गाँधी: मेड इन यू. एस. ए.


नहीं जानता कि यह सुझाव मैं किसे दे रहा हूँ। यह भी नहीं जानता कि मेरे इस सुझाव को पढ़ेगा/सुनेगा कौन? और यह तो बिलकुल भी नहीं जानता कि यदि किसी ने, भूले भटके पढ़/सुन लिया भी तो इस पर अमल करवा पाएगा भी या नहीं?

मेरा सुझाव है कि गाँधी के 142वें जन्म दिवस पर यह देश उन्हें मुक्त कर दे। गाँधी के नाम की दुहाई देना बन्द कर दे। बहुत हो गया गाँधी! गाँधी!! यदि ऐसा कर लिया तो यह गाँधी की सबसे बड़ी सेवा होगी।

आजादी मिलने के साथ ही कांग्रेस को विसर्जित करने की, गाँधी की इच्छा का तिरस्कार करने के पहले ही क्षण से कांग्रेस ने गाँधी से पल्ला झाड़ना शुरु कर दिया था। गाँधी का अर्थ एक आदमी न होकर ‘आचरण’ था जिसे देश ने ‘प्रतीक’ में बदल कर रख दिया। गाँधी ने कभी सोचा भी नहीं था कि उन्हें ‘वाद’ में बाँध दिया जाएगा। आज, गाँधीवाद जरूर है, गाँधी के अते-पते नहीं।

पहले तो आँख की शरम पाली जा रही थी। किन्तु 1991 में, मनमोहन सिंह के वित्त मन्त्री बनने के साथ ही आँख का पानी मर गया। मनमोहन सिंह के पहले बजट से ही घोषित कर दिया गया था कि गाँधी का ‘अन्तिम आदमी’ अब इस देश की प्राथमिकता सूची से हटा दिया गया है।

जिस नमक को हथियार बना कर गाँधी ने अंग्रेजी राज की चूलें हिला दी थीं, वही नमक इस देश के ‘अन्तिम आदमी’ से छीन लिया गया। इस हरकत के लिए शर्म आनी चाहिए थी लेकिन इसे उदारीकरण, वैश्वीकरण का नाम देकर बेशर्मी को गहना बना लिया गया।

जिस खादी को गाँधी ने वस्त्र क्रान्ति में बदल दिया था, जिसके जरिए करोड़ों हाथों को काम दिया था, जिससे करोड़ों अधनंगे शरीरों की लाज ढँकी थी, उसी खादी को आज बाजार की शक्तियों के हाथों में सौंपा जा रहा है। ‘गाँधी-बिक्री’ पर एकाधिकार रखनेवाली कांग्रेस के नेतृत्ववाली केन्द्र सरकार ने, खादी को दी जा रही 20 प्रतिशत की छूट वापस लेने का फैसला ले लिया है। 1920 से निरन्तर दी जा रही यह छूट प्रति वर्ष 2 अक्टूबर से शुरु होती थी और पूरे 108 दिनों तक मिलती थी। इस छूट के आकर्षण के कारण ही, खादी की पूरे साल की बिक्री की 85 प्रतिशत बिक्री इन 108 दिनों में होती रही है। गाँधी ने कहा था - ‘खादी से ऐसे प्यार करो जैसे कोई माँ अपनी कुरूप सन्तान से करती है।’ प्यार करना तो दूर रहा, सरकार ने इस कुरूप सन्तान की मृत्यु सुनिश्चित कर दी। ठीक भी है, कुरूप सन्तान न केवल परिवार का संकट होती है बल्कि परिवार की सुन्दरता भी नष्ट करती है।

रोजगार के अवसर बढ़ाने को अपनी प्राथमिकता बतानेवाली सरकार के इस कदम से देश के लगभग 1950 मान्यता प्राप्त खादी संस्थान, इनसे जुड़े 55 हजार वेतनभोगी कर्मचारी तथा लगभग तीन लाख कतिन-बुनकर सीधे-सीधे नकारात्मक रूप से प्रभावित होंगे। कोई आश्चर्य नहीं कि ये सब के सब बेरोजगार होकर सड़क पर आ खड़े हों। बाजारवाद के इस समय में निगमित संस्थानों द्वारा ग्राहकों को दी जा रही आकर्षक छूट तथा अन्य प्रलोभनों के चलते खादी से जुड़े तमाम संस्थानों, उपक्रमों पर तालाबन्दी की नौबत आनी ही आनी है।

मजे की बात यह है कि खादी पर दी जा रही यह छूट वापस लेने का मूल प्रस्ताव, अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्ववाली ‘राजग’ सरकार ने लिया था। किन्तु राष्ट्रीय स्वयम् सेवक संघ पर लगे हुए, गाँधी हत्या के आरोप के चलते ‘राजग’ सरकार अपने इस प्रस्ताव को लागू करने की हिम्मत नहीं जुटा पाई। यह ‘नेक काम’ अब कांगे्रस नेतृत्ववाली संप्रग सरकार कर रही है। गोया, गाँधी की हत्या एक बार ही पर्याप्त नहीं थी!

