए सारे भागीदार चौबीसों घण्टे सतर्क, चौकन्ने और सन्नद्ध रहते हैं। एक ही मालिक हो तो चूक की आशंका हो सकती है किन्तु तीन भागीदार होने से यह आशंका शून्यवत हो जाती है। इसलिए, जब-जब भी लगा कि लेन-देन के मामले में कोई इनका आपराधिक दुरुपयोग कर सकता है तब-तब हर बार, बुरा बने बिना, किसी की नाराजी लिए बिना, अपने व्यापारिक कौशल से खुद को सुरक्षित निकाल लेते हैं। मनीष ने जब कहा - ‘हमारे यहाँ आपको काले धन की एक पाई नहीं मिलेगी’ तो उसके चेहरे पर गर्व का नहीं, आत्म-सन्तोष का और ईश्वर के प्रति धन्यवाद का कृतज्ञता भाव था।


इस जयपुर यात्रा में इन दोनों से परिचय होना मेरी उपलब्धि रही। निमित्त बना - आलोट निवासी, नौजवान बीमा अभिकर्ता प्रिय अमित चौधरी। उसी के कारण जयपुर में पूरा दिन मनीष के घर पर बिताया और भरपूर देर तक अजय के घर पर भी। दोनों की गृहस्थियों का साज-सामान, मनीष के उपरोक्त कथन को रेखांकित करता रहा।


किन्तु जिस बात को लेकर मैं यह सब लिखने बैठा हूँ वह तो छूटी ही जा रही है।


जयपुर से निकलने से ठीक पहले, हम चारों (अमित, मनीष, अजय और मैं) ने भोजन साथ ही किया। मनीष और अजय हमारे मेजबान थे (यह चित्र उसी समय का, होटल का ही है। बॉंयी ओर मनीष तथा दाहिनी ओर, हाथों पर ठुट्डी टिकाए अजय है)। दोनों की दिनचर्या और व्यापार की प्रकृति के आधार पर मैंने जानना चाहा कि पर्यटकों का तो रविवार नहीं होता। अनेक पर्यटक तो अब उनके स्थायी ग्राहक बन चुके होंगे और अनेक पर्यटक ऐसे होते होंगे जो उनके स्थायी ग्राहकों के कहने पर उनसे सम्पर्क करते होंगे। ऐसे पर्यटक तो रविवार को भी सम्पर्क करते ही होंगे और व्यापार की प्रतियोगिता में बने रहने के लिए तथा अपने स्थायी ग्राहकों को बनाए रखने के लिए (और उनसे अनुशंसित ग्राहकों का भरोसा प्राप्त कर उन्हें भी अपना स्थायी ग्राहक बनाने के लिए) वे रविवार को छुट्टी कैसे मना सकते हैं? और यह भी कि ऐसे में वे सपरिवार कभी यात्राओं पर कैसे जाते होंगे?


दोनों का उत्तर ही मेरी इस पोस्ट का कारण बना।


तीनों भागीदार बारी-बारी से रविवार की छुट्टी मनाते हैं और इसी तरह सपरिवार यात्राएँ भी करते हैं। सपरिवार यात्राएँ तो प्रति वर्ष अनिवार्यतः करते ही हैं - कभी पाँच दिनों की तो कभी आठ-दस दिनों की भी। ऐसी प्रत्येक छुट्टी के दिन और यात्राओं के दिनों में ये दोनों अपने-अपने मोबाइल पूरी तरह बन्द रखते हैं। जब सपरिवार जयपुर से बाहर जाते हैं तो अपने मोबाइल जयपुर में ही छोड़ जाते हैं। न तो अपनी ओर से किसी को फोन करते हैं और न ही किसी का फोन सुनते हैं। और तो और, छुट्टी के ऐसे दिनों में संस्थान् पर मौजूद भागीदार से भी दुआ-सलाम नहीं करते। छुट्टी याने सोलहों आना छुट्टी।


जवाब सुनकर, मेरे हाथ का कौर हाथ में ही रह गया। मुझे विश्वास ही नहीं हुआ। अपनी महत्वाकांक्षाओं (विशेषतः ‘पूँजी केन्द्रित’ महत्वाकांक्षाओं) को पूरी करने के लिए किसी भी हद तक गुजर जानेवाली, किसी भी प्रकार को कोई लिहाज न पालनेवाली, ‘व्यावसायिकता’ (प्रोफेशनलिजम) के नाम पर कुछ भी कर गुजरनेवाली, किसी भी हद तक चली जानेवाली पीढ़ी के इस, आत्मीयता की ऊष्माविहीनता वाले आक्रामक समय में कोई नौजवान भला ऐसा कैसे सोच सकता है? ऐसा कैसे सोच पा रहा है? यह भारतीयता है या पारिवारिक संस्कारशीलता या युवावस्था से उपजा, कोई भी जोखिम ले लेने का साहस?


हाथ में कौर लिए मैंने खुद को टटोला। मैं स्वीकार करता हूँ कि इन दोनों की जगह मैं होता तो मैं निश्चय ही ऐसा नहीं कर पाता। इतने दिनों के लिए मैं शायद ही संस्थान से अनुपस्थित रहता, रहना पड़ता तो अपना मोबाइल साथ ही ले जाता, उसे कभी बन्द नहीं करता और अपने भगीदार से, चौबीसों घण्टे, बार-बार सम्पर्क कर, विस्तृत पूछताछ करता रहता।


किन्तु इसके समानान्तर यह बात भी मेरे मन में आई कि मैं इस समय अपनी आयु के पैंसठवें वर्ष में चल रहा हूँ और इसी आधार पर सोच भी रहा हूँ। सम्भव है, इनकी आयुवाले समय में मैं भी ऐसा ही सोचता!

क्या आयुवार्धक्य ही मेरे इस साहसविहीनता और अविश्वासभरे नकारात्मक सोच का एकमात्र कारण है?


इस बीच, आपको या आपके किसी अपनेवाले को जयपुर में ‘विदेशी मुद्रा विनिमय’ के लिए कोई काम पड़े तो निश्चिन्त होकर मोबाइल नम्बर 098291 86024 पर मनीष को बता सकते हैं। अजय का मोबाइल नम्बर मैं लिख नहीं पाया।

डाक विभाग की खबर: सब कुछ राजी-खुशी नहीं है

मर्मान्तक पीड़ा से यह सब लिख रहा हूँ।

भारतीय डाक सेवा पर मैं सदैव ही गर्व करता रहा हूँ। न केवल इसका प्रशंसक हूँ अपितु इसकी समुचित सहायता करने हेतु भी सन्नद्ध और प्रयत्नरत भी रहता हूँ। भारत संचार निगम लि. के रतलाम जिला महाप्रबन्धक ने एक बार, अपने निहित स्वार्थों के अधीन, टेलीफोन बिल वितरण का काम निजी कूरीयर सेवा को सौंप दिया था। रतलाम डाक सम्भाग के तत्कालीन अधीक्षक अहमद अलीजी ने इस मामले में नागरिकों की मदद चाही थी। तब आदरणीय डॉक्टर जयकुमारजी जलज और मैं, हम दो ही इस मामले में आगे आए थे और लगातार झगड़ा करके यह काम फिर से डाक विभाग को दिलवाया था।

डाक विभाग को मैं ‘अन्नदाता विभाग’ मानता हूँ। इसके माध्यम से ही मैं अपने ‘वर्तमान अन्नदाताओं’ (पॉलिसीधारकों) को ग्राहक सेवाएँ उपलब्ध करा पाता हूँ और ‘सम्भावित अन्नदाताओं’ से सम्पर्क कर पाता हूँ। व्यक्तिगत खर्चों में मेरा सबसे बड़ा खर्च, ‘डाक खर्च’ ही है। किन्तु लग रहा है कि अब यह विभाग अपना, विशिष्टतावाला चरित्र और स्वरूप खोकर, पुरातत्व संग्रहालय की वस्तु बनने की दिशा में चल पड़ा है।

अपने ‘अन्नदाताओं’ को उनकी प्रीमीयम जमा कराने के लिए मैं प्रतिमाह नियमित रूप से पोस्ट कार्डों पर सूचना भेजता हूँ। इनके साथ हर बार मैं अपने पतेवाला एक पोस्ट कार्ड भी शामिल कर देता हूँ। ऐसा अनेक बार हुआ कि मेरे पतेवाला पोस्टकार्ड मुझे नहीं मिला।

मेरे मित्र धर्मेन्द्र रावल की दो पॉलिसियाँ परिपक्व हो रही थीं। उनका भुगतान प्राप्त करने के लिए मैंने उसे दो ‘विमुक्ति पत्र’ (डिस्चार्ज वाउचर) 26 नवम्बर को इन्दौर के लिए, सुबह साढ़े आठ बजे डाक के डिब्बे में डाले। वे उसे चौदहवें दिन, 9 दिसम्बर को मिले। रतलाम से इन्दौर की दूरी मात्र 135 किलोमीटर है और रतलाम से इन्दौर के लिए डाक के थैले सीधे भेजे जाते हैं।

इसी तरह, मेरे साले की एक पालिसी का विमुक्ति पत्र सावेर भेजा। सावेर इन्दौर जिले में आता है और इन्दौर से 30 किलोमीटर दूर है। मैंने बार-बार पूछताछ की तो मेरा साला दसवें दिन, सावेर डाक घर पहुँचा और वहाँ पड़े, डाक के ढेर में से अपना पत्र निकाल कर लाया।

इन्दौर निवासी, सेवा निवृत्त प्रोफेसर जगदीश चन्द्रजी लाड से मेरा नियमित पत्र व्यवहार चलता है। हम दोनों को एक दूसरे के पत्र कभी भी समय पर नहीं मिलते। इन्दौर से पोस्ट किया उनका एक पत्र मुझे अभी-अभी, दसवें दिन मिला।

भोपाल के लिए मैंने एक ही दिन, एक ही समय पर, दो पत्र स्पीड पोस्ट से भेजे। एक पत्र तो चौबीस घण्टों से भी कम समय में पानेवाले को वितरित कर दिया गया जबकि दूसरा पत्र चौथे दिन पहुँचा। उल्लेखनीय बात यह है कि दोनों पत्र, डाक विभाग की एक ही ‘बीट’ में थे। मेरे जिस मित्र को चौबीस घण्टों से भी कम समय में मेरा स्पीड पोस्ट पत्र मिल गया था, उसने मुझे जो पत्र स्पीड पोस्ट से भेजा वह मुझे चौथे दिन मिला।

श्रीसुरेशचन्द्र करमरकर एक उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के सेवानिवृत्त प्राचार्य हैं। वे ब्लॉग भी लिखते हैं। उन्होंने 5 दिसम्बर को, अपने मित्र जुबेर आलम कुरेशी के नाम लिखा पत्र, रतलाम के ही पते पर, जुबेर आलम के हाथों ही डाक में डलवाया। वह पत्र आज तक जुबेर को नहीं मिला। करमरकरजी ने दूसरा पत्र फिर जुबेर के हाथों डाक में डलवाया। वह भी अब तक नहीं मिला है।

पंजीकृत (रजिस्टर्ड) पत्रों की पावती (एकनॉलेजमेण्ट) के लिए डाक विभाग अपने ग्राहकों से अतिरिक्त शुल्क लेता है। मेरे पास ऐसे एकाधिक प्रकरण हैं जिनमें ग्राहकों से पावती-शुल्क तो लिया गया किन्तु किसी को पावती नहीं मिली है। ऐसे मामलों में यदि किसी ग्राहक ने पत्र के पहुँचने की तारीख और समय जानने के लिए सम्पर्क किया तो केवल पत्र के वितरित होने की सूचना दे दी गई। किसी को यह नहीं बताया गया कि पत्र किस दिनांक को, किस समय सामनेवाले को सौंपा गया।

रतलाम के अपने कृपालुओं के नाम, 21 अक्टूबर को मैंने दीपावली अभिनन्दन पत्र पोस्ट किए थे। इन्हीं में से, मेरे मित्र डॉक्टर गोविन्द प्रसाद डबकरा के नामवाला अभिनन्दन पत्र मुझे अभी-अभी 22 दिसम्बर को, पूरे दो महीनों के बाद ‘अवितरित पत्र’ के रूप में मिला है।

करमरकरजी को एक और अनुभव से सामना करना पड़ा। उन्हें जवाबी पोस्टकार्डों की आवश्यकता हुई। अपने पासवाले उपडाक घर में तलाश किया तो जवाबी पोस्टकार्ड तो दूर रहा, पचास पैसे वाले पोस्टकार्ड भी उपलब्ध नहीं थे। उन्होंने दूसरे उपडाक घर में तलाश किया। वहाँ भी नहीं मिले। वे मुख्य डाक घर पहुँचे। वहाँ 50 पैसे वाला पोस्टकार्ड तो मिल गया किन्तु जवाबी पोस्टकार्ड नहीं मिला। यह तो शुक्र है कि 50 पैसेवाले दो पोस्टकार्डों को ‘एक जान’ करने को डाक विभाग जवाबी पोस्ट कार्ड मान लेता है। किन्तु ‘कानून पालन करने में अद्भुत दृढ़ता दिखानेवाली व्यवस्था’ यदि ‘जवाबी पोस्ट कार्ड याने जवाबी पोस्ट कार्ड’ पर ही अड़ जाती तो करमरकरजी का काम पता नहीं कितने दिनों (यहाँ ‘महीनों’ या ‘वर्षों’ भी लिखना पड़ सकता है) तक रुक जाता? इससे भी आगे बढ़कर मैं तो करमरकरजी को भाग्यवान मानता हूँ कि कर्मचारी ने ‘पोस्टकार्ड तो नहीं हैं, सोना है। सोना खरीद लीजिए।’ जैसा नेक परामर्श नहीं दिया।

डाक विभाग का कानून है कि स्पीड पोस्ट से भेजा गया पत्र यदि निर्धारित अवधि में सामनेवाले को वितरित नहीं हो पाता है तो भेजनेवाले से लिया गया शुल्क, भेजनेवाले को लौटा दिया जाता है। शेष भारत का तो पता नहीं किन्तु मेरे कस्बे रतलाम में यह शुल्क वापस लेना याने पुनर्जन्म लेने से कम नहीं है। यह मेरे जीवन की ऐतिहासिक और उल्लेखनीय उपलब्धि है कि मैं दो बार ऐसा शुल्क वापस ले चुका हूँ किन्तु जुलाई वाले दो मामलों में लगता है, मेरी तीसरी पीढ़ी को भी यह रकम मिल जाए तो बड़ी बात होगी।

जलजजी भी इसी ‘उदारता’ के शिकार बने बैठे हैं। स्पीड पोस्ट से भेजे गए ऐसे ही एक पत्र की शुल्क वापसी के लिए उन्होंने जून में कार्रवाई शुरु की थी। गए दिनों उन्हें ‘प्रसन्नतापूर्वक सूचित किया गया’ है कि उनकी शुल्क वापसी स्वीकार कर ली गई है। देखना यह है कि जलजजी को अपनी रकम वापस कब मिल पाती है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि 25 रुपयों की अपनी ‘विशाल रकम’ प्राप्त करने के लिए, हृदयाघात झेल चुके और इसका उपचार ले रहे जलजजी को 78 वर्ष की आयु में दो बार, तीसरी मंजिल तक की सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ीं। सुविधाओं से सुसज्जित अपने ‘चेम्बर’में बैठे अधिकारियों की आत्मा शायद मर गई है अन्यथा वे कैसे भूल गए कि वे अपने उपभोक्ताओं की समस्याओं के निदान हेतु बैठाए गए हैं, उन पर ‘राज‘ करने के लिए नहीं?

क्या यह मान लिया जाए कि उत्कृष्ट ग्राहक सेवाओं के ‘अहर्निशं सेवामहे’ का उद्घोष

करनेवाले, कीर्तिमानी विभाग के अधिकारी अमानवीय, क्रूर और सम्वेदनाओं से परे, यन्त्र मात्र बन कर रह गए हैं?

