जनता के सेवक बनाम नौकरों के नौकर

ये हैं मनोहर ऊँटवाल। रतलाम जिले के आलोट विधान सभा क्षेत्र से विधायक हैं और इस समय मध्य प्रदेश सरकार में राज्य मन्त्री हैं। भले आदमी हैं और अब तक भ्रष्टाचार, गुटबाजी जैसे विवादों से बचे हुए हैं। दो-एक बार इनसे मिलने का प्रसंग आया था। तब वे मन्त्री नहीं थे। उस समय का मेरा अनुभव है कि वे कम बोलते हैं और धीमा बोलते हैं। नहीं जानता कि मन्त्री बनने के बाद उनकी इस आदत में कितना बदलाव आया या बदलाव आया भी कि नहीं।

चूँकि इनका विधान सभा क्षेत्र रतलाम जिले में है सो इनका रतलाम आना-जाना सहज-स्वाभाविक रूप से बना ही रहता है। राजनीतिक रूप से भी यह आवश्यक है।

गए दिनों इनके माध्यम से हमारे राजनेताओं का वह स्वरूप सामने आया जिसके चलते ही लोहिया ने मन्त्रियों को ‘नौकरों का नौकर’ हो जाने का निष्कर्ष प्रस्तुत किया था।

पूरे प्रदेश में बिजली की कमी से हा-हाकार मचा हुआ है। बिजली कटौती शहरों-कस्बों में कम और गाँवों में बहुत ज्यादा हो रही है - बारह घण्टों की कटौती तो सामान्य बात है। यह अवधि कभी-कभी अठारह-बीस घण्टे भी हो जाती है।

गाँववालों का एक ही अपराध है कि वे गाँववाले हैं। मतदाताओं में उनका बहुसंख्यक होना भी उनका अपराध कम नहीं कर पाता। उनका अपराध यह भी है कि गाँव बिखरे हुए हैं और अखबारों में उनकी बातों को, उनके कष्टों को वह प्रमुखता नहीं मिलती जो शहरों/कस्बों के लोगों की छोटी-छोटी बातों को मिल जाती है। गाँवों का और गाँववालो का बिखरा होना, असंगठित होना भी उनका एक बड़ा अपराध है। शहरों/कस्बों के लोग जिस तरह से एक आवाज पर एकत्र हो जाते हैं और सरकार की खटिया खड़ी कर देते हैं, वैसा गाँववाले सामान्यतः नहीं कर पाते। गाँववालों का एक अपराध और है - वे शहरों/कस्बों में रहनेवालों की तरह एकजुट होकर अखबारों के जरिए ‘जनमत’ नहीं बना पाते।

ऐसे ही कुछ सौ गाँववाले गए दिनों रतलाम कलेक्टोरेट में एकत्र हो गए। ग्राम बिलपाँक के बिजली वितरण केन्द्र से जुड़े गाँवों के ये निवासी, बिजली कटौती की भीषणता को सहन नहीं कर पाए। जब उन्हें खबर लगी कि मनोहर ऊँटवाल रतलाम आ रहे हैं तो अल्पावधि की इस सूचना पर जितने लोग आ सकते थे, रतलाम आ गए।

जैसा कि होना था, गाँववालों ने अपने होने का अहसास कराया। उस समय मनोहर ऊँटवाल, जिलाधिकारियों की बैठक ले रहे थे। कोलाहल सुनकर कलेक्टर ने एक डिप्टी कलेक्टर को बाहर भेजा। किसानों ने अपनी पीड़ा जताई और चेतावनी दी कि यदि उन्हें आवश्यकतानुसार बिजली नहीं मिली तो वे रतलाम-इन्दौर फोर लेन हई वे पर जाम लगा देंगे। डिप्टी कलेक्टर ने अपना डिप्टी कलेक्टरपना बताया और कहा कि लोगों ने यदि कानून हाथ में लिया तो पुलिस को लाठियाँ चलानी पड़ जाएँगी। गाँववालों ने कहा - ‘लाठियाँ क्यों? आप तो गोली चलवा देना साहब।’ डिप्टी कलेक्टर की बोलती बन्द हो गई। उसने समझाने की कोशिश की तो गाँववालों बात करने से मना कर दिया। साफ कहा - ‘मन्त्रीजी को बुलाओ। हम उन्हीं से से बात करेंगे।’

डिप्टी कलेक्टर ने कहा - ‘मन्त्रीजी जब निकलेंगे तब निकास द्वार पर जाकर बात कर लेना।’ गाँववालों ने कहा - ‘हम कहीं नहीं जाएँगे। इसी दरवाजे पर खड़े रहेंगे। मन्त्रीजी यहीं, इसी दरवाजे पर आकर हमसे मिलें।’