एक काम और किया जा रहा है। गाँधी के चरखे को बिजली (सौर ऊर्जा) से चलाने का जतन किया जा रहा है और ऐसी व्यवस्था की जा रही है कि सूरज की रोशनी न मिलने पर भी सौर ऊर्जा बराबर मिलती रहे और चरखा चलता रहे।

जिस खादी को नेहरु ने ‘आजादी का बाना’ कहा था उसकी एक मात्र व्याख्या है - ‘हाथ कती, हाथ बुनी।’ अब यह ‘हाथ कती’ नहीं रह जाएगी। यदि ऐसा हो गया तो खादी का ‘स्वत्व’ और खादी वस्त्रों का महत्व ही समाप्त हो जाएगा।

गाँधी की अध्यक्षता में स्थापित ‘अखिल भारतीय चरखा संघ’ ने भारत के कोई 30 हजार गाँवों के 20 लाख बुनकरों और कारीगरों को संगठित कर उन्हें जीवन निर्वाह का पारिश्रमिक दिया था। चरखे के बिजली से चलने के कारण इन कामगारों की संख्या मे गिरावट सुनिश्चित है। चरखे में बिजली लग जाने के बाद एक चरखा कोई चार-पाँच कतिनों का काम छीन लेगा। इसका एक ही परिणाम और अर्थ होगा - बेरोजगारों की भीड़ में वृद्धि। कहाँ तो इस देश के अधिक से अधिक लोगें को रोजगार दिए जाने की आवश्यकता है और कहाँ, इसके उलट सरकार का यह काम? वह भी गाँधी के नाम पर? लगता है, राजघाट को नीलाम करके ही दम लेंगे।

समाज के अन्तिम आदमी के नाम पर मनमोहन सिंह और उनकी सरकार को अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा नजर आते हैं जिनकी प्रसन्नता की चिन्ता करते हुए, हमारी आणविक जवाबदारी सन्धि में, देश के हितों की रक्षा और चिन्ता को परे सरका कर, अमरीकी हितों की चिन्ता की जा रही है।

लेकिन कांग्रेस ही क्यों? अब तो ‘संघ परिवार’ भी गाँधी की दुहाइयाँ देने लगा है। इससे यह तो साबित होता है कि इस देश में गाँधी के बिना किसी काम चलनेवाला नहीं। किन्तु ‘संघ’ जब गाँधी को उद्धृत करता है तो लगता है, शैतान बाइबिल का पाठ कर रहा है।

कहता तो हर कोई यही है कि केवल भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में गाँधी आवश्यक भी हैं और सदैव प्रासंगिक भी। किन्तु सबको ‘गाँधी बिक्री से लाभ’ ही चाहिए। गाँधी, गाँधी परम्परा और गाँधी आचरण की चिन्ता किसी को नहीं।

आज गाँधी ‘घर का जोगी’ की दशा प्राप्त कर चुके हैं। घर में उनकी कोई पूछ परख नहीं रह गई है। हाँ, विदेशों में उनकी स्वीकार्यता पल-पल बढ़ रही है, उनके माननेवालों की संख्या विदेशों में निरन्तर बढ़ रही है। उपेक्षा या अनदेखी कहीं हो रही है तो केवल भारत में ही।

इसलिए, गाँधी के 142वें जन्म दिवस पर मेरा सुझाव है कि यह देश गाँधी का नाम लेना, गाँधी के नाम की दुहाइयाँ देना बन्द कर, उन्हें निर्वासित कर दे। विदेशों में उनके लिए असीमित सम्मान भाव उनकी प्रतीक्षा कर रहा है।

वैसे भी, गाँधी की कुर्बानी से मिली आजादी के बाद भी हम लोग आज भी मानसिक गुलामी से मुक्त नहीं हो पाए हैं। हमें अपने देश पर, अपने देश के व्यक्तित्वों पर, अपने देश की बनी चीजों पर न तो गर्व है और न ही विश्वास। हमें वही चीज अच्छी और विश्वसनीय लगती है जिस पर विदेशी ठप्पा लगा हो।

इसलिए आज गाँधी को निर्वासित कर दें ताकि आनेवाले कुछ बरसों के बाद हम उन्हें स्वीकार कर सकें - जब उन पर ‘मेड इन यू एस ए’ का ठप्पा लग जाए।

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4 comments:

  1. अन्तिम व्यक्ति का नारा देने वाले गाँधीजी, अनुसरण करने योग्य व्यक्तियों की कतार में अन्तिम व्यक्ति बना दिये गये हैं।

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  2. ‘यह तो बिलकुल भी नहीं जानता कि यदि किसी ने, भूले भटके पढ़/सुन लिया भी तो इस पर अमल करवा पाएगा भी या नहीं’
    हम्ने पढ/सुन लिया... अमल करने का काम बडे भाई[ईश्वर] का है :)

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  3. प्यार करना तो दूर रहा, सरकार ने इस कुरूप सन्तान की मृत्यु सुनिश्चित कर दी। ठीक भी है, कुरूप सन्तान न केवल परिवार का संकट होती है बल्कि परिवार की सुन्दरता भी नष्ट करती है।
    तभी तो दिल्ली मे खेले जा रहे गुलामो के खेल से पहले इस कुरुप संतान को धक्के मार कर दिल्ली से बाहर कर दिया, केसे गुजारा करेगा यह कुरुप इंसान, बच्चो को क्या खिलायेगा? यह नही सोचा किसी ने बस हमारे आकाओ को सुंदरता दिखे चारो ओर, इस लिये इन कुरुपो को ही भगा दिया..... जय हो.
    आप के लेख ने आंखे खोल दी, बहुत सही लिखा, काश यह लेख आज नकली गांधी भी पढ ले जो कलंक की तरह से देश के सिहांसन पर विराज मान है

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  4. अपकी एक एक बात से सहमत हैं। आज तो बस 100 के नोट पर ही गाँधी जी की तस्वीर अच्छी लगती है। वैसे उन्हें कौन याद करता है। बापू जी व लालबहादुर शास्त्री जी को शत शत नमन।

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