ऐसा कहीं और हुआ हो तो बताइएगा



डाक के डिब्बे में पत्र डालने के तीसरे ही दिन, भारत के किसी भी कोने में पत्र पहुँचा देना, किसी जमाने में भारतीय डाक विभाग की पहचान हुआ करता था। आज की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है।किन्तु यहाँ जो उदाहरण प्रस्तुत है, वह दुनिया में अब तक तो कहीं भी देखने को नहीं मिला है और लगता नहीं कि कभी देखने को मिलेगा भी।



नष्टप्रायः हो चुकी हमारी डाक सेवाओं को लेकर मैं एक पोस्ट की तैयारी कर ही रहा था कि आदरणीय डॉक्टर जयकुमारजी जलज ने मुझे फोन कर एक सूचना दी। मेरी पोस्ट जल्दी ही प्रस्तुत करूँगा किन्तु पहले जलजजी की सूचना।



डाक विभाग की कार्यकुशलता का विचित्र उदाहरण। इस चित्र को ध्‍यान से दखिए। यह पत्र परसों, 22 दिसम्‍बर को प्रात: 10.58 पर कोटा (राजस्‍थान) भेजने के लिए रतलाम मुख्‍य डाकघर को सौंपा गया था। यहॉं दिए ट्रेकिंग ब्‍यौरे के मुताबिक यह पत्र रतलाम से इन्‍दौर, मुम्‍बई, जयपुर होते हुए 24 दिसम्‍बर को दोपहर 13.47 पर कोटा के लिए भेज दिया गया किन्‍त इस समय, जबकि 24 दिसम्‍बर की रात के साढे आठ भी नहीं बजे हैं, यही पत्र जयपुर में, आज आधी रात को 1.26 बजे इस पत्र वाला डाक का थैला प्राप्‍त कर खोल लिया गया है और पत्र जयपुर डाक घर में प्राप्‍त कर लिया गया है। चित्र के बॉंये कोने के शीर्ष पर, यह ब्‍यौरा छापने का दिनांक 24 दिसम्‍बर 2011 साफ देखा जा सकता है।



कहने को और क्या बाकी रह जाता है!

तीसरा वर

असम्मान का बीज: सम्मान की फसल शीर्षक मेरी पोस्ट, साप्ताहिक ‘उपग्रह’ में मेरे स्तम्भ ‘बिना विचारे’ में छपी तो आलेख पर, फोन पर मिली प्रशंसाभरी प्रतिक्रयाओं और टिप्पणियों ने मुझे बौरा दिया। यह मेरे लिए सर्वथा अकल्पनीय था। मुझे लगता रहा है कि भाई लोग पढ़कर, अखबार को चुपचाप एक ओर रख देते हैं, कहते-लिखते कुछ नहीं। किन्तु ‘कहने’ के मामले में, कृपालुओं ने मेरी यह धारणा इस बार तो ध्वस्त ही कर दी।


सब तो उल्लेखनीय है ही किन्तु इससे अधिक उल्लेखनीय यह है कि अधिकांश ने कहा/चाहा कि प्रचारार्थ किए जानेवाले, प्रदर्शनभरे ‘ऐसे सेवा कार्यों’ को लेकर मेरे पास यदि और कुछ हो तो मैं वह भी प्रस्तुत करूँ। इसका सीधा-सीधा एकमेव सन्देश यही है कि हममें से अधिकांश लोग, अमानवीय और गरीब तथा गरीबों का अपमान करनेवाले ऐसे आयोजनों को पसन्द नहीं करते।

चूँकि बात मेरी मानसिकता को समर्थन मिलने की है, इसलिए मैं एक संस्मरण प्रस्तुत कर रहा हूँ जो मेरे पहलेवाले आलेख को या तो पोंछ कर रख देगा या उसकी सान्द्रता बढ़ा देगा।


बात 1977 से 1980 के बीच की है। अन्तरराष्ट्रीय स्तर के एक सेवा संगठन ने अपना जिला अधिवेशन आयोजित किया था। तब, उस संगठन के जिले में तीन राज्य (मध्यप्रदेश, गुजरात और राजस्थान) शामिल हुआ करते थे। स्वर्गीय शिवमंगलसिंहजी ‘सुमन’ मुख्य अतिथि थे। सभागार खचाखच भरा हुआ था। कुर्सियों से बची खाली जगह पर भी लोग खड़ हुए थे।


कार्रवाई शुरु हुई और जैसा कि उस संगठन की परम्परा थी, कोई डेड़ घण्टे तक विभिन्न औपचारिकताएँ पूरी की गईं। इन्हीं में से एक थी - सुमनजी के हाथों, विकलांगों को पहियेदार कुर्सियाँ देना। जब भी किसी को ऐसी कुर्सी दी गई, तब प्रत्येक बार, उस कुर्सी के दानदाता का नाम उल्लेखित किया गया और विकलांग को वह कुर्सी सौंपते समय, चित्र खिंचवाने के लिए, सुमनजी और अन्य मंचासीन लोगों के साथ उस दानदाता को भी बुलवाया गया।


ऐसी सारी नीरस औपचारिकताएँ पूरी होने के बाद जब, उद्बोधन हेतु सुमनजी को आमन्त्रित किया गया तो स्वागत में बजी तालियों की गड़गड़ाहट के बाद सभागार में नीरव शान्ति व्याप्त हो गई - इतनी कि लोगों की साँसों की आवाजें साफ-साफ सुनी जा सकती थीं। सुमनजी के वक्तृत्व पर कोई टिप्पणी करना याने अपनी मूर्खता जताना होगा। फिर भी खुद को रोक पाना मेरे लिए सम्भव नहीं हो रहा। सुमनजी को जिसने भी सुना है वह इस बात से सहमत होगा कि सुमनजी अपने श्रोताओं को अपने साथ बहा ले जाते थे। वास्तविकता क्या होती थी, यह या तो सुमनजी जानें या भगवान किन्तु लगता था कि सुमनजी खुद को विसर्जित कर बोल रहे हैं। लगता था, वे शरीर नहीं, वाणी हो गए हैं और उनका रोम-रोम बोल रहा है। अपनी दोनों बाहें फैलाकर, अपनी गर्दन को जुम्बिश देकर, ललाट पर आई लट को झटक कर, अनन्त आकाश में देखते हुए जब वे अपनी कविता पंक्ति ‘जरा मशाल जलाओ, बड़ा अँधेरा है’ उच्चारते तो लगता, वे अपने श्रोताओं को सम्बोधित नहीं कर रहे, देवताओं को आदेश दे रहे हैं।


सुमनजी माइक पर आए। आयोजकों के प्रति सम्मान प्रकटीकरण का शिष्टाचार निभाया और बोले कि आने से पहले वे काफी कुछ सोच कर, तय करके आए थे कि यह बोलेंगे, वह बोलेंगे। किन्तु कार्रवाई और औपचारिकताओं को देखकर उन्हें एक किस्सा याद आ गया जिसे सबसे पहले सुनाना अब वे जरूरी समझ रहे हैं। किस्सा कुछ इस तरह था -


एक व्यक्ति को अतिसमृद्धि से वैराग्य हो गया और सब कुछ छोड़-छाड़कर वह जंगल में जाकर ईश्वर आराधना करने लगा। अपने स्मरण से प्रसन्न होकर भगवान उसके सामने साक्षात् प्रकट हो गए और कहा - ‘मैं तेरी भक्ति से प्रसन्न हूँ। माँग, जो कुछ तू माँगना चाहता है।’ ईश्वर को सामने देख कर वह व्यक्ति तो गद्गद हो गया। उसकी वाणी रुद्ध हो गई और प्रेमाश्रु बहने लगे। ईश्वर को अपलक निहारते हुए, रुँधे कण्ठ से बोला - ‘प्रभु! आपका दिया सब कुछ तो था मेरे पास! वह सब छोड़कर ही तो आपकी शरण में आया हूँ! मुझे तो कुछ भी नहीं चाहिए। और अब तो आपके साक्षात् दर्शन हो गए! अब और क्या चाहिए?’ ईश्वर उससे सहमत नहीं हुए और कहा कि उनकी तो पहचान ही यही है कि वे भक्तों पर प्रसन्न होकर उन्हें वर देते हैं। इसलिए, वह चाहे जो वर माँग ले। भक्त ने फिर से इंकार कर दिया। स्थिति यह हो गई कि इधर ईश्वर वर देने पर अड़े हुए और भक्त इंकार पर। अन्ततः ईश्वर ने कहा - ‘तू भले ही मत माँग। मैं अपनी ओर से तुझे दो वर देता हूँ। पहला वर यह कि जिस बीमार पर तेरी छाया पड़ेगी वह स्वस्थ हो जाएगा और दूसरा वर यह कि जिस मृत व्यक्ति को तू छू लेगा, वह जी उठेगा।’

वर देकर ईश्वर जाने लगे तो भक्त ने कहा - ‘मेरे माँगे बिना आपने दो वर दे दिए तो अब मुझे तीसरा वर चाहिए।’ ईश्वर ने हैरत से उसे देखा। बोले - ‘तू विचित्र आदमी है! जब मैंने कहा तब तो इंकार कर दिया और अब तीसरा वर माँग रहा है? कोई बात नहीं। बता। तू कौनसा वर चाहता है?’ व्यक्ति ने कहा - ‘प्रभु! आपके दिए वरदानों के प्रभाव से यदि मेरे हाथों से वैसा ही हो जाए जैसा कि आपने कहा है, तो मुझे तीसरा वर यह दीजिए कि ऐसा किया हुआ मुझे याद न रहे।’ सुनकर प्रभु परम् प्रसन्न हुए और ‘तथास्तु’ कह कर अन्तर्ध्यान हो गए।


किस्सा सुना कर सुमनजी तनिक रुके। सभागार में बैठे/खड़े श्रोताओं पर भरपूर नजर डाली और तनिक व्यथित किन्तु धीर-गम्भीर स्वरों में बोले - ‘हे! समाज सेवकों!! आप तीसरा वर कब माँगेंगे?’ सुमनजी की बात समाप्त होते ही तालियों की गड़गड़ाहट ऐसी हुई, लगा कि सभागार की दीवारें भरभरा कर गिर पड़ेंगी और सुमनजी का सवाल, सैलाब बन कर पूरी बस्ती को अपने साथ बहा ले जाएगा। तालियाँ बजाने में वे भी शरीक थे जो दान का बखान कर रहे थे, करवा रहे थे और विकलांगों के साथ फोटू खिंचवा रहे थे।


मैं इस घटना का प्रत्यक्षदर्शी था। सुमनजी के सवाल ने (और उससे अधिक उनकी वाणी में व्याप्त व्यथा ने) मुझे लील लिया था। बैठ पाना मेरे लिए सम्भव नहीं रह गया था। अपने कुर्ते की बाँहों से अपनी आँखें पोंछता हुआ मैं बाहर चला आया। मुझे नहीं पता, उसके बाद आगे क्या हुआ।

बदनाम होने की अद्भुत निर्दोष (?) कामना

भारतीय जीवन बीमा निगम के अभिकर्ताओं के एकमात्र राष्ट्रीय संगठन ‘लियाफी’ (लाइफ इंश्योरेंस एजेण्ट्स फेडरेशन ऑफ इण्डिया) की एक महत्वपूर्ण बैठक में भाग लेने हेतु, रविवार 18 दिसम्बर को मैं जयपुर में था। वहीं मेरी भेंट श्री राधेश्यामजी श्रीवास्तव से हुई। उनसे मेरी यह पहली ही परिचय-भेंट थी। बातों ही बातों में उन्होंने ऐसी कथा सुनाई जिसकी भूमिका बनाने का मेरा प्रत्येक प्रयास असफल हो गया है। इसलिए सारी बात इन्हीं से सुनिए -


‘‘मेरा नाम राधेश्याम श्रीवास्तव है। इस समय मेरी आयु 71 वर्ष है। जब मैं आठवीं कक्षा में था तब, तेरह वर्ष की आयु में मैंने ‘पटवारी परीक्षा’ पास कर ली थी। किन्तु नाबालिग होने के कारण नौकरी नहीं मिल सकती थी। मुझे नौकरी मिली 1964 में। मैं राजस्व विभाग में नौकरी चाहता था किन्तु मिली सिंचाई विभाग में। नौकरी पक्की होते ही मैंने मेरी नौकरी राजस्व विभाग में स्थानान्तरण हेतु आवेदन दे दिया। किन्तु सुनवाई नहीं हुई। मैं बराबर कोशिशें करता रहा। आखिरकार ग्यारह बरस बाद, राज्यपाल के हस्तक्षेप से मुझे राजस्व विभाग में स्थानान्तरित तो कर दिया गया किन्तु विभाग मुझे रीलीव करने में टालमटूली करने लगा। उस जमाने में ग्यारह बरसों का अनुभव मायने रखता था। सो, सिंचाई विभाग मुझे छोड़ने को तैयार नहीं था। मैं कलेक्टर साहब की शरण में गया। शायद मेरी सीधी-सपाट बातों ने कलेक्टर साहब को प्रभावित किया। उन्होंने भूख हड़ताल पर बैठने की सलाह दी। मैं घबरा गया और कहा कि मैं भूख हड़ताल पर बैठ तो जाऊँगा किन्तु कहीं ऐसा न हो कि आप ही मुझे गिरफ्तार करवा दें। कलेक्टर साहब ने वादा किया कि वे मेरा काम भले ही न कर पाएँ किन्तु मुझे गिरफ्तार नहीं करेंगे। रामजी का नाम लेकर मैं भूख हड़ताल पर बैठ गया। कलेक्टर साहब ने हर घण्ट में सिंचाई विभाग के अफसरों से पूछताछ करनी शुरु कर दी। अन्ततः आठ घण्टों की भूख हड़ताल के बाद मुझे रीलीव कर दिया गया।

‘‘अब मैं राजस्व विभाग का कर्मचारी था। चूँकि मैं पटवारी परीक्षा पास था, इसलिए मुझे पटवारी बना कर एक हलके का प्रभार सौंप दिया गया। अपनी मुराद पूरी होने से उपजी प्रसन्नता से लबालब होकर मैं उत्साहपूर्वक ‘हलका पटवारी’ के काम पर लग गया।


‘‘पटवारियों की ‘ऊपरी आय’ के बारे में मैंने काफी कुछ सुना था किन्तु मेरा अनुभव तो कुछ और ही कह रहा था! जल्दी ही मुझे समझ में आ गया कि मेरा हलका वैसा नहीं है जो मुझे मेरे पटवारी होने की अनुभूति करा सके। मैंने कलेक्टर साहब को अन्तरदेशीय पत्र लिखा कि जिन बातों के लिए कोई पटवारी पहचाना जाता है और बदनाम होता है, मैं भी उसी तरह पहचाना और बदनाम होना चाहता हूँ ताकि अपने बच्चों को ढंग से पालपोस सकूँ और पढ़ा सकूँ।

‘‘उन दिनों आज जैसी दुर्दशा नहीं थी। कोई भी पत्र तीन दिनों में देश के किसी भी कोने में पहुँच जाया करता था। चौथे ही दिन मुझे कलेक्टर साहब के सामने हाजिर होने का फरमान मिला। मैं हाजिर हुआ। कलेक्टर साहब ने मेरा लिखा अन्तरदेशीय पत्र मुझे दिखाकर पूछा कि वह पत्र मैंने ही लिखा है या किसी और ने? मेरे हाँ भरने पर कलेक्टर साहब ने कहा - ‘जानते हो! इस पत्र के कारण तुम बर्खास्त किए जा सकते हो!’ मैंने कहा कि इसका अंजाम मैं जानता हूँ लेकिन बर्खास्त होने पर भी मुझे कोई विशेष फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि मैं तो अभी भी बर्खास्त जैसी ही स्थिति में हूँ। मेरी सीधी-सपाट बात पर कलेक्टर साहब इस बार भी पसीज गए। भू अभिलेख विभाग के अधीक्षक (सुपरिटेण्डेण्ट, लेण्ड रेकार्ड्स) को बुलाकर कहा कि मुझे किसी, ढंग के पटवारी हलके में ट्रांसफर कर दें। उन्होंने एक खाली हलके का नाम बताया और कहा कि उस हलके में तैनाती के लिए पटवारियों में बोली लगती है। कलेक्टर साहब ने कहा कि मुझे उसी हलके का पटवारी बना दिया जाए।


‘‘मुझे ‘उसी’ हलके का पटवारी बना दिया गया। मैंने कलेक्टर साहब को धन्यवाद दिया। नए हलके का चार्ज लिया और काम में लग गया। यह हलका पहलेवाले हलके से एकदम उलटा था। पहलेवाले में कोई गुंजाइश ही नहीं थी जबकि इसवाले में मुझे कहने की भी जरूरत नहीं पड़ती थी। मेरे कुछ कहे बिना ही मेरी जरूरतें पूरी हो जाती थीं। यह देखकर मैंने निर्णय लिया कि मैं अपनी ओर से किसी से कुछ नहीं माँगूँगा।

‘‘उस हलके में रहते हुए मैं अपने इस निर्णय पर कायम रहा। कलेक्टर साहब बीच-बीच में जब भी दौरे पर आते तो पूछताछ करते और मेरी स्थिति देखकर कहते कि गलत आदमी को ऐसे हलके में तैनात कर दिया। किन्तु वे इस बात पर बहुत प्रसन्न थे कि मेरे हलके से एक भी शिकायत उनके सामने नहीं पहुँची।