डिप्टी कलेक्टर अन्दर गया। थोड़ी ही देर में लौटा और बोला - ‘मन्त्रीजी मीटिंग में व्यस्त हैं। मीटिंग समाप्त होने पर, कोई घण्टे भर बाद आपसे मिलेंगे।’ गाँववालों ने भलमनसाहत बरती और प्रतीक्षा करना मंजूर किया।

कोई घण्टे भर बाद, मीटिंग खत्म होने पर मन्त्रीजी बाहर आए, गाँववालों की बात सुनी। पारम्परिक आश्वासन दिया और मन्त्रीजी अपने रास्ते, गाँववाले अपने रास्ते चले गए।

यही वह क्षण था जब लोहिया की बात सच साबित हुई। मन्त्रीजी ने प्राथमिकता अधिकारियों की मीटिंग को दी, गाँववालों को नहीं। और तो और, मीटिंग से तत्काल न आ पाने के लिए भी मन्त्रीजी ने कोई दुःख प्रकट नहीं किया। उन्होंने पल भर भी नहीं सोचा कि बड़ी संख्या में आए गाँववाले, आश्विन महीने की तेज धूप में (लोकोक्ति के अनुसार, आश्विन महीने की धूप इतनी तेज होती है कि जंगल में विचरण कर रहे हिरण भी साँवले पड़ जाते हैं) कैसे और कब तक खड़े रहेंगे जबकि तमाम अधिकारी तो, वातानुकूलित कक्ष में, आरामदायक कुर्सियों पर पसरे हुए थे। हाँ, यह महत्वपूर्ण अन्तर अवश्य था कि गाँववाले खरी-खोटी सुना सकते थे जबकि अधिकारी चिरपरिचति ‘हें, हें’ करते हुए चापलूसी और जी हुजूरी कर रहे थे। जाहिर है, खरी-खोटी पर चापलूसी हावी रही। उस समय मन्त्रीजी को पल भर भी याद नहीं आया कि गाँववालों ने ही उन्हें मन्त्री पद तक पहुँचाया है, अधिकारियों ने नहीं।

इससे भी अधिक महत्वपूर्ण और सम्वेदनशील बात - यदि चुनाव सामने होते तो क्या कोई मन्त्री ऐसा व्यवहार कर पाता?

हमारे तमाम मन्त्री और निर्वाचित जन प्रतिनिधि केवल चुनावी मौसम में ही ‘जनता के सेवक’ होते हैं। अन्यथा तो वे ‘नौकरों के नौकर’ ही होते हैं।

बेचारे मनोहर ऊँटवाल का (और मेरा भी) दुर्भाग्य कि वे इस प्रकरण के नायक हो गए। इसे ऊँटवाल पर टिप्पणी बिलकुल ही नहीं माना जाना चाहिए। यहाँ कोई भी मन्त्री हो सकता था। ऊँटवाल तो केवल एक नाम भर है।

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4 comments:

  1. संवेदना का जो स्तर होना चाहिये, वह नहीं है।

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  2. अद्भुत बैरागीजी...
    गाँववालों का एक ही अपराध है कि वे गाँववाले हैं। मतदाताओं में उनका बहुसंख्यक होना भी उनका अपराध कम नहीं कर पाता। उनका अपराध यह भी है कि गाँव बिखरे हुए हैं और अखबारों में उनकी बातों को, उनके कष्टों को वह प्रमुखता नहीं मिलती जो शहरों/कस्बों के लोगों की छोटी-छोटी बातों को मिल जाती है। गाँवों का और गाँववालो का बिखरा होना, असंगठित होना भी उनका एक बड़ा अपराध है। शहरों/कस्बों के लोग जिस तरह से एक आवाज पर एकत्र हो जाते हैं और सरकार की खटिया खड़ी कर देते हैं, वैसा गाँववाले सामान्यतः नहीं कर पाते। गाँववालों का एक अपराध और है - वे शहरों/कस्बों में रहनेवालों की तरह एकजुट होकर अखबारों के जरिए ‘जनमत’ नहीं बना पाते।
    वाकई आपने जो लिखा है वह सही है साथ ही यह भी सही है कि श्री ऊंटवाल भी केवल संज्ञा भर हैं। मंत्री होना उनकी गलती नहीं है यह विचार करना उनका काम है भी नहीं। यह सोचना है जनता को जिन्होंने उन्हें चुना। जनता की गलती यह है कि वह जनता है। वह मंत्री क्यों नहीं है...

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  3. ‘ भले आदमी हैं और अब तक भ्रष्टाचार, गुटबाजी जैसे विवादों से बचे हुए हैं। ’

    ऐसे तो बहुत कम दिखे जी :)

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  4. gaon valon ka yahi apradh hai ki is samay chunav nahi ho rahe hain !

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