कल तय होगी परसों की दशा-दिशा


मुझे नहीं लगता कि कल कुछ होगा। सब कुछ शान्त, राजी-खुशी रहेगा। तनाव से शुरु हुआ दिन शाम होते-होते यदि तनाव मुक्त नहीं भी हो पाया तो भी अधिक तनाव युक्त समाप्त नहीं होगा।

तीन न्यायाधीशोंवाली, इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खण्ड पीठ, कल अपराह्न साढ़े तीन बजे, अयोध्या प्रकरण पर अपना बहु प्रतीक्षित निर्णय सुनाएगी। सबकी धड़कनें बढ़ी हुई हैं। लोगों के चेहरों पर तनाव और भय साफ-साफ दिखाई दे रहा है। प्रशासन अतिरिक्त सतर्कता बरत रहा है। अधिकारियों ने अपने स्तर पर यथेष्ठ व्यवस्थाएँ कर ली हैं। किसी भी आपात् स्थिति के लिए सब कुछ तैयार है। जहाँ-जहाँ भाजपा की सरकारें हैं, वहाँ-वहाँ अतिरिक्त चिन्ता, अतिरिक्त भय और अतिरिक्त दहशत अनुभव की जा रही है। दूसरों की छोड़ दें, खुद भाजपा अतिरिक्त सतर्कता बरतती नजर आ रही है। कर्नाटक सरकार ने 28 सितम्बर को ही घोषित कर दिया है कि वहाँ 29 और 30 सितम्बर को स्कूलों/कॉलेजों में अवकाश रहेगा। मैं 28 सितम्बर की आधी रात के बाद यह सब लिख रहा हूँ। तब तक तो मध्य प्रदेश सरकार ने ऐसी कोई घोषणा नहीं की है किन्तु लग रहा है कि 30 सितम्बर को स्कूलों में सन्नाटा ही रहेगा। सड़कें भी वीरान रह सकती हैं। मुख्य मन्त्री शिवराज सिंह चौहान घोषित कर चुके हैं कि यदि कहीं कोई गड़बड़ हुई तो वहाँ के अधिकारी ही जवाबदार होंगे। उन्होंने अधिकारियों को ‘फ्री हेण्ड’ देने की सार्वजनिक घोषणा भी कर दी है। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने मन्त्रियों को सार्वजनिक रूप से हिदायत भी दी है कि वे (मन्त्री) प्रशासन में हस्तक्षेप न करें। यह अलग बात है कि इस सार्वजनिक हिदायत ने मन्त्रियों द्वारा प्रशासन में हस्तक्षेप करने की बात को मुख्‍यमन्‍त्री की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति दे दी है।

इस सबके बाद भी मुझे लगता है कि 30 सितम्बर का दिन बिना किसी बड़ी घटना के बीत जाएगा और प्रशासन को कोई अप्रिय कार्रवाई नहीं करनी पड़ेगी। हाँ, 30 सितम्बर का दिन आनेवाले समय की दशा और दिशा अवश्य निर्धारित कर देगा।

ऐसा सोचने के लिए मेरी अपनी कुछ धारणाएँ हैं। लखनऊ उच्च न्यायालय खण्ड पीठ का निर्णय इस प्रकरण का अन्तिम निर्णय नहीं होगा। जो भी पक्ष असन्तुष्ट होगा, उसके लिए सर्वोच्च न्यायालय में जाने का विधि सम्मत रास्ता खुला रहेगा। याने जिसे भी, जो भी करना होगा, वह सर्वोच्च न्यायालय के अन्तिम निर्णय के बाद ही करेगा।