‘‘मैंने अपनी बाकी नौकरी उसी हलके में काम करते हुए पूरी की। वहीं से सेवा निवृत्त हुआ। किन्तु पूरे सेवाकाल में मेरी एक भी शिकायत नहीं हुई। हाँ, मेरे तमाम साथी पटवारी मुझ पर हँसते रहे कि मैंने मौके का फायदा नहीं उठाया। सेवा निवृत्ति के बाद जब अपने घर लौटा तो मेरे सामान में ऐसा कुछ भी नहीं था जिसे देखकर कोई कह पाता कि यह किसी रिटायर्ड पटवारी का सामान है।


‘‘यह ‘उन’ कलेक्टर साहब की कृपा और ‘उस’ हलके के निवासियों की शुभ-कामनाओं का ही प्रताप रहा कि मैंने अपने बच्चों को ढंग-ढांग से पढ़ा पाया। बेटी की शादी बिना किसी विघ्न के सम्पन्न हो गई। दोनों बेटे पढ़-लिख कर ऐसे हो गए हैं कि प्रतिष्ठापूर्वक कमा-खा रहे हैं। ‘‘मैं, मेरी सहचरी और बेटे-बहू-पोते के साथ, सुखपर्वूक सेवा निवृत्त जीवन जी रहा हूँ।’’


राधेश्यामजी की कथा सुनकर मुझे सूझ ही नहीं पड़ा कि मैं क्या कहूँ। कभी जोर से हँसी आ रही थी तो कभी अचानक ही गम्भीर हुआ जा रहा था। मैंने पूछा - ‘आपके घरवालों को पता है यह सब?’ निर्विकार भाव से राधेश्यामजी बोले - ‘सबको पता है और खूब अच्छी तरह पता है। एक बार नहीं, कई बार सुना चुका हूँ यह सब मैं अपने घरवालों को।’


सुनकर मैंने घर के सब लोगों को देखा। किसी का ध्यान हमारी ओर नहीं था। ‘सुनी-सुनाई और ‘घिसी-पिटी’ इस कहानी में किसी को कोई दिलचस्पी नहीं थी। सब सामान्य और सहज रूप से अपना-अपना काम कर रहे थे। बस! एक मैं ही था जिसका मुँह अचरज से खुला हुआ था।

असम्मान का बीज: सम्मान की फसल

‘वे’ अप्रसन्न और खिन्न होकर ही नहीं, मुझ पर कुपित होकर भी गए। जाते-जाते उलाहना दे गए - ‘लोग तो मौके तलाशते हैं और एक आप हैं कि मैं आपका फोटू छपवाने का मौका लेकर आया हूँ और आप मुझे मना कर, बेरंग लौटा रहे हैं।’

वे एक संस्था चलाते हैं। कुछ न कुछ उठापटक, कोई न कोई आयोजन कर, अखबारों में बने रहने के प्रयत्न करते रहते हैं और अपनी मनोकामना पूरी करने में सफल भी होते हैं। इस बार वे गरीब छात्रों को किताबें और शाला के गणवेश दान करने के लिए आयोजित समारोह में मुझे मुख्य अतिथि बनाना चाहते थे। मैंने पहली ही बार में मना कर दिया।

ऐसे आयोजन मुझे नहीं सुहाते। गरीब और गरीबी का अपमान लगते हैं मुझे ऐसे आयोजन। लोगों के जमावड़े के बीच किसी बच्चे को मंच पर बुलाकर उसे किताबें/कपड़े (या ऐसा ही कोई ‘दान’) देना मुझे क्षुब्ध कर देता है। ऐसे क्षणों में मुझे हर बार लगता है कि हम उस बच्चे को न केवल उसकी गरीबी अनुभव कराते हैं अपितु उसके समुचित लालन-पालन-शिक्षण के लिए उसके पिता-माता की अक्षमता भी उसे अनुभव कराते हैं। इसका सुनिश्चित परिणाम होता है - उस बच्चे में आजीवन हीनता बोध रोप देना। मेरा बस चले तो मैं ऐसे आयोजनों को ‘दण्डनीय अपराध’ बना दूँ। किन्तु भगवान गंजे को नाखून नहीं देता। लेकिन मेरा नियन्त्रण तो मुझ पर है ही। इसलिए ऐसे आयोजनों के निमन्त्रणों को, पूरी बात सुने बिना ही अस्वीकार कर देता हूँ। इसके बाद भी, एक-दो अवसर ऐसे आए जहाँ मुझे संकोचग्रस्त होकर जाना पड़ा। उनकी ग्लानि अब तक बनी हुई है।

क्या ऐसा नहीं किया जा सकता कि जिन बच्चों की सहायता की जानी है, उनके विद्यालयों के प्रमुखों को सामग्री सौंप दी जाए? या, ऐसे बच्चों के घर जाकर उन्हें या उनके माता-पिता को सामग्री दे दी जाए? ऐसा ‘दान’ करने में वास्तविक सेवा भाव तो होता ही होगा किन्तु इसमें तो तनिक भी संशय नहीं कि प्रदर्शन और प्रचार भाव भरपूर रहता है। मेरे बताए उपायों में आयोजन के प्रदर्शन का घाटा भले ही उठाना पड़ेगा किन्तु विद्यालय प्रमुख को या बच्चे के पालकों को सामग्री सौंपने के चित्र अवश्य खिंचवाए जा सकते हैं और अखबारों को भेजे जा सकते हैं।

इसी तरह, शासकीय चिकित्सालयों में भर्ती रोगियों को फल-बिस्किट वितरित करने का उपक्रम भी मुझे समझ नहीं आता। रोगी के या उसके परिचारक के हाथों में एक केला और बिस्किट का एक पेकेट देते हुए, पाँच-सात लोगों के फोटू जब अखबारों में देखता हूँ तो तनिक विचित्र लगता है। दो-तीन रुपयों की सामग्री और फोटू कम से कम पाँच रुपयों का! यह तब और अधिक अखरता है जब किसी लेटे हुए रोगी के पेट या छाती पर केला-बिस्किट रख कर फोटू खिंचवाए जाते हैं। मुझे तो इस बात पर भी आश्चर्य होता है कि चिकित्सालय के प्रभारी/प्रशासकीय अधिकारी/चिकित्सक को ऐसे उपक्रमों पर आपत्त् क्यों नहीं होती? इस तरह बाँटी गई सामग्री यदि विषाक्त अथवा प्रदूषित हुई और कभी किसी रोगी पर उसका घातक/प्राणलेवा प्रभाव हो गया तो कौन जवाबदार होगा? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि रोगियों को वितरित की जानेवाली ऐसी सामग्री चिकित्सालय के प्रभारी/प्रशासकीय अधिकारी/चिकित्सक को सौंप दी जाए और इसी क्षण का फोटू खिंचवा कर छपवा लिया जाए? इसी के समानान्तर यह सवाल भी मेरे मन में कौंधता है कि ऐसी ‘सेवा’ के लिए केवल शासकीय चिकित्सालय ही क्यों चुने जाते है? निजी चिकित्सालयों में भी तो गरीब रोगी भर्ती रहते हैं! उनकी ‘सेवा’ करने का विचार क्यों किसी को नहीं आता?

अत्यधिक अनिच्छापूर्वक मैं यह तर्क स्वीकार कर लेता हूँ कि ऐसे आयोजनों/उपक्रमों के प्रदर्शन/प्रचार से लोगों को ‘सेवा’ करने की प्ररणा मिलती है। किन्तु इसका अर्थ यह तो कदापि नहीं होता कि इसके लिए किसी को उसकी असहायता, अक्षमता, निर्धनता का सार्वजनिक बोध कराया जाए। ‘सेवा’ में यदि ‘सम्मान भाव’ नहीं है तो वह ‘सेवा’ अपना अर्थ खोकर ‘असम्मान‘ और ‘सार्वजनिक उपहास’ में बदल जाती है। यह तब और अधिक आपत्तिजनक हो जाता है जब हम अपना सम्मान बढ़ाने के लिए किसी का ऐसा, यन्त्रणादायक असम्मान करें। हम कहावतें और मुहावरे खूब वापरते हैं। कहते हैं कि दूसरों के साथ हम वैसा ही व्यवहार करें जैसा अपने साथ चाहते हैं। कहते हैं कि हम जैसा बोएँगे, वैसा ही काटेंगे। ऐसे में भला, किसी का असम्मान (वह भी सार्वजनिक/सामाजिक रूप से) कर हम खुद के लिए कैसे सम्मान प्राप्त कर सकते हैं? असम्मान बोकर सम्मान की फसल कैसे काटी जा सकती है?

‘दान’ की बात जब-जब भी आती है तब-तब हमें परामर्श दिया जाता है कि दान इस तरह किया जाना चाहिए कि दाहिना हाथ दे तो बाँये हाथ को मालूम न पड़े। दान का बखान, दान की महिमा और महत्‍व नष्ट करता है। दान यदि अपना मूल सरोकार और चरित्र खो दे तो वह अन्याय से आगे बढ़कर अत्याचार बन जाता है। अपने जीवन के शुरुआती कुछ वर्षों तक मैंने, घर-घर जाकर, ‘रामजीऽ ऽ ऽ ऽ की जय’ की हाँक लगा-लगा कर मुट्ठी-मुट्ठी आटे की भीख माँगी है। ऐसे आयोजनों में जब-जब भी किसी बच्चे को किताबें, कपड़े या और कोई सामग्री लेने के लिए हाथ बढ़ाते देखता हूँ तो मुझे वह बच्चा नहीं, मुट्ठी भर आटा लेने के लिए अपना लोटा बढ़ाते हुए खड़ा मैं ही दिखाई देता है मुझे।

सम्भव है, आत्मपरकता के आवेग के अधीन मेरी बातें ‘अपवाद’ या ‘अशियोक्ति’ लगे। किन्तु मुझे यह कहने से मत रोकिए कि ‘दान’ या ‘सेवा’ का आधार ‘मानवीयता’ और ‘सामनेवाले का सम्मान’ तो होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो वह अत्याचार के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।


‘वे’ मुझसे अप्रसन्न, खिन्न और कुपित होकर लौटे इस बात का मुझे दुःख अवश्य है किन्तु अपने निर्णय पर मुझे रंचमात्र भी खेद नहीं है।

‘गाड़ी ने लाड़ी देवा की नी वे’


‘लोक‘ जब बोलता है तो ‘गागर में सागर‘ भर देता है। दो पन्नों की बात दो शब्दों में बखान देता है। पर्दा बने रहने देता है और पर्दे के पीछे का सच उजागर कर देता है। कुछ इस तरह से बोलता है कि शरम बनी रह जाए और भरम टूट जाए।

मेरी बड़ी बहन गीता जीजी के निधनोपरान्त की उत्तरक्रियाओं का अन्तिम सोपान पूरा करने के लिए हम लोग, एक बार फिर, 7 दिसम्बर को निकुम्भ (जिला चित्तौड़गढ़, राजस्थान) में इकट्ठा थे। इस बार न केवल पूरा कुनबा अपितु हार-व्यवहार के लोग भी पहुँचे थे। अच्छा-खासा जमावड़ा था। ऐसे कई लोग थे जिन्हें मैं बरसों बाद देख रहा था। इन्हीं में एक था - बद्री दादा। मेरी मौसी का बेटा। वह, मन्दसौर जिले की गरोठ तहसील के गाँव चचावदा से आया था। ढाई-तीन सौ किलोमीटर की यह यात्रा उसने मोटर सायकिल से की थी। बरसों के अन्तराल ने हमें फौरन ही सहज नहीं होने दिया। लेकिन बहुत अधिक देर भी नहीं लगी। जल्दी ही हम दोनों ‘अपनीवाली’ पर आ गए। रतलाम से हम दोनों पति-पत्नी ही चले थे किन्तु नीमच से मेरा कक्षापाठी अर्जुन पंजाबी भी मिल गया - निर्धारित कार्यक्रमानुसार। एक दिन पहले ही उससे बात हो गई थी। बद्री दादा और हमारी बातों की दिशा मानो वही तय कर रहा था।

बातें चल ही रही थीं कि मेरा ध्यान बद्री दादा की फटफटी (मालवा के देहातों में मोटर सायकिल को अभी भी फटफटी कहा जाता है-यह जानकर मुझे आश्चर्य तो हुआ किन्तु अच्छा भी लगा) की तरफ गया। फटफटी पर लगी डिकी पर लिखा था (जो आपने भी पढ़ ही लिया होगा) - ‘मुझे माँगने पर बात खाली जावेगी।’ मैंने पूछा - ‘अब तो घर-घर में फटफटी है। कौन माँगता होगा जो आपको यह लिखवाने की जरूरत पड़ गई?’ मैंने सवाल मालवी में किया था सो जवाब भी मालवी में ही मिला - ‘माँगे तो कोई नी पण कदी कोई माँगे तो मुँडा ती नी नटणो पड़े। हामेंवारो खुद ई वाँची ने हमजी जावे।’ याने माँगता तो कोई नहीं किन्तु यदि कभी कोई माँगे तो मुझे इंकार करने की नौबत नहीं आती। माँगनेवाला पढ़कर खुद ही समझ जाता है। मैंने प्रति प्रश्न किया - ‘हामेंवारो भण्यो तको नी वे तो?’ याने सामनेवाला पढ़ा हुआ (शिक्षित) न हो तो? बद्री दादा तक पहुँचता उससे पहले ही अर्जुन ने मेरा सवाल बीच में ही लपक लिया। तनिक शरारत और दुष्टताभरी मुस्कुराहट से बोला - ‘हामेंवारो भण्योताके नी वेगा तो गण्योतको तो वेगा।’ अर्थात् सामनेवाला (फटफटी माँगनेवाला) पढ़ा हुआ (शिक्षित) भले ही नहीं होगा किन्तु ‘गुना हुआ’ (गुणी/समझदार) तो होगा। मैंने कहा - ‘मैं समझा नहीं।’

अर्जुन को शानदार मौका मिल गया मेरे मजे लेने का। मुझ पर तरस खाते हुए, बद्री दादा की तरफ देखता हुआ बोला - ‘‘यो विष्णु नी तो भण्यो तको हे ने नी गण्यो तको।’ याने - यह विष्णु न तो शिक्षित है न ही समझदार है। मुझे सचमुच में कुछ भी पल्ले नहीं पड़ा। बुड़बक या चिरकुट, ऐसी ही दशा में दोनों का मुँह देख रहा था। यह भी देख रहा था कि बरसों बाद मिला बद्री दादा भी मेरे मजे लेने में अर्जुन के साथ हो लिया था। अन्ततः, मानो मुझ पर ही नहीं, मेरी भावी पीढ़ियों पर भी उपकार कर रहा हो, कुछ इस तरह, बद्री दादा की तरफ देखते हुए अर्जुन बोला - ‘‘आक्खी दुनिया जाणे के ‘गाड़ी ने लाड़ी देवा की नी वे।’ जशी दो, पाछी, वशी की वशी नी मले। फरक पड़ी जा। पण या वात अणी विष्णु ने नी मालम।’ अर्थात् - सारी दुनिया जानती है कि ‘गाड़ी और लाड़ी (अर्थात् पत्नी) देने की नहीं होती। क्योंकि यदि दे दी तो जैसी दी थी, वैसी की वैसी वापस नहीं मिलती। दोनों की दशा में अन्तर आ जाता है। किन्तु यह बात इस विष्णु को नहीं मालूम।

बात तो हो रही थी हम तीनों में किन्तु तीनों तक सीमित नहीं थी। वे भी सुन रहे थे जो बातों में भाग नहीं ले रहे थे। सो, अर्जुन की बात सुनकर केवल बद्री दादा नहीं हँसा। आसपास बैठे कई लोग भी हँसे। बस, झेंपनेवाला मैं अकेला था।


इसके बाद कहने को क्या बाकी रह गया था?

गर्भपात की सम्भावना

पहले तो मैं चौंका। फिर, थोड़ा गुस्सा आया। किन्तु अन्ततः मैं मुस्कुरा कर रह गया। लेकिन मेरी मुस्कुराहट छुप नहीं सकी। ‘उन्होंने’ तनिक खिन्न होकर पूछा - ‘हम तो यहाँ परेशान हुए जा रहे हैं और आप मुस्कुरा रहे हैं! क्या बात है?’ सुनकर मेरी मुस्कुराहट एक बार फिर उभर आई। मैंने कहा - ‘आपकी परेशानी में मैं भी शरीक हूँ किन्तु बात ही कुछ ऐसी हो गई कि मुस्कुराहट रोक नहीं पाया। आप अन्यथा न लें और मुझे क्षमा कर दें।’

हम चार लोग एक निजी अस्पताल के प्रतीक्षालय में बैठे थे। ‘उनकी’ गर्भवती बहू भर्ती थी। उसे सातवाँ महीना चल रहा था। वह अचानक ही पलंग से गिर पड़ी। फौरन अस्पताल लाया गया। मुझे खबर मिली तो मैं भी पहुँच गया। ‘वे‘ चिन्तित और व्याकुल थे। मैंने हालचाल जानना चाहा तो बोले - ‘अभी-अभी अस्पताल आए हैं। डॉक्टर देख रही हैं। वे बाहर आएँ तो कुछ मालूम पड़े।’

ऐसे समय पल-पल भारी पड़ता है। प्रतीक्षा प्राणलेवा हो जाती है। समय काटे नहीं

कटता। हम चारों भी चुप थे - एम दूसरे को देखते हुए। बात करते भी तो क्या?
थोड़ी ही देर में डॉक्टर बाहर आईं और ‘उन्हें‘ अपने पीछे आने का इशारा करते हुए अपने परामर्श कक्ष में चली गईं। वे भागे-भागे डॉक्टर के साथ ही कमरे में घुसे। दो-ढाई मिनिटों में बाहर आए। चेहरे पर उलझन, चिन्ता, घबराहट, परेशानी। आँखों में दहशत। हम कुछ पूछते उससे पहले ही बोले - ‘गड़बड़ हो गई है। गर्भपात की सम्भावना लग रही है। डॉक्टर पूरी कोशिश करने की कह जरूर रही हैं लेकिन इशारों-इशारों में गर्भपात की सम्भावना बता रही हैं।’

यही सुनकर पहले तो मैं चौंका था फिर मुझे थोड़ा गुस्सा आया था और फिर मैं मुस्कुरा दिया था - भला ‘गर्भपात’ भी ‘सम्भावना’ हो सकता है?


इसमें ‘उनका‘ कोई दोष नहीं। जैसा वे पढ़ते-सुनते हैं, वैसा ही तो बोलते हैं! ऐसा बोलनेवाले वे अकेले नहीं हैं। भाषा के प्रति सामूहिक, सहज असावधानी के कारण ऐसा होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। अच्छे-भले, पढ़े-लिखे, समझदार लोग ही जब ऐसी असावधानी बरतते हों तो ‘वे‘ तो कम पढ़े-लिखे हैं! उन पर क्या गुस्सा करना?
मुझे याद आया, देश के तेरह राज्यों से चौंसठ संस्करण प्रकाशित करनेवाले, देश के सबसे बड़े समाचार पत्र समूह के दैनिक अखबार के स्थानीय संस्करण में, बहत्तर प्वाइण्ट टाइप में, चार कॉलम शीर्षक समाचार छपा था - ‘डाट की पुलिया पर दुर्घटना की सम्भावना।’ मेरे मित्र का पुत्र ही स्थानीय संस्करण का सम्पादक था। मेरे मित्र खुद तो हिन्दी में पी. एच-डी. हैं ही, उनके निर्देशन में दस-बीस बच्चे पी. एच-डी. कर चुके हैं। उनका सम्पादक बेटा भी हिन्दी में ही पी. एच-डी. है। शीर्षक पढ़कर मैंने उसे फोन लगाया और पूछा - ‘क्या अब दुर्घटना भी सम्भावना बन गई है?’ उसने अविलम्ब, तत्क्षण उत्तर दिया - ‘हाँ अंकल।’ मैंने प्रतिप्रश्न किया - ‘तो भाई मेरे! क्या शान्ति कायम होने की आशंका पैदा हो गई है?’ अब बात उसकी समझ में आई। उसने क्षमा याचना की और कहा - ‘अंकल! सच में मेरा ध्यान इस ओर गया ही नहीं। अब भूल नहीं होगी और आपको शिकायत का मौका नहीं मिलेगा।’

तो, जहाँ हिन्दी में पी. एचडी. उपाधिधारी सम्पादक दुर्घटना को सम्भावना मान ले वहाँ एक सामान्य व्यक्ति से क्या अपेक्षा और क्या शिकायत? भाषा संस्कार देना जिनकी आधारभूत जिम्मेदारी हो, जब वे ही सम्भावना और आशंका का अन्तर मिटा दें तो हिन्दी की ‘दशा’ की कल्पना आसानी से की जा सकती है।

यह सब लिखते-लिखते अचानक ही याद आया कि इसी अखबार ने एक पुस्तक समीक्षा में, अभी-अभी ही ‘युध्द’ को ‘भयानक सम्भावना’ बताया था जिसे मैंने फेस बुक के अपने पन्ने पर चिपकाया था। उसे, यहाँ भी प्रस्तुत कर रहा हूँ। खुद ही देख लीजिए और हिन्दी को बचाने के लिए युध्द की सम्भावना पर विचार कीजिए।

झील में तूफान

परम्परा को सहजता से रूढ़ि बना लेनेवाले समाज में बदलाव की छोटी सी हरकत भी बवण्डर खड़ा कर देती है। राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले के छोटे से गाँव निकुम्भ में ऐसा ही कुछ हो गया।

मेरी बड़ी बहन, गीता जीजी इसी निकुम्भ में रहती थी, अपने छोटे बेटे कोमलदास बैरागी के साथ। पश्चिम रेल्वे के निम्बाहेड़ा से उदयपुर जानेवाली सड़क पर, निम्बाहेड़ा से लगभग बाईस किलोमीटर दूर आता है निकुम्भ चौराहा। वहाँ से, मुख्य सड़क से कोई तीन किलोमीटर अन्दर की दूरी पर बसा हुआ है गाँव निकुम्भ। कोई बीस-पचीस हजार की बस्ती होगी।

गीता जीजी की उम्र 77 वर्ष थी। वह गम्भीर बीमार तो नहीं थी किन्तु कमर इतनी झुक गई थी कि, खड़े होकर अपने पैरों चल पाना तो दूर रहा, सीधे बैठना भी मुमकिन नहीं रह गया था। वह दोहरी होकर ही बैठी रहती थी। तेईस नवम्बर की सुबह कोई साढ़े तीन बजे उसका निधन हो गया। मेरे भानजे कोमल ने, दो घण्टे बाद, सुबह साढ़े पाँच बजे खबर दी। बताया कि ग्यारह बजे दाह संस्कार हेतु शव यात्रा शुरु होगी। हम दोनों पति-पत्नी सुबह सात बजे निकुम्भ के लिए निकल गए। दादा से बात हो गई थी। उन्हें, नीमच में हमारी प्रतीक्षा करनी थी किन्तु उनसे रुका नहीं गया। वे आठ बजे ही निकल पड़े। यह अलग बात रही कि निकुम्भ गाँव में जाने के बजाय, निकुम्भ चौराहे पर ही वे हमारी प्रतीक्षा करते रहे - कोई घण्टा-सवा घण्टा रुक कर।

निर्धारित समय पर शवयात्रा निकली। हम सब श्मशान पहुँचे। हम परिजन एक तरफ बैठ गए। अधिकांश लोग हमारे आसपास बैठे। कुछ लोग चिता तैयार करने में लग गए।

चिता को मुखाग्नि देने के फौरन बाद ‘केश-दान’ (मुण्डन) की प्रक्रिया शुरु हो गई। मेरे बड़े भानजे श्यामदास का मुण्डन सबसे पहले हुआ। उसके बाद नम्बर आया छोटे भानजे कोमलदास का। उसका मुण्डन होते ही कोमल के बड़े बेटे (याने मेरी जीजी के पोते) मनीष को बैठा दिया गया मुण्डन के लिए। यह देखते ही दादा ने हाँक लगा कर टोका - ‘अरे! यह क्या कर रहे हो? पोते का मुण्डन नहीं होता।’ इसके साथ ही उन्होंने मनीष को आदेशित किया - ‘बेटा मनीष! उठ। सर धो और कंघा कर।’ मनीष ने अविलम्ब आज्ञा पालन किया। इसके बाद मनीष के छोटे भाई (जीजी के छोटे पोते) सन्तोष का नम्बर आने का तो सवाल ही नहीं रह गया। दादा की हाँक और टोका-टोकी से नीरवता छा गई। किन्तु जल्दी ही भंग भी हो गई। कहा जाने लगा कि पोते का मुण्डन तो होता है।

वस्तुतः मालवा के हमारे वाले क्षेत्र में पोते का मुण्डन नहीं होता किन्तु निकुम्भ में पोते का मुण्डन होने की परम्परा है। दादा के सामने बोलने का साहस कोई नहीं कर सका किन्तु पीठ पीछे तो बातें होती ही हैं। सो, दाह संस्कारोपरान्त स्नान कर जब हम सब घर लौट रहे थे तो यही बात हो रही थी - गाँव की परम्परा तोड़ दी गई। अच्छा नहीं हुआ। ये तो अभी चले जाएँगे किन्तु गाँव का धर्म तो भ्रष्ट हो गया। दादा ने सहज भाव से टोका था किन्तु यह झील के ठहरे पानी में फेंका गया पहला कंकर था।

निधन के तीसरे दिन, पचीस नवम्बर को अमावस्या थी और अमावस्या को उठावना (अस्थि संचय/तीसरा) नहीं होता। सो, अगले ही दिन, चौबीस नवम्बर को उठावना करना पड़ा। नगरों/कस्बों में, कुछ जाति/समुदायों/समाजों में उठावने के साथ ही शोक निवारण का चलन शुरु हो गया है किन्तु मालवा-राजस्थान के सनातनी समाज में तो पूरे बारह-तेरह दिनों तक शोक रखा जाता है। मेरा भानजा कोमल, सिलाई का काम करता है और पुलिस थाने के सामने ही उसकी, सिलाई की दुकान है। उसके बड़ा बेटा मनीष वीडियोग्राफी का काम करता है। उसकी दुकान, गाँव से गुजरनेवाली, निकुम्भ-बड़ी सादड़ी सड़क पर है। दादा ने कहा कि शोकपालन भले ही बारह/तेरह दिन किया जाए किन्तु दोनों दुकानें, उठावने के बाद ही खोल दी जाएँ ताकि छुटपुट काम आए तो ग्राहकी रुके नहीं। यह नई बात थी। केवल उठावना करने की बात होती तो अस्थि संचय कर, स्नानोपरान्त घर लौटने से पहले, किसी मन्दिर के सामने रुक कर, सड़क से ही देव दर्शन कर लिए जाते। किन्तु दुकानें खुलवाने के लिए तो मन्दिर जाकर, मृतक के नाम से ‘सीधा’ (सूखी भोजन सामग्री) रखना और महिलाओं के लिए मन्दिर से तुलसी दल तथा चन्दन लाना जरूरी होता है। सो, हम सब, ‘सीधा‘ लेकर मन्दिर पहुँचे। पुजारीजी नहीं थे। उनकी पत्नी थीं। वे बहुत नाराज हुईं। उन्होंने मेरे भानजे कोमल को हम सबके सामने खूब डाँटा, कड़ी फटकार लगाई और ‘सीधे’ की थाली को अपने हाथों लेने से (वस्तुतः ‘छूने से भी’) इंकार कर मन्दिर में एक कोने में रखवा दिया। किन्तु बिना किसी ना-नुकर के, तुलसी-चन्दन अवश्य दे दिया। हम लोगों के मन्दिर प्रवेश के पहले ही क्षण से उसका कोसना शुरु हुआ था जो हमारे लौटने तक जारी था।

उठावने के साथ ही मन्दिर प्रवेश! निकुम्भ के सनातनी समाज में ऐसा पहली बार हुआ था। हमें पता ही नहीं था कि हमने झील के ठहरे पानी में यह दूसरी कंकरी फेंक दी थी।

पाँच दिसम्बर को गीता जीजी का तेरहवाँ होना चाहिए था। किन्तु दो दिसम्बर से पंचक लग रहा है। सो, अब सात दिसम्बर को तेरहवें की रस्म होगी। बूढ़ी मौत और वह भी पोतों/नातियों के कन्धों पर जानेवाली बूढ़ी मौत। गाँव की परम्परा के मुताबिक तो ऐसी मौत के प्रसंग पर ‘पाँचों पकवान’ बनने चाहिए और जश्न मनाया जाना चाहिए। किन्तु परिवार ने तय किया कि परिजनों/निमन्त्रितों के लिए ‘भोज’ तो हो किन्तु ‘मृत्यु भोज’ न हो। लिहाजा, उस दिन केवल सब्जी, पूरी और एक नमकीन (भजिये या फिर बेसन सेव) परोसा जाएगा, मिठाई या मिष्ठान्न नहीं बनेगा। ठहरे पानीवाली झील में यह तीसरी कंकरी है। कंकरियों से तो पानी में लहर उठना तो दूर रहा, हिलोर भी नहीं उठती। किन्तु बीस-पचीस हजार की आबादी वाली, ठहरे पानी वाली झील जैसी बस्ती में इन छोटी-छोटी तीन कंकरियों से तूफान आया हुआ है।

मेरा भानजा कोमल, निम्न मध्यवर्गीय है। किन्तु दादा के पीठ बल ने उसका हौसला बँधाया भी और बढ़ाया भी। लोगों की तकलीफ यह नहीं है कि कोमल ‘पाँच पकवान’ क्यों नहीं बना रहा है। उनकी तकलीफ (या कि सबसे बड़ी चिन्ता) यह है कि आनेवाले दिनों में यदि कोई ऐसा करेगा तो उसे कैसे टोका जा सकेगा, कैसे उसे रास्ते पर लाया जा सकेगा? तब वह पलट कर पूछेगा - ‘कोमलदास ने जब यह सब नहीं किया तब तो कोई नहीं बोला। अब मुझे क्यों मजबूर किया जा रहा है?’ लोगों को कहावत याद आ रही है - ‘डोकरी (बुढ़िया) मरी इसका गम नहीं। गम इस बात का है कि मौत ने घर देख लिया।’

ठहरे हुए पानी की झील में यही तूफान आया हुआ है इन दिनों।

‘ढ’ को लेकर परेशान ‘ज्ञ’

अपने गुरु के प्रति आदर और कृतज्ञता भाव प्रकट करने हेतु छात्रों द्वारा सम्मान समारोह आयोजित करना कोई विशेषता या अनूठी बात नहीं होती। किन्तु यदि छात्र समुदाय की आयु 60 से लेकर 70 वर्ष हो तो? और अपने गुरु के सम्मान समारोह में शामिल होने के लिए कलेक्टर, न्यायाधीश, व्यापारी-व्यवसायी, छुट्टियाँ लेकर, अपना काम छोड़ कर सैंकड़ों मील की यात्रा कर पहुँचें तो? तब तो यह न केवल ही अनूठी और विशेष घटना है अपितु जिज्ञासा भी जगाती है।

ऐसी ही घटना अभी-अभी, 11 अक्टूबर को मध्य प्रदेश के खण्डवा में घटी। नायक थे - मध्य प्रदेश के एक जिला मुख्यालय नीमच निवासी, सेवा निवृत्त प्रोफेसर रतनलालजी जैन। यह उनका अभिलेखीय और औपचारिक नाम है। घर में तथा अन्तरंग हलकों में वे ‘पारस’ के नाम से पहचाने और पुकारे जाते हैं। वे 42 वर्ष पूर्व खण्डवा के नीलकण्ठेश्वर महाविद्यालय में पढ़ाया करते थे। 1958 से 1969 तक के ग्यारह वर्षों में उन्होंने खुद को मानो खण्डवा की मिट्टी में विसर्जित कर दिया। कुछ इस तरह कि घरवाले भयभीत हो गए - ‘कहीं पारस घर से कट नहीं जाए।’ वैसे भी, खण्डवा-नारायणगढ़ की दूरी लगभग सवा चार सौ किलोमीटर है। सो, बड़े भाई ने जोड़-तोड़ कर उनका स्थानान्तर, नारायणगढ़ से कोई साठ किलोमीटर दूर, रामपुरा महाविद्यालय में कराया। ‘पारस’ के साथ बड़े भाई जब रेल में बैठने लगे तो अपने प्रिय प्राध्यापक को विदा करने, खण्डवा स्टेशन पर, हिचकियाँ लेते जमावड़े को देख कर बड़े भाई को रोना आ गया और रोते-रोते ही बोले - ‘तेरा ट्रांसफर करवा कर मैंने अच्छा नहीं किया पारस! मैंने बड़ का झाड़ (वट वृक्ष) उखाड़ दिया रे।’