मुसलमानों के पास खोने के लिए कुछ भी नहीं है। उनकी बाबरी मस्जिद ध्वस्त की जा चुकी है। निर्णय यदि उनके विरुद्ध होता है तो वे चुपचाप सर्वोच्च न्यायालय की शरण ले लेंगे। यदि निर्णय उनके पक्ष में आता है तो भी उन्हें मालूम है उन्हें तत्काल खुश होने की जरूरत नहीं क्योंकि असन्तुष्ट पक्ष फौरन ही सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाएगा। सम्भवतः इसीलिए लगभग समस्त मुसलमान नेताओं, संगठनों और संस्थाओं ने न्यायालय का निर्णय स्वीकार करने की स्पष्ट सार्वजनिक घोषणा बार-बार की है। ऐसा करके मुसलमान समुदाय इस देश के कानून, न्याय व्यवस्था और न्यायपालिका के प्रति अपने विश्वास का सार्वजनिक प्रकटीकरण कर रहा है। ऐसा बार-बार करने का सीधा सन्देश यही जाता है कि लोग दूसरे पक्षों से भी ऐसी ही सार्वजनिक घोषणा की अपेक्षा और प्रतीक्षा करें। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं कि अपनी इस घोषणा के कारण मुसलमान समुदाय को जन साधारण की सहानुभूति मिलेगी और जो लोग मुसलमानों की देश भक्ति को संदिग्ध बनाए रखने की कोशिशें करते रहे हैं, उन्हें चुप रहना पड़ेगा। मेरा निष्कर्ष यह कि मुसलमान समुदाय यह प्रकरण जीते या हारे, न्यायालयीन निर्णय को आँखें मूँदकर स्वीकार करने से उसकी स्वीकार्यता बढ़ेगी और राष्ट्र के प्रति उनकी निष्ठा पर अंगुलियाँ उठानेवालों को परेशानी होगी। लेकिन ऐसा तभी होगा जब समूचा मुसलमान समुदाय, न्यायालय के निर्णय के बाद सचमुच में शालीनताभरी चुप्पी बरते। यह पंक्ति लिखते समय मुझे भली प्रकार याद है कि सब तरह के लोग सब जगह होते हैं और जैसा कि अब तक होता चला आ रहा है, मुट्ठी भर मूर्ख लोग अधिसंख्‍य सज्‍जनों की ऐसी-तैसी कर देते हैं और मुसलमान समुदाय भी इसका अपवाद नहीं है।

प्रकरण में पक्ष तो और भी कई हैं किन्तु ‘संघ’ ही ‘स्वाभाविक प्रमुख पक्ष’ बना हुआ है। संघ परिवार की स्थिति उतनी अच्छी और सुरक्षित नहीं है जितनी कि मुसलमान समुदाय की। संघ परिवार के लिए यह प्रकरण जीवन-मरण का प्रश्न है। संघ परिवार इस हीनता बोध से आज तक नहीं उबर पा रहा है कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में उसका रंच मात्र भी योगदान नहीं है। उसके पास कोई भी ऐतिहासिक-राष्ट्रीय नायक नहीं है। इसीलिए वह कभी किसी को तो कभी किसी को अपने नायक की तरह प्रस्तुत करते रहने को विवश भी है और अभिशप्त भी। दिल्ली की सरकार में जाने के लिए उसने (संघ और भाजपा को अलग-अलग समझने का भ्रम हममें से किसी को नहीं पालना चाहिए) अपने उन तीनों मुद्दों को सरयू में फेंक दिया जो उसकी पहचान बने हुए थे। इतना ही होता तो कोई बात नहीं थी। किन्तु उस पर आरोप यह भी लगा हुआ है कि दिल्ली सरकार में जाते ही वह राम मन्दिर को भूल गया और लगातार 6 वर्षों तक सरकार में बने रहने के बाद भी उसने राम मन्दिर के लिए चूँ तक नहीं की। संघ परिवार को सत्ता से बाहर हुए यह छठवाँ साल चल रहा है किन्तु इस आरोप का कोई जवाब उसके पास आज तक नहीं है। जाहिर है कि संघ परिवार को ऐसा कोई मुद्दा चाहिए ही चाहिए