किन्तु ये सारी जानकारियाँ देना या कि जैन साहब का महिमा मण्डन करना मेरा अभीष्ट नहीं है। मैं उनसे 1969 में पहली बार मिला था - रामपुरा में। मैं तब, 1968 में वहाँ से स्नातक बन कर निकल चुका था और जैन साहब आये-आये ही थे। मुझे नहीं पता था कि वे दादा के प्रिय पात्र हैं। यह तो जैन साहब की संस्कारशीलता ही थी कि बिना कुछ बताए और पूछे उन्होंने मुझे अपने में समेट लिया। वह दिन और आज का दिन। जब भी उनसे सम्पर्क होता है, हर बार वे या तो कोई नई जानकारी देते हैं या कोई जिज्ञासा प्रस्तुत कर देते हैं। यह पोस्ट लिखने का कारण भी उनकी जिज्ञासा ही है।

मेरे कस्बे से मन्दसौर मार्ग पर, पचास किलो मीटर पर एक गाँव आता है - ढोढर। ग्रामीण वेश्यावृत्ति के प्रमुख केन्द्र के रूप में इस गाँव की पहचान है। कुछ दिन पहले जैन साहब का फोन आया - “क्यों रे! विष्णु, अपन तो एक ‘ढ’ के जरिए ही किसी का मजाक उड़ाते हैं। यहाँ तो दो-दो ‘ढ’ हैं! तुझे ढोढर के नामकरण का इतिहास पता है क्या?” मेरे पास कोई उत्तर नहीं था। मैं 1977 से रतलाम में हूँ किन्तु मेरा ध्यान कभी इस ओर गया ही नहीं। मैंने सकुचाते-सहमते हुए इंकार किया। जैन साहब बोले - ‘क्या विष्णु! तुझसे तो ऐसी उम्मीद नहीं थी। खैर! कोई बात नहीं। अब तलाश करके मुझे बताना।’ मैं राहत की साँस ले ही रहा था कि फिर उनका फोन आ गया। बोले - “यार मैंने तुझे बेकार ही डाँट दिया। यहाँ, अपने मनासा के पास एक तीर्थ स्थान है - ढंढेरी। उसमें भी दो-दो ’ढ’ हैं। रामपुरा आते-जाते, हर बार ढंढेरी मेरे रास्ते में आता था किन्तु मेरा ध्यान भी कभी इन दो ‘ढ’ पर नहीं गया। तेरा ध्यान भी ढोढर के दो ‘ढ’ पर नहीं गया तो मुझे अटपटा नहीं लगना चाहिए था। मेरी बात मन से निकाल देना पर ढोढर के नामकरण की तलाश जरूर करना। मैं भी ढंढेरी के नामकरण की तलाश कर तुझे बताऊँगा।” उनका मरहम लगाना मुझे अच्छा तो लगा किन्तु ताज्जुब भी हुआ - ‘ढ’ को लेकर कोई ‘विज्ञ’ इतना जिज्ञासु!

जैन साहब की यही बात बताने के लिए मैं यह सब लिख रहा हूँ। इस समय वे उम्र के 79वें वर्ष में चल रहे हैं। कैंसर की मेजबानी करते हुए पेट की शल्यक्रिया करवा चुके हैं। किन्तु चुपचाप नहीं बैठते। भाषण देना उनका ‘व्यसन’ है। वे बोलते हैं, खूब बोलते हैं और खूब अच्छा बोलते हैं। नीमच में और आसपास के गाँवों-कस्बों में उनके व्याख्यान आए दिनों होते रहते हैं। जहाँ एक बार गए तो मानो वहाँ से बार-बार निमन्त्रण मिलने की सुनिश्चित व्यवस्था कर आते हैं। और केवल बोलना ही क्यों? लिखना भी उनका समानान्तर व्यसन है। नीमच, मन्दसौर जिलों के स्थानीय अखबारों के लिए तो वे मानो सुनिश्चित लेखक हैं। किन्तु उन्हें सन्तोष मिलता है - सम्पादक के नाम पत्र लेखन में। किसी जमाने में ‘हिन्दी का मदरसा’ कहे जानेवाले और अपने ‘पत्र, सम्पादक के नाम’ स्तम्भ के जरिए ‘अलेखकों को लेखक बनानेवाले’ अखबार ‘नईदुनिया’ में, 1978 में उनका पहला पत्र छपा था। शोभा यात्राओं में सर पर गैस बत्ती ढोनेवाले बच्चों पर केन्द्रित इस पत्र का शीर्षक था - ‘अन्धेरे के माथे उजाले का बोझ।’ तब से लेकर अब तक कोई एक हजार पत्र तो ‘नईदुनिया’ में ही छप चुके हैं और अब तक बराबर छप रहे हैं। दूसरे अखबारों की गिनती अलग।

उनकी कुछ बातें मुझे लुभाती भी हैं और प्रेरित भी करती हैं। जैसे, किसी की खुशामद नहीं करना। 36 बरसों की नौकरी में लोगों के नमस्कार के प्रत्युत्त्र में हाथ जोड़ते-जोड़ते जैन साहब के हाथ दुख आए। किन्तु रामपुरा में नौकरी के दौरान जब क्षेत्रीय विधायक अहम् के टापू पर बैठ गया तो जैन साहब ने हाथ जोड़ने से दृढ़तापूर्वक इंकार कर दिया। विधायक ने अपनी हैसियत दिखाते हुए उनका तबादला, ढाई-तीन सौ किलोमीटर दूर, सेंधवा करा दिया। जैन साहब प्रसन्नतापूर्वक सेंधवा गए। वहीं से सेवा निवृत्त हुए और लौटे तो सेंधवा बस अड्डे पर वही खण्डवा रेल्वे स्टेशनवाला नजारा था।

आलोचकों, असहमतों का सम्मान करने की उनकी प्रवृत्ति भी मुझे लुभाती है। वे सहजता से कहते हैं - ‘पहली पंक्ति में रहोगे तो आलोचना, असहमति तो अनिवार्यतः झेलनी ही पड़गी। ये तो परस्पर प्राकृतिक और अनिवार्य पूरक हैं - सिक्के के दो पहलुओं की तरह। आपकी आलोचना करने का, अपनी भड़ास निकालने का यह अधिकार तो आपको उन्हें देना ही पड़ेगा।’


उनकी एक और बात जो हम सबके लिए ‘अनुकरणीय आदर्श’ होनी चाहिए - वे हिन्दी में ही हस्ताक्षर करते हैं। उन्हें अनगिनत पत्र अंग्रेजी में लिखने पड़े किन्तु ऐसे प्रत्येक पत्र पर हस्ताक्षर हिन्दी में ही किए।


किन्तु, उम्र के इस मुकाम पर भी उनका जिज्ञासु और निरन्तर सक्रिय बने रहना मुझे सर्वाधिक लुभाता है।


काश! मैं जैन साहब का विद्यार्थी हुआ होता!

बधाई याने धन्यवाद याने क्या फर्क पड़ता है?

ऐसा मेरे साथ पहले कम होता था, बहुत कम। कभी-कभार ही। किन्तु अब तो अत्यधिक होने लगा है - महीने में पन्द्रह-बीस बार। याने, तीन दिनों में दो बार। जब भी ऐसा होता है, झुंझला जाता हूँ। खीझ/चिढ़ आ जाती है। भयभीत होने लगा हूँ कि कहीं मैं भी यही सब न करने लग जाऊँ।

लोगों ने ‘बधाई’ और ‘धन्यवाद’ में अन्तर करना बन्द कर दिया है। दोनों को पर्याय बना दिया है। जहाँ बधाई देनी होती है वहाँ धन्यवाद दे रहे हैं और जहाँ धन्यवाद देना होता है, वहाँ बधाई दे रहे हैं। यह सब इतनी तेजी से, इतनी अधिकता से और इतनी सहजता से हो रहा है कि किसी से नमस्कार करने में भी डर लगने लगा है।

हो यह रहा है कि किसी से आमना-सामना हुआ तो ‘राम-राम, शाम-शाम’ के बाद, सम्वाद कुछ इस तरह से होता है -

‘बधाई दादा आपको। बहुत-बहुत बधाई।’

‘बहुत-बहुत धन्यवाद। लेकिन किस बात की?’

‘वो आपने अपने लेख में मेरा जिक्र किया था ना? उसी की।’

‘तो उसके लिए तो आपने धन्यवाद कहना चाहिए।’

‘वही तो कहा!’

‘वही कहाँ कहा? आपने तो मुझे बधाई दी। धन्यवाद नहीं दिया।’

‘एक ही बात है। मैंने बधाई कहा। आप उसे धन्यवाद समझ लीजिए। क्‍या फर्क पड़ता है?’

‘एक ही बात कैसे? और बधाई को धन्यवाद कैसे समझ लूँ? फर्क क्‍यों नहीं पड़ता? दोनों में जमीन-आसमान का अन्तर है। बधाई तो सामनेवाले के यहाँ कोई खुशी होने पर, उसे कोई उपलब्धि होने पर, कोई उल्लेखनीय सफलता मिलने पर, उसका कोई रुका काम पूरा हो जाने पर जैसी स्थितियों में दी जाती। ऐसा कुछ तो मेरे साथ हुआ नहीं। इसके उल्टे, मेरे लेख में आपका जिक्र होने से आपको मेरे कारण खुशी मिली, मेरे कारण आपका नाम हुआ इसलिए आप तो मुझे धन्यवाद देंगे, बधाई नहीं।’
‘आप विद्वानों के साथ यही दिक्कत है। बात को समझने के बजाय शब्दों को पकड़ कर बैठ जाते हैं! इतनी बारीकी आपको ही शोभा देती है। हम भी ऐसा करने लगेंगे तो आपमें और हममें फर्क ही क्या रह जाएगा? हमारे लिए तो दोनों बराबर हैं।’

मैं चाह कर भी कुछ नहीं कह पाता। चुप रह जाता हूँ। जब-जब भी समझाने की कोशिश की, हर बार जवाब मिला - ‘आप हो तो सही! जब भी कोई बात समझनी होगी तो आपको फोन लगा कर पूछ लेंगे।’

मैं हतप्रभ हूँ। बधाई और धन्यवाद में किसी को कोई अन्तर अनुभव नहीं हो रहा! दोनों को पर्याय माना जा रहा है! टोकने पर कहा जा रहा है - बधाई को धन्यवाद समझ लिया जाए।


यह सब क्या है? भाषा के प्रति असावधानी, उदासीनता या उपेक्षा?

माँजना हई बाजाँ


प्रसंग शोक का हो, आप परिवार के अग्रणी की स्थिति में हों और अकस्मात् ऐसा कुछ हो जाए कि आपकी हँसी छूट जाए। तो? इतना ही नहीं। आप पाएँ कि आपके आसपास के लोग, आपसे पहले ही उस ‘कुछ’ से वाकिफ बैठे थे और कुछ तो प्रसंग/वातावरण के कारण और कुछ आपके लिहाज में वे अपनी हँसी नियत्रित किए बैठे थे और आपके हँसते ही वे सब भी आपकी हँसी में शामिल हो गए हैं। तो? तो क्या! समझदारी इसी में होती है कि खुद की हँसी रोकें नहीं और न केवल दूसरों को हँसने दें बल्कि दूसरों की हँसी में खुलकर शामिल हो जाएँ।

बिलकुल यही हुआ हम दोनों भाइयों के साथ - दो दिन पहले। इसी रविवार, 27 नवम्बर को।

मेरी बड़ी बहन गीता जीजी का निधन इसी 23 नवम्बर को हो गया। उसकी उत्तरक्रियाओं के अन्तिम में से एक कर्मकाण्ड की समाप्ति पश्चात्, मौके पर उपस्थित हम सब लोग भोजन के लिए पंगत बना कर बैठे। एक तो हमारी बहन का निधन और दूसरे, आयुमान से पूरे जमावड़े में हम दोनों भाई सबसे वरिष्ठ। सो, सबकी नजरें हम दोनों पर और हमारी शकलों पर। कागज के बने दोने पत्तल में भोजन परोसा जाना था। हम सबके सामने एक-एक पत्तल और एक-एक दोना रख दिया गया। पूरी, आलू की सब्जी और बेसन की नमकीन सेव परोसी जानी है - यह हम सबको पता था। सामग्री आने में थोड़ी देर थी। अचानक ही मेरी नजर पत्तल पर पड़ी। एक विज्ञापन छपे कागज की पत्तलें हमारे सामने रखी गई थीं। विज्ञापन की, बारीक अक्षरों वाली इबारत को बिना चश्मे के पढ़ पाना तो सम्भव नहीं था किन्तु ‘श्वान-शिशु’ का चित्र तो बिना चश्मे के ही नजर आ रहा था। जिज्ञासा के अधीन, चश्मे की सहायता से विज्ञापन की इबारत पढ़ी तो मेरी हँसी छूट गई। दादा ने तनिक खिन्न स्वरों में पूछा - ‘क्या बात है? यह हँसने का मौका है?’ मैंने कहा - ‘जिन पत्तलों में हमें भोजन करना है उन पर कुत्तों के पिल्लों के भोजन का विज्ञापन छपा है।’ मेरी बात पूरी होते ही मेरे पास बैठे सज्जन, मुझसे भी जोर से हँस पड़े। दादा ने पूछा - ‘अच्छा! वाकई में?’ मैं जवाब देता उससे पहले ही, मेरे पास वाले सज्जन ने हँसते-हँसते कहा - ‘वाकई में। पढ़ तो मैंने पहले ही लिया था और हँसी तो मुझे भी आ रही थी। किन्तु दबाए रहा। अच्छा नहीं लगता। पता नहीं आप क्या सोचते। लेकिन है तो कुत्तों के भोजन का विज्ञापन ही।’

अब दादा ‘सहज’ से आगे बढ़कर तनिक ‘उन्मुक्त’ हो गए। उनका ‘शब्द पुरुष’ जाग उठा। अपनी हँसी को पूरी तरह नियन्त्रित करते हुए बोले - “अब जब ऐसा हो ही गया है तो मान लें कि ‘माँजना हई बाजाँ’ आ गई हैं।” सुन कर वे सब भी हँसने में साथी बन गए जो शोक ओढ़े, गम्भीर मुद्रा में बैठे थे।

जितनी तेजी से बात शुरु हुई थी, उतनी ही तेजी से खत्म भी हो गई क्योंकि इसी बीच भोजन सामग्री परोस दी गई थी। पूरियों और बेसन सेव के कारण विज्ञापन की इबारत तो दब गई थी किन्तु ‘श्वान-शिशु‘ का चित्र और बड़े-बड़े अक्षरों में छपा, उसके भोजन का नाम साफ-साफ दिखाई दे रहा था। हम चाहते तो भी दोनों को छुपा नहीं सकते थे क्योंकि, जैसा कि आप चित्र में देख रहे हैं, दोनों ही पत्तल के किनारों पर छपे थे।

अब ‘माँजना हई बाजाँ’ का अर्थ भी जान लीजिए। यह मालवी कहावत है। ‘माँजना’ याने पात्रता, काबिलियत। ‘हई’ याने ‘के अनुसार’ और ‘बाजाँ’ याने पत्तलें। पूरा अर्थ हुआ - आपकी पात्रता के मुताबिक आपके लिए पत्तलें मँगवाई गई हैं या कि जैसे आप वैसी पत्तलें आपके लिए।

हम लोग तो शोक प्रसंग में भी खुलकर हँस लिए थे। आप तो हमसे भी अधिक खुल कर हँस सकते हैं।

दादा ने लबूर दिया

‘‘दादा! आज दादा ने लोकेन्द्र को ‘लबूर’ दिया।’’ हँसते-हँसते सूचना दी वासु भाई ने। ‘कहाँ मिल गए थे?’ पूछा मैंने तो वासु भाई ने कहा - ‘मिले नहीं। फोन पर।’

‘लबूरना‘ मालवी बोली का लोक प्रचलित क्रियापद है जिसका अर्थ है - मुँह नोंच लेना। वासु भाई के मुताबिक दादा ने फोन पर लोकेन्द्र भाई का मुँह नोंच लिया था।

‘लोकेन्द्र’ याने डॉक्टर लोकेन्द्र सिंह राजपुरोहित और ‘वासु भाई’ याने वासुदेव गुरबानी। लोकेन्द्र भाई बी. ए. एम. एस. (बेचलर ऑफ आयुर्वेद विथ मॉडर्न मेडिसिन एण्ड सर्जरी) हैं। चिकित्सकीय परामर्श का कामकाज तो अच्छा खासा है ही, एक्स-रे क्लिनिक भी चलाते हैं। वासु भाई की, इलेक्ट्रानिक कल-पुर्जों की और उपकरणों की मरम्मत की दुकान है। दुकान मौके की तो है ही, आसान पहुँच में भी है। सो, यार-दोस्तों की बैठक भी यहाँ जमती रहती है। मैं भी कभी-कभार यहाँ की अड्डेबाजी में शरीक हो जाता हूँ। दोनों ‘बाल सखा’ हैं और मुझ पर अत्यधिक स्नेहादर रखते हैं।

बाजार से निकलते हुए वासु भाई की दुकान पर नजर डाली तो पाया कि ग्राहक एक भी नहीं है और दोनों बाल-सखा बतिया रहे हैं। अड्डेबाजी की नीयत से मैं भी रुक गया। मैं जाकर बैठता उससे पहले ही वासु भाई से उपरोल्लेखित सम्वाद हो गया। मैंने देखा - सुनकर लोकेन्द्र भाई खिसियाने के बजाय खुलकर हँस रहे हैं। मैं आश्वस्त हुआ। पूछा तो पूरी बात सामने आई।

लोकेन्द्र भाई ने साधारण बीमा निगम की एक बीमा कम्पनी से ली हुई मेडीक्लेम बीमा पॉलिसी के अन्तर्गत एक दावा कर रखा था। अपने स्थापित चरित्र के अनुसार, बीमा कम्पनी, दावे का भुगतान करने में टालमटूल कर रही थी। लोकेन्द्र भाई ने, बीमा कम्पनी के चेन्नई स्थित मुख्यालय से पत्राचार किया तो उत्तर में उन्हें अंग्रेजी के, बारीक अक्षरों में छपे चार पन्ने मिल गए। इन पन्नों की जानकारी हिन्दी में प्राप्त करने के लिए लोकेन्द्र भाई उठा पटक कर रहे थे। इसी दौरान वासु भाई ने मुझसे मदद माँगी तो मैंने कहा सहज भाव से कहा कि वे दादा को अपनी समस्या लिख भेजें और साथ में सारे कागज भेज दें क्योंकि दादा, राजभाषा संसदीय समिति के सदस्य रह चुके हैं और हिन्दी से जुड़े ऐसे मामले वे उत्साह से लेते हैं। वासु भाई ने मेरी बात लोकेन्द्र भाई को बताई लोकेन्द्र भाई ने ‘अविलम्ब आज्ञापालन भाव’ से सारे कागज दादा को पोस्ट कर दिए।

कोई छः-सात दिन बाद लोकेन्द्र भाई ने, केवल यह जानने के लिए कि कागज-पत्तर मिले या नहीं, दादा को फोन लगाया। जवाब में वही हुआ जो वासु भाई ने बताया था - दादा ने लोकेन्द्र भाई को ‘लबूर’ लिया। मैंने प्रश्नवाचक मुद्रा और जिज्ञासा भाव से अपनी मुण्डी लोकेन्द्र भाई की तरफ उचकाई।

खुल कर हँसते हुए लोकेन्द्र भाई ने बताया कि दादा के ‘हेलो’ के उत्तर में जैसे ही उन्होंने (लोकेन्द्र भाई ने) अपना नाम बताया तो दादा ‘शुरु’ हो गए। जो कहा, वह कुछ इस प्रकार था - ‘दूसरों से हिन्दी में काम काज की अपेक्षा करते हो, उनके अंग्रेजी में सूचना देने को राजभाषा अधिनियम का उल्लंघन करने का अपराध कहते हो और खुद क्या कर रहे हो? तुम अपने हस्ताक्षर अंग्रेजी में करते हो! दूसरों को हिन्दी की अवहेलना करने का, राजभाषा अधिनियम का उल्लंघन करने का दोषी करार देने से पहले खुद तो हिन्दी का मान-सम्मान करो!’ लोकेन्द्र भाई बोले - ‘मेरी तो शुरुआत ही पिटाई से हुई। सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। घिग्घी बँध गई। मुझसे तो हेलो कह पाना भी मुमकिन नहीं हो पा रहा था। हिम्मत करके, जैसे-तैसे क्षमा-याचना की। लेकिन इसके बाद अगले ही क्षण दादा सामान्य-सहज हो गए। मेरी मदद का आश्वासन दिया। किन्तु अंग्रेजी में मेरे हस्ताक्षरों को लेकर उनकी पहली प्रतिक्रिया ने मुझे झकझोर दिया। अंग्रेजी में हस्ताक्षर करना इतनी गम्भीर बात हो सकती है, यह मैंने कभी नहीं सोचा था।’

चूँकि यह मेरा भी प्रिय विषय है, इसलिए कहना तो मैं भी काफी-कुछ चाहता था किन्तु यह ठीक समय नहीं था। लोकेन्द्र भाई अभी-अभी ही ‘दुर्घनाग्रस्त’ होकर बैठे हैं। मैं कुछ कहूँगा तो ‘कोढ़ में खाज’ वाली स्थिति न हो जाए! सो चुप रहा। थोड़ी देर तक गप्प गोष्ठी कर लौट आया।

अब प्रतीक्षा कर रहा हूँ। कुछ दिन बीता जाएँ। फिर कभी लोकेन्द्र भाई मिलेंगे तो पूछूँगा - ‘अब फिर खुद को लबुरवाओगे या हिन्दी में हस्ताक्षर करना शुरु कर दिया है?’

परम्परा से साक्षात्कार


इस वर्ष की दीपावली, मेरे दोनों बेटों को एक लोक परम्परा समझाने का माध्यम बनी।

मेरी भाभीजी की मृत्यु के बाद यह पहली दीपावली हमारे लिए ‘शोक की दीपावली’ थी। मेरे दोनों बेटे इसका अर्थ नहीं समझ पाए। उनके समझदार होने के बाद ऐसा यह पहला अवसर था। ‘ताईजी तो अपने घर आती ही नहीं थीं! उनकी मृत्यु के बाद शोक निवारण किया जा चुका है तो फिर शोक की दीपावली क्यों?’ बाईस वर्षीय छोटे बेटे तथागत ने कहा - ‘मुझे तो ताईजी की शकल भी याद नहीं!’ यही सार रहा दोनों के कौतूहल का।

जवाब में मैंने दोनों को गृहस्थी, परिवार, कुटुम्ब, खानदान के बारे में विस्तार से समझाने की कोशिश की और कहा - ‘कोई आता-जाता या नहीं, इससे मंगल प्रसंगों पर भले ही फर्क पड़ता हो किन्तु शोक प्रसंगों में फर्क नहीं पड़ता। शोक के अवसरों पर सारी बातें भुलाकर सब दौड़ पड़ते हैं। क्योंकि बाँटने से खुशियाँ बढ़ती हैं और दुःख कम होता है। कोई अपनी खुशियाँ नहीं बढ़ाना चाहे तो यह उसकी मर्जी। किन्तु किसी का शोक-दुःख कम करने की जिम्मेदारी तो हमारी अपनी ही होती है। इसीलिए, जो लोग खुशियों के मौके पर बुलाने के बाद भी नहीं जाते या जिन्हें जानबूझकर भी नहीं बुलाया जाता वे लोग भी शोक प्रसंगों पर, बिना बुलाये नंगे पाँवों दौड़ कर जाते हैं - जल्दी से जल्दी पहुँचने के लिए, सब कुछ भूल कर। यही पारिवारिकता और कौटुम्बिकता है।’ सुनकर बड़े बेटे वल्कल ने कहा - ‘‘अंग्रेजी कहावत ‘ब्लड इस थिकर देन वाटर’ शायद इसीलिए उद्धृत की जाती है।’’ सुनकर मुझे अच्छा लगा।दोनों ने पूछा - ‘मम्मी ने पूरे घर की सफाई करवाई, सारा कचरा-कुट्टा फिंकवाया, रंगाई-पुताई भले ही नहीं करवाई लेकिन पूरा घर चकाचक किया। तो फिर शोक की दीपावली कैसे हुई? बाकी क्या रहा?’

अब हमारा पूरा परिवार (मेरी उत्तमार्द्ध, बहू प्रशा, वल्कल, तथागत और मैं) इस विमर्श में शामिल हो गया था। मेरी उत्तमार्द्ध ने कहा - ‘खुद ही सोचो कि बाकी क्या रहा।’ सवाल के जवाब में तीनों बच्चे एक-एक कर गिनवाने लगे - ‘मिठाइयाँ नहीं बनी हैं, बाजार से भी नहीं मँगवाई हैं, पटाखे, मकान की मुँडेर के लिए और सजावट के लिए लटकानेवाले दीये नहीं खरीदे गए हैं, अगले कमरे की बैठक के लिए सजावट का कोई सामान नहीं खरीदा गया है, पर्दे वे ही पुराने हैं, मकान की सजावट के लिए फूल मालाएँ नहीं लाए हैं, अपन पाँचों में से किसी के लिए नए कपड़े नहीं बने हैं न ही नए जूते खरीदे गए हैं। आदि आदि।’ अपनी बातों का इतना विस्तृत उत्तर खुद से ही पाकर वे विस्मित भी हुए जा रहे थे और ‘शोक की दीपावली’ का मर्म भी समझते जा रहे थे। किन्तु अभी भी काफी कुछ बाकी था।

तथागत ने पूछा - ‘तो फिर दीपावली पर हम करेंगे क्या? कैसे मनाएँगे दीपावली?’ हम दोनों पति-पत्नी अब ‘ज्ञानपीठ’ पर विराजित हो गए। बताया कि दीपावली-मिलन के लिए हम कहीं नहीं जाएँगे, कोई आएगा तो सौंफ-सुपारी से अगवानी करेंगे। हम उत्सव मनाएँगे, पूजन भी करेंगे किन्तु उल्लास नहीं जताएँगे। यथा सम्भव घर में ही रहेंगे। किन्तु देखना, अपनी मुँडेर पर रोशनी भी होगी और तुम मिठाइयाँ भी खाओगे। तथागत ने जिन नजरों से दखा, तय करना कठिन था कि उनमें अविश्वास अधिक है या जिज्ञासा? हमारे पास एक ही जवाब था - ‘हम समझा नहीं पाएँगे। तुम खुद ही समझ जाओगे।

और तीनों बच्चों को धीरे-धीरे सब समझ में आने लगा। दीपावली से एक दिन पहले, भैया साहब (श्रीसुरेन्द्र कुमारजी छाजेड़) की बहू ज्योति, भरपूर मात्रा मे मिठाइयाँ और नमकीन रख गई। दीपावली पूजन वल्कल, प्रशा और तथागत ने किया। हम लोग पूजन करके बैठे ही थे कि मीरा (पाराशर) भाभी ने अपने बहू-बेटे प्रेरणा और दिलीप के हाथों ढेर सारा सामान पहुँचा दिया। उनके पीछे-पीछे पाठक दम्पति (प्रो. स्वाति पाठक और प्रो. अभय पाठक) गुझियों सहित मिठाई-नमकीन ले आए। न्यू इण्डिया इंश्योरेन्स कम्पनी में कार्यरत, देवासवाले विजयजी शर्मा हमारा बहुत ध्यान रखते हैं। उनकी उत्तमार्द्ध श्रीमती मंजू ने घर के बने व्यंजन भिजवाए। मेरी उत्तमार्द्ध ने बहू प्रशा के हाथों, मुँडेर पर दो दीये रखवाए थे। किन्तु अँधेरा बढ़ते-बढ़ते पड़ौसियों ने बच्चों के हाथों दीये रखवा कर हमारी मुँडेर ‘जगमग’ कर दी थी। रात को मुहल्ले के बच्चों ने हमारे घर के सामने खूब पटाखे छोड़े। मेरे बच्चों-बहू ने देखा कि हम ‘पारिवारिकता’ निभा रहे थे और हमारे स्नेहीजन ‘सामाजिकता‘ निभाकर हमारे उत्सव में उल्लास की रोशनी भर रहे थे। हम अपने घर में चुपचाप बैठे थे और ‘समाज’ अपनी खुशियों में हमें शामिल कर रहा था। उनकी खुशियाँ वर्धित-विस्तारित हो रही थीं और हमारा शोक सिकुड़ता जा रहा था।

हम लोग कहीं नहीं गए किन्तु ‘लोक’ ने हमें अकेला और शोकग्रस्त नहीं रहने दिया, हमें अपने साथ बनाए रखा, हमारा त्यौहार करवाया। ‘लोकाचार’ या कि ‘सामाजिकता’ की उपयोगिता, उसकी भूमिका और उसका महत्व मेरे बच्चों ने शायद पहली ही बार देखा-अनुभव किया होगा। किन्तु जिस तरह से यह सब हुआ, उसे वे आजीवन नहीं भूल पाएँगे।

परम्पराएँ इसी तरह प्रवाहमान रहती हैं!

महज एक वाचनालय नहीं

निजी सपने साकार करने के लिए प्रयास भी निजी ही होते हैं। किन्तु सपना यदि राष्ट्र का या राष्ट्र पुरुष का हो तो? कहना निरर्थक ही होगा कि तब पूरे राष्ट्र को और सारे नागरिकों को इस हेतु प्रयास करने पड़ेंगे। किन्तु करता कौन है? शायद ही कोई ऐसा ‘करने’ पर सोचे। हर कोई सोचता है कि उसके सिवाय बाकी सब लोग यह सपना पूरा करें। यह अलग बात है कि पूरा देश चाहता होता है कि यह सपना पूरा हो। चाहत सबकी, कोशिश किसी की नहीं! हमारे संकटों का एक बड़ा (इसे ‘सबसे बड़ा’ कहने को जी कर रहा है) कारण शायद यही है - चाहत सबकी, कोशिश किसी का नहीं।


किन्तु कुछ पागल लोग हर काल, हर देश में, पाये जाते हैं। ऐसा ही एक ‘पागल’ मेरे कस्बे (रतलाम) में है। ये हैं श्री तैयबअली सफदरी। इनकी उम्र अभी अस्सी बरस है किन्तु जज्बा उस किशोर जैसा जिसकी मसें अभी भीग रही हों और जो इश्किया जुनून में आसमान से तारे तोड़ लाने या पहाड़ तोड़ कर दरिया बहा लाने को उतावला हुआ जा रहा हो। वे रहते दुबई में हैं किन्तु उनकी जड़ें रतलाम में हैं। दुबई में रहते हुए अपनी जमीन को सहेजने की जुगत में लगे रहते हैं ताकि जड़ें मजबूत बनी रहें।


वैचारिकता से प्रगतिशील और स्वभाव से उद्यमी सफदरीजी ने अपनी जेब से भरपूर रकम लगा कर 25 मार्च 2011 को रतलाम में एक सार्वजनिक वाचनालय शुरु किया। नाम दिया - ‘विजन 2020 लायब्रेरी।’ मेरा विषय तो यह वाचनालय ही है किन्तु सफदरीजी के बार-बार उल्लेख के बिना मेरी बात पूरी नहीं हो पाएगी। वाचनालय शुरुआत के पीछे सफदरीजी का ‘आधार-विचार’, भारत के पूर्व राष्ट्रपति, विज्ञान पुरुष ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का वह विचार रहा जिसमें उन्होंने 2020 तक भारत को दुनिया का सिरमौर हो जाने की बात कही थी। कलाम साहब की, इसी शीर्षक (इण्डिया विजन 2020) वाली पुस्तक से पूरी बात समझी जा सकती है। सफदरीजी, ‘शिक्षा और ज्ञान’ को सफलता और उपलब्धियों की पहली अनिवार्य शर्त मानते हैं जो प्रथमतः पुस्तकों से ही पूरी की जा सकती है। इसीलिए उन्होंने सार्वजनिक वाचनालय को श्रेष्ठ माध्यम माना और इसकी शुरुआत कर दी। दिन चुना 25 मार्च 2011 - दाऊदी बोहरा समाज के अन्तरराष्ट्रीय धर्म गुरु सैयदनाजी का सौवाँ जन्म दिन।


यह वाचनालय अपनी पहली वर्ष गाँठ की ओर बढ़ रहा है। सफदरीजी इस बीच दोबार भारत आ चुके हैं। पहले आते थे तो जन-सम्पर्क तक ही सीमित रहते थे। किन्तु इन दोनों बार वे इस वाचनालय पर ही केन्द्रित रहे। चाँदनी चौक स्थित पालीवाल मार्केट के, सड़क के सामनेवाले एक छोटे से भाग में स्थित इस वाचनालय में सफदरी साहब अब तक सभी विषयों और विधाओं की एक हजार से अधिक पुस्तकें मँगवा चुके हैं और यह क्रम निरन्तर है। वाचनालय नियमित रूप से, सुबह साढ़े आठ बजे से दोपहर एक बजे तक और अपराह्न साढ़े तीन बजे से रात आठ बजे तक खुलता है। लोग आ-जा रहे हैं। आनेवालों में बच्चे अधिक हैं, वयस्क कम।


इस बार सफदरीजी आए तो मुझे बुलाया। उन्हें यह जानकर तो अच्छा लगा कि 'आत्‍म मंथन' ब्‍लॉंग वालेहमारे अग्रणी ब्लॉगर श्री मन्सूरअली हाशमी के जरिये मैं इस वाचनालय के बारे में पहले से ही जानता हूँ किन्तु ‘अच्छा लगने‘ के मुकाबले इस बात पर अप्रसन्न और कुपित अधिक हुए कि इस मामले में मैंने अब तक कुछ किया क्यों नहीं। मैंने कुछ कहने की कोशिश की तो वे मानो किसी ‘क्रूर हेडमास्टर’ की मुद्रा में बेंत लेकर ऐसे खड़े हों कि मैं कुछ कहने की कोशिश करूँ तो वे बेंत लहराते हुए ‘चो ऽ ऽ ऽ ऽ प्प!’ कहकर मेरी बोलती बन्द कर दें। उन्होंने पूछा - ‘इसके बारे में तुमने कितने लोगों को बताया? कितने लोगों से बात की?’ मैंने कहा ‘कुछ लोगों से बात की।’ मेरी बात खत्म हो उससे पहले सवाल आया - ‘उनमें से कितने लोग यहाँ आए?।’ मैंने कहा - ‘मुझे नहीं मालूम।’ मानो ‘सटाक्’ से बेंत मारी हो, इस तरह कहा - ‘तो फिर तुमने खाक बात की! बात तो वह होती है जिसका असर हो!’ मेरी भलाई और सुरक्षा इसी में थी कि मैं चुप रहता।


मेरी चुप्पी ने सफदरीजी की बातों के लिए मैदान खोला। वाचनालय को लेकर उनकी चाहत और अधीरता के सामने मैं नतमस्तक हो गया। उम्र 80 बरस और अधीरता चौथी-पाँचवी में पढ़ रहे उस बच्चे जैसी जो अपनी पहली ही पहल को आसमान पर चस्पा देखना चाहता हो। उनकी इच्छा है कि इस वाचनालय में पाठकों का आना-जाना ऐसा और इतना हो कि यहाँ के सेवक को सर उठाने का मौका न मिले, दोपहर में, वाचनालय के बन्द रहने के समय (दोपहर एक बजे से साढ़े तीन बजे तक) नगर के लिखने-पढ़नेवाले लोग, कवि-साहित्यकार यहाँ अड्डेबाजी, गप्प-गोष्ठी करें, इस वाचनालय को ‘विमर्श केन्द्र’ का पर्याय बना दें।


इसके प्रचार-प्रसार हेतु अपनी इस बार की यात्रा में सफदरीजी ने दो-तीन तरह के फ्लेक्स बैनर बनवाए। हजार-ग्यारह सौ ’पर्यावरण रक्षक थैलियाँ‘ बनवाईं कि जो भी सदस्य बनेगा, एक थैली का निःशुल्क हकदार होगा। फ्लेक्स बैनर लेकर अपने बड़े बेटे मुर्तुजा को बैंक, विद्यालय जैसे संस्थानों/कार्यालयों में भेजा जहाँ लोगों का आना-जाना अधिक हो। एक-दो संस्थानों ने आगे बढ़कर बैनर लगाया तो अधिकांश ने ‘हमारे कानून इसकी अनुमति नहीं देते’ जैसे तर्क देकर माफी माँग ली जबकि बैनर में किसी भी व्यक्ति का नाम नहीं, व्यापारिक-वाणिज्यिक लाभ की कोई बात नहीं। सब कुछ सार्वजनिक और पूरी तरह निःशुल्क। किन्तु चूँकि यह ‘सामान्य हरकत’ नहीं है, एक आदमी के पागलपन का हिस्सा है, सो पहली ही कोशिश में कामयाबी मिल जाए जरूरी नहीं।


सफदरीजी दुबई से रोज ही अपने सहयोगियों को फोन कर, वाचनालय के बारे में जानकारी लेते हैं और समुचित निर्देश भी देते हैं। ऐसा करते समय एक बात हर बार कहते हैं - ‘पैसों की फिकर मत करना। बस! लायब्रेरी को रतलाम के तमाम बाशिन्दों तक पहुँचाओ ताकि ‘इण्डिया विजन 2020’ का मकसद हासिल किया जा सके।’ उनके आसपासवालों से मुझे उनके सन्देशों के समाचार मिलते रहते हैं और मैं मन ही मन डर रहा हूँ - वे मुझे फोन नहीं कर दें। मैंने भी एक-दो, छोटे-छोटे कामों की जिम्मेदारी ले रखी है जो अब तक पूरे नहीं किए हैं। मैं क्या जवाब दूँगा?


मैं सोच रहा हूँ - दुबई में बैठे, अस्सी साल के एक बूढ़े भारतीय को इससे क्या फर्क पड़ता है कि ए. पी. जे. अब्दुल कलाम का सपना पूरा हो या नहीं? क्यों नहीं सफदरीजी अपने नातियों-पोते/पोतियों के सामीप्य का आनन्द उठाकर जीवन का आनन्द लें? चौथे काल में चल रहे हैं तो क्यों नहीं धार्मिक क्रियाओं, कर्म काण्डों में खुद को व्यस्त कर लेते ताकि जीवन सफल हो जाए? सोचते-सोचते अपने अधकचरेपन पर पहले तो झेंप आती है, फिर हँसी - ये सारी बातें तो सफदरी साहब मुझसे पहले ही जानते होंगे! फिर भी वे एक वाचनालय के पीछे पड़े हुए हैं! न खुद सोते हैं न यहाँवालों को सोने दे रहे हैं! यह सब क्या है?


किन्तु मैं ही गलत सोच रहा हूँ। किसी राष्ट्र के लिए शायद यही सब कुछ है। ऐसे जुनूनी या कि सनकी या कि पागल लोग ही वह रास्ता बना देते हैं जिस पर चल कर आनेवाली सन्ततियाँ अपनी भूमिका निभा सकें - यह जाने बिना कि यह रास्ता किसने बनाया था। सफदरीजी ऐसे अकेले आदमी नहीं होंगे। पता नहीं, देश में कहाँ-कहाँ ऐसे सफदरीजी चुपचाप अपना-अपना काम कर रहे होंगे। इन सबका अपनाअपना, कोई न कोई राष्ट्र पुरुष होगा जिसके सपने को अपना सपना मानकर उसे पूरा करने के पागलपन में ये लोग अपने आप को खपा रहे होंगे। व्यक्तिगत स्तर पर इन्हें क्या मिलेगा? कुछ भी तो नहीं! लेकिन इन सबके मन में एक विचार समान रूप से काम कर रहा होगा - ‘कि दाना खाक में मिल कर, गुल-ओ-गुलजार होता है।’ यह भावना ही किसी राष्ट्र का मूल-धन होती है।


मेरी बात आपको अच्छी तो लगेगी ही और आप सफदरीजी के साथ-साथ मुझे भी सराहेंगे। किन्तु याद रखिएगा - मैं सफदरीजी की नहीं, उनके द्वारा शुरु की गई लायब्रेरी की बात कर रहा हूँ। यदि आप रतलाम में हैं तो ऐसा कुछ कीजिए कि लायब्रेरी को लेकर सफदरीजी की चिन्‍ता में कमी आए। और यदि आप रतलाम से बाहर हैं तो जब भी रतलाम आएँ, थोड़ी देर के लिए ही सही, ‘विजन 2020 लायब्रेरी’ अवश्य जाएँ।


वहाँ जाकर आपको कैसा लगा - यह जानने की उत्सुकता रहेगी मुझे।

प्रवक्‍ता डॉट काम की लेख प्रतियोगिता

समसामयिक विचार पोर्टल प्रवक्‍ता डॉट कॉम के तीन साल पूरे होने पर द्वितीय ऑनलाइन लेख प्रतियोगिता का आयोजन किया जा रहा है। इससे पूर्व प्रवक्‍ताके दो साल पूरे होने पर भी लेख प्रतियोगिता (http://www.pravakta.com/archives/18521) का आयोजन किया गया था।

इस बार प्रतियोगिता का विषय है मीडिया में व्‍याप्‍त भ्रष्‍टाचार

प्रथम पुरुस्‍कार: रु. 2500/, द्वितीय पुरुस्‍कार: रु. 1500/- एवं तृतीय पुरुस्‍कार रु. 1100/- तय किया गया है।

आयोजक के अनुसार लेख केवल हिन्दी भाषा में और 2000 से 3000 शब्दों के बीच होना चाहिए जो 16 नवम्बर 2011 तक मिल जाना चाहिए। परिणाम 25 नवम्बर 2011 को प्रवक्‍ता डॉट कॉम पर घोषित किए जाएँगे। लेख अप्रकाशित एवं मौलिक होना चाहिए। लेख प्रवक्‍ता डॉट कॉम पर प्रकाशित किया जायेगा एवं बाद में इसे पुस्‍तक का स्वरूप भी दिया जा सकता है। लेख के साथ जीवन परिचय (नाम/मोबाइल नम्‍बर/ई-मेल/पता/पद आदि का जिक्र) संस्थान/ एवं फोटोग्राफ भी भेजें।। पुरुस्कार की राशि चेक द्वारा भेजी जाएगी।

पुरुस्‍कार के सम्‍बन्‍ध में निर्णायक मण्‍डल का निर्णय सर्वोपरि होगा। अपना लेख ई-मेल के ज़रिये prawakta@gmail.com पर भेज सकते हैं। कृपया अपना लेख हिन्दी के युनिकोड फ़ोंट जैसे मंगल (Mangal) में अथवा क्रुतिदेव (Krutidev) में ही भेजें।

विस्‍तृत विवरण के लिए यहाँ क्लिक (http://www.pravakta.com/archives/31304) करें या फिर सम्‍पर्क करें: संजीव कुमार सिन्‍हा, सम्‍पादक, प्रवक्‍ता डॉट कॉम, मो. 09868964804

अण्णा को पता तो चले

भ्रष्टाचार के प्रति हमारी मानसिकता का सामान्य उदाहरण है यह।

शुक्रवार शाम साढ़े चार बजे मैं, भारत सरकार के एक उपक्रम के स्थानीय कार्यालय पहुँचा। सन्नाटा छाया हुआ था। कर्मचारियों के बैठनेवाला पूरा हॉल खाली था। पंखे चल रहे थे और बत्तियाँ जल रही थीं। कार्यालय प्रबन्धक और उनके दो सहायक, प्रबन्धक के कमरे में बैठे कागज निपटा रहे थे। दूर, एक कोने में, चतुर्थ श्रेणी के दो कर्मचारी, माथा झुकाए कागजों के ढेर में उलझे हुए थे। नगद लेन-देन का समय यद्यपि समाप्त हो चुका था किन्तु शायद हिसाब बराबर मिला नहीं होगा, सो खजांची अपने पिंजरे में बैठा कभी रुपये गिन रहा था तो कभी सामने रखे कागज पर लिखे आँकड़े देख रहा था। पूरे कार्यालय में सन्नाटा पसरा हुआ था। कुल जमा 6 लोग कार्यालय में थे किन्तु कोई भी आपस में बात नहीं कर रहा था। सब, अपने-अपने काम में लगे हुए थे।

अनुमति लेकर कार्यालय प्रभारी के कमरे में गया। पूछताछ के जवाब में मालूम हुआ कि सारे कर्मचारी अपने एक सहकर्मी के परिवार में हुई मौत पर शोक प्रकट करने गए हैं। यह पूछने का कोई अर्थ नहीं था कि वे वापस काम पर लौटेंगे भी या नहीं? स्पष्ट था कि कार्यालय का समय भले ही शाम सवा पाँच बजे तक का है किन्तु सबके सब, शोक संतप्त परिवार को साँत्वना बँधा कर अपने-अपने घर चले जाएँगे। अगले दिन शनिवार है - अवकाश का दिन। सो, अब मेरे काम के बारे में सोमवार को ही कुछ मालूम हो सकेगा। मैंने किसी से कुछ नहीं कहा। बुझे मन से लौट आया।

इस कार्यालय में मेरा आना-जाना बना रहता है। इतना कि, अण्णा हजारे के समर्थन में जब इस कार्यालय के कर्मचारियों ने जुलूस निकाला तो उन्होंने मुझसे भी शरीक होने का आग्रह किया। मैं भी राजी-राजी शरीक हुआ। जुलूस में केवल पुरुष कर्मचारी थे। महिला कर्मचारी शरीक नहीं हुईं। जुलूस में शामिल सारे कर्मचारियों ने ‘मैं अण्णा हूँ’ वाली सफेद टोपियाँ पहन रखी थीं। उन्होंने लाख कहा किन्तु मैंने टोपी नहीं पहनी। कोई आधा किलोमीटर घूम कर जुलूस समाप्त हुआ तो भाषणबाजी हुई। मैंने भी अण्णा के समर्थन में भाषण दिया और सराहना पाई।

वे ही सारे के सारे, लगभग पचीस कर्मचारी, निर्धारित समय से पौन घण्टे पहले कार्यालय से तड़ी मार कर, अपने सहकर्मी के शोक में शरीक होने का अपना व्यक्तिगत फर्ज निभाने चले गए थे। किसी ने अनुभव करने की कोशिश नहीं कि वे आम आदमी के समय पर डाका डाल कर अपनी व्यावहारिकता निभा रहे हैं। किसी ने नहीं सोचा कि इस पौन घण्टे में, अपना काम लेकर आनेवाले लोगों को कितना कष्ट होगा? किसी ने नहीं सोचा कि प्रत्येक कर्मचारी के इस पौन घण्टे का भुगतान, उन लोगों ने किया है जिन्हें इन कर्मचारियों की अकस्मात अनुपस्थिति के कारण अपने काम के लिए अड़तालीस घण्टों की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।

सारे कर्मचारियों को पता था कि मृत्यु वाले परिवार ने अगले दिन, शनिवार शाम पाँच बजे उठावना (तीसरे की बैठक) रखा है। किन्तु उस दिन तो छुट्टी है! सबको अपने-अपने काम निपटाने हैं। काम नहीं हो तो भी इस काम के लिए अलग से समय निकालना, तैयार होना, अपने घर से, अपना समय नष्ट करके आना पड़ेगा! कौन करे और क्यों करे यह सब? इसलिए, शुक्रवार को ही हो आया जाए और वह भी आम आदमी के पौन घण्टे पर डाका डाल कर, उसके काम, कार्यालय में अधूरे छोड़ कर। सवा पाँच बजे तक की प्रतीक्षा कौन करे और क्यों करे? वह समय तो अपने-अपने घर जाने का होता है! शोक प्रकट करना जितना जरूरी, उससे अधिक जरूरी है - समय पर अपने घर पहुँचना। आज तो और जल्दी पहुँच जाएँगे। शायद सवा पाँच बजे तो घर लग जाएँगे।


इन सबने अण्णा के समर्थन में जुलूस निकाला था। भ्रष्टाचार के विरोध में और अण्णा के समर्थन में जोर-शोर से नारे लगाए थे। सबने सफेद टोपियाँ पहनी थीं जिन पर लिखा था - मैं अण्णा हूँ।

अपनी यह करनी इनमें से किसी को भ्रष्टाचार नहीं लगी होगी। लगे भी कैसे? भ्रष्टाचार तो केवल आर्थिक होता है और आर्थिक भी वह जो नेता, अधिकारी, बड़े लोग करते हैं। इन्होंने तो एक पाई का भी भ्रष्टाचार नहीं किया। कर भी कैसे सकते हैं? ये तो सबके सब खुद ही अण्णा जो हैं!

अण्‍णा का अधूरा आह्वान

कोई सप्ताह भर की, हाड़-तोड़, शरीर को निचोड़ देनेवाली भागदौड़भरी व्यस्तता से मुक्त हो आज शाम बुद्धू बक्सा खोला तो पहला ही समाचार देखकर हतप्रभ रह गया। विभिन्न समाचार चैनलों में, नीचे पट्टी में बताया जा रहा था कि अण्णा ने, मतदाताओं से, हिसार लोकसभा उपचुनाव में फौरन ही और पाँच प्रदेशों के विधान सभा चुनावों में, संसद के शीतकालीन सत्र के बाद, स्थिति अनुसार, काँग्रेस को वोट न देने का आह्वान किया है। लगा कि समाचार को संक्षिप्त रूप में देने की विवशता के अधीन समाचार आधा ही दिया गया है। अत्यधिक अधीरता से एक के बाद एक, मेरे बुद्धू बक्से पर उपलब्ध, हिन्दी-अंग्रेजी के तमाम समाचार चैनल देख मारे किन्तु समाचार इतना ही था। थोड़ी देर में दो-तीन चैनलों पर अण्णा को यही आह्वान करते देख भी लिया। वहाँ भी बात काँग्रेस को वोट न देने तक ही सीमित रही।

अण्णा का यह आह्वान मुझे न केवल अधूरा और नकारात्मक अपितु उनके आन्दोलन के लिए सांघातिक लग रहा है। काँग्रेस को वोट न देने की अपील तो अपनी जगह ठीक है किन्तु यह नहीं बताया गया कि काँग्रेस को वोट न दें तो फिर किसे दें। यदि विकल्प नहीं सुझाया जा रहा है तो यह आह्वान सवालों के घेरे में आ जाएगा। होना तो यह चाहिए था कि अण्णा-समूह, मतदाताओं को बताता कि फलाँ-फलाँ उम्मीदवार अथवा पार्टी ने, अण्णा-समूह के जनलोकपाल को शब्दशः समर्थन दिया है, इसलिए उसे ही वोट दें। किन्तु विकल्प नहीं बताया जा रहा है और केवल काँग्रेस को वोट न देने का आह्वान किया जा रहा है। इस ‘अनकही’ का सन्देश तो यही जाएगा कि काँग्रेस को धूल चटा कर, उसके निकटतम प्रतिद्वन्द्वी दल को विजयी बनाया जाए।


उधर, किरण बेदी को यह कहते हुए प्रस्तुत किया गया कि भाजपा और लोक दल ने,

अण्णा-समूह के जनलोकपाल के पक्ष में पत्र दे दिए हैं। किन्तु ये दोनों पत्र सार्वजनकि नहीं किए जा रहे हैं। यह बात इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि लोकसभा में सुषमा स्वराज घोषित कर चुकी हैं कि अण्णा के जनलोकपाल के अनेक बिन्दुओं से भाजपा सहमत नहीं है।

अण्णा, काँग्रेस को वोट न देने का आह्वान अवश्य करें किन्तु अपनी निष्पक्षता और सदाशयता जताने के लिए उन्हें किसी विकल्प (यह विकल्प कोई पार्टी भी हो सकती है और/या अलग-अलग दलों के अलग-अलग उम्मीदवार भी) का सुझाव भी अवश्य देना चाहिए। ऐसा न होने पर एकमेव निष्कर्ष यही निकलेगा कि अण्णा-समूह निश्चय ही किन्हीं निहित राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति में सीधे-सीधे सहायक हो रहा है।


यदि यह आह्वान यूँ ही अधूरा बने रहने दिया गया तो आज भले ही काँग्रेस को पराजित करवा कर अण्णा-समूह आत्म-सन्तुष्ट होकर उत्सव मना ले। किन्तु इसके साथ ही अण्णा के आन्दोलन की निष्पक्षता और सदायता संदिग्ध ही नहीं अविश्वसनीय हो जाएगी। उस दशा में यह,एक मजबूत जन आन्दोलन के निराशाजनक अन्त का कारुणिक आरम्भ होगा।


मैं इस कल्पना मात्र से ही भयभीत हूँ। मैं अण्णा को असफल होते नहीं देखना चाहता।

जूझना अपने आप से

आज आठवाँ दिन है। इस पोस्ट के प्रकाशित होते-होते नौवाँ दिन हो जाएगा। विचित्र सा अनमनापन छाया हुआ है। कुछ भी करने को जी नहीं होता। लिखने को इतना कुछ है कि अविराम लिखूँ तो पाँच-सात दिन लिखता रहूँ। किन्तु जब-जब भी लिखने की कोशिश की, हर बार असफल रहा। बीसियों बार लेपटॉप खोला, लिखना चाहा किन्तु एक बार भी लिख नहीं पाया। अंगुलियाँ ही नहीं चलीं। लेपटॉप के कोरे, खाली पर्दे को सूनी आँखों से देखता रहा। मन पर कोई बोझ भी नहीं है और न ही किसी से कोई कहासुनी ही हुई। सब कुछ सामान्य। किन्तु विचित्र रूप से असामान्य।

मेरा मेल बॉक्स भरा पड़ा है - सन्देशों से भी और ई-मेल से मिले ब्लॉगों से भी। सन्देश वे ही पढ़े जो बीमे से जुड़े थे या फिर दो अक्टूबर को, ‘हम लोग’ के संयोजन में होनेवाले, प्रोफेसर पुरुषोत्तमजी अग्रवाल के व्याख्यान से जुड़े थे। इन सन्देशों को खोलना मजबूरी थी - धन्धे की भी और आयोजन की जिम्मेदारी की भी।

गिनती तो नहीं की किन्तु कोई तीस-पैंतीस अनपढ़े ब्लॉग तो होंगे ही मेरे मेल बॉक्स में। सबके सब मेरे प्रिय ब्लॉग। पढ़ने की कोशिशों का हश्र भी, लिखने की कोशिशों जैसा ही रहा। भूले-भटके कोई ब्लॉग खोला भी तो एक वाक्य भी नहीं पढ़ पाया। यही हाल अखबारों का भी हुआ। ‘जनसत्ता’ का पाठक केवल मैं ही हूँ मेरे घर में। इन दिनों के, ‘जनसत्ता’ के सारे अंक, बिना खोले ही रखे हुए हैं - जस के तस। कुछ इस तरह मानो उनसे मेरा कोई सरोकार ही न हो। पत्र आते कम हैं और लिखता ज्यादा हूँ। देख रहा हूँ कि इन आठ-नौ दिनों में सात अनुत्तरित पत्रों के अलावा कोई सत्ताईस-अट्ठाईस पत्र अपनी ओर से लिखने के लिए सूचीबद्ध हो गए हैं। यह नहीं कि यह अनमनापन केवल पढ़ने-लिखने तक ही सीमित रहा। इन दिनों में बेची गई पूरी उनतीस बीमा पॉलिसियों की प्रविष्टियाँ भी अपने रेकार्ड में नहीं कर पाया हूँ। समाचार देखने के लिए बुद्धू बक्सा जब-जब भी खोला, तब-तब हर बार अपने आप पर ही हैरान हुआ। पर्दे पर क्या दिखाया जा रहा है और क्या बोला जा रहा है - समझ ही नहीं पड़ा।


क्या हो रहा है मुझे? 27-28 सितम्बर, मंगलवार-बुधवार की सन्धि-रात्रि में, अपने आप से जूझकर यह सब लिख रहा हूँ कुछ इस तरह मानो खुद के साथ जबरदस्ती कर रहा हूँ या खुद को सजा दे रहा हूँ। यूँ तो फटाफट लिखता हूँ किन्तु इस समय मानो अपनी सम्पूर्ण शक्ति लगानी पड़ रही है। नितान्त अनिच्छापूर्वक करना पड़ रहा हो, ऐसा लग रहा है।

यह उदासीनता है या जड़ता की शुरुआत? मैं सम्वेदनशून्य या सम्वेदनाविहीन तो नहीं हो रहा? अच्छा भला घर से निकलता हूँ, यार-दोस्तों के बीच खूब हँस रहा-हँसा रहा हूँ, जमकर अड्डेबाजी कर रहा हूँ, दोनों समय भोजन कर रहा हूँ। याने कि बाकी सब तो सामान्य और पूर्वानुसार ही। किन्तु केवल लिखने-पढ़ने के नाम पर जड़ता! कहीं यह बढ़ती उम्र का असर तो नहीं?


जानता हूँ कि सारे सवालों के जवाब मेरे अन्दर ही हैं किन्तु भरपूर कोशिशों के बाद भी उन्हें हासिल नहीं कर पा रहा हूँ। क्या इन कोशिशों के मामले में अपने आप से बेईमानी कर रहा हूँ?

यह कैसी दशा है? क्या ऐसा सबके साथ होता है? होता है तो कितने समय तक यह दशा बनी रहती है? क्या किसी वैद-हकीम से मशवरा किया जाना चाहिए? या किसी मनः चिकित्सक से?


कुछ भी समझ नहीं पा रहा हूँ। जी करता है कोई मुझे समझाइश दे किन्तु जब भी किसी से बात की और उसने समझाना चाहा तो मुझे चिढ़ छूट गई और झल्ला कर चला आया - ‘मैं उसे समझूँ हूँ दुश्मन, जो मुझे समझाय है’ को चरितार्थ करता हुआ।

देखता हूँ, आगे क्या होता है। लिखने-पढ़ने का सिलसिला शुरु होता है या नहीं? होता है तो कब और कैसे?

इसका शीर्षक आप ही दीजिए

यह सब अनूठी, अनपेक्षित, विचित्र और उल्लेखनीय भले ही न हो किन्तु ‘लेखनीय’ और प्रथमदृष्टया रोचक तो है ही।

आयु में मुझसे छोटे किन्तु मेरे संरक्षक की भूमिका निभा रहे सुभाष भाई जैन के आग्रह पर हम लोगों ने एक संस्था बनाई। यह संस्था क्या करेगी और कैसे करेगी, इस पर बात करूँगा तो विषय भंग हो जाएगा। तनिक (याने भरपूर) सोच-विचार के बाद इसका नाम दिया गया - ‘हम लोग।’ इसका कामकाज कुछ ऐसा कि इससे जुड़ने पर ‘दो पैसे’ भी देने पड़ेंगे, हाजरी भी देनी पड़ेगी और मिल गई तो कोई जिम्मेदारी भी निभानी पड़ेगी। ऐसी अटपटी शर्तें माननेवाले ‘सूरमा’ कौन-कौन हो सकते हैं, यह याद करते हुए हम लोगों ने अपने-अपने परिचय क्षेत्र के ऐसे साहसी लोगों के नाम लिखने शुरु किए। हम आठ लोग मिल कर ऐसे सौ लोग भी तलाश नहीं कर पाए। आँकड़ा अस्सी को भी नहीं छू सका।

कोई दस महीनों की मशक्कत के बाद छाँटे गए, ‘अपना घर बारनेवाले’ इन्हीं सम्भावित शूरवीरों के साथ पहली बैठक बुलाई गई इसी ग्यारह सितम्बर रविवार को। शनिवार रात से ही अच्छी-खासी बरसात शुरु हो गई थी जो रविवार को भी जस की तस बनी रही। स्थिति कुछ ऐसी कि यदि बैठक हम ने ही नहीं बुलाई होती तो हम भी नहीं जाएँ। बैठक के निर्धारित समय दस बजे से कोई आधा घण्टा पहले मैं पहुँचा तो पाया कि मुझे ही सबकी अगवानी करनी है। हम आठ-दस भी सबके सब लगभग ग्यारह बजे एकत्र हो पाए। धीरे-धीरे लोग आने शुरु हुए। जिन पर खुद जितना भरोसा था ऐसे कुछ लोगों को डाँट-डपट कर तो कुछ से गिड़गिड़ाकर, बैठक में आने को कहा। बारह बजते-बजते हम लगभग चालीस लोग एकत्र हो गए।

बैठक शुरु हुई। संस्था के बारे में मैंने बताया और आमन्त्रितों के विचार जानने का सिलसिला शुरु हुआ। दो को छोड़कर शेष सब बोले। कोई पौने दो बजे बैठक समाप्त हुई। गपियाते हुए और अपने-अपने वक्तव्यों को परस्पर दोहराते हुए सबने सह-भोज का आनन्द लिया। तीन बजते-बजते हम लोग अपने-अपने घरों में थे।

सोमवार के अखबारों ने हमें चकित किया। प्रमुख अखबारों ने हमारी अपेक्षाओं और अनुमानों से कहीं अधिक विस्तार और प्रमुखता से सचित्र समाचार छापे थे। हम आठ-दस ने फोन पर एक-दूसरे को बधाइयाँ दीं। हम सब ‘परम प्रसन्न’ थे। लगा, ‘अच्छी शुरुआत याने आधी सफलता पर कब्जा’ वाली कहावत सच हो गई हो।

सुबह कोई पौने ग्यारह बजे एक परिचित का फोन आया। ‘हम लोग’ के गठन के लिए बधाइयाँ दी और कहा - ‘इसमें मेरा नाम भी लिख लीजिएगा।’ मैंने शर्तें बताईं तो बोले - ‘सुने बिना ही आपकी सारी शर्तें मंजूर हैं।’ उसके बाद, एक के बाद एक कुल जमा सात फोन आए और प्रत्येक ने अपना नाम लिखने और सारी शर्तें मानने की बात कही। अगले दिन, मंगलवार को छः फोन आए और सबने उसी प्रकार ‘आँख मूँदकर सारी शर्तें कबूल’ की तर्ज पर ‘हम लोग’ से जुड़ने की बात कही। मैंने ‘आठ-दस’ में बाकियों से सम्पर्क किया तो मालूम हुआ कि दो के पास ऐसे ही, ‘हम लोग’ की शर्तों पर जुड़ने के लिए एक-एक फोन आ चुके हैं। याने कुल पन्द्रह लोग अपनी ओर से जुड़े, ‘हम लोग’ की शर्तों पर जुड़े और अपनी ओर से फोन करके जुड़े। मेरी प्रसन्नता अब कौतूहल में बदल गई। यह क्या हो रहा है? क्या सतयुग आ गया कि लोग पैसे भी देने, हाजरी भी बजाने और जिम्मेदारी भी कबूलने को तैयार हो रहे हैं! खुद-ब-खुद! आगे होकर फोन करके हैं! मुझे तनिक घबराहट हुई - कहीं समाचारों में ‘हम लोग’ के कामकाज के बारे में कोई भ्रामक बात तो नहीं छप गई कि लोगों ने इसे ‘एण्टरटेनमेण्ट क्लब’ तो नहीं समझ लिया? सारे समाचार एक बार फिर पढ़े - खूब ध्यान से। नहीं। किसी भी अखबार में एक शब्द भी भ्रामक या अनर्थ करनेवाला नहीं था। फिर यह क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है? पूछूँ तो किससे पूछूँ?

उलझन रात भर बनी रही। सुबह भी उलझन जस की तस थी। चाय के साथ अखबार-पान चल रहा था कि मोबाइल की घण्टी बजी। इस बार भी वही आग्रह था। बात शुरु होते ही मैंने तय कर लिया - इनसे पूछूँगा। वे फोन रखते उससे पहले ही मैंने कहा - ‘आखिर ऐसी क्या बात हो गई कि आप महरबान हो गए?’ उनके जवाब ने मुझे धरती पर ला पटका। वे फोन बन्द कर चुके थे। मुझे सम्पट बँधती कि एक और फोन आया। सब कुछ वही का वही। मैंने इनसे भी पूछा - ‘क्यों?’ इनका जवाब भी वही रहा जो पहले का था। अब मुझे बात समझ में आई। पहले तो मैं खूब हँसा - अकेले ही, किन्तु कुछ ही क्षणों में मेरी हँसी बन्द हो गई। इस बात पर मेरा हँसना वाजिब होगा या चिन्ता करना? मैं खुद से कोई जवाब पाता कि एक के बाद एक तीन फोन लगातार आ गए। तीनों ने मानो पहले आपस में बात की हो और फिर मुझे फोन किया हो। केवल शब्दों का अन्तर किन्तु सन्देश भी और मेरी जिज्ञासा का जवाब भी वही का वही।

मैंने ‘वह बात’ जान बूझ कर अब तक नहीं लिखी है। यकीन मानिए, नामों की सूची बनाते समय हममें से किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया था। हममें से प्रत्येक ने संस्था के उद्देश्यों के अनुरूप सम्भावित सहयोगियों के नाम लिखे थे। किन्तु अनजाने में ही हम आठ-दसों ने वह समानता बरत ली जो मेरी जिक्षासा का उत्तर बनी। बाद में मैंने पहले दो दिनों में फोन करनेवाले पन्द्रह लोगों में से कुछ से पूछा तो उनसे भी वही बात सामने आई।


अब तक आपकी जिज्ञासा बढ़ गई होगी और कोई ताज्जुब नहीं कि आप मुझ पर चिढ़ने लगे हों। तो सुन लीजिए वह जवाब जो अलग-अलग शब्दों में कमोबेश एक ही था - ‘आपकी संस्था पर हमें विश्वास है कि आप झाँकीबाजी और दुकानदारी नहीं करेंगे क्योंकि जितने नाम छपे हैं उनमें किसी भी नेता का नाम नहीं है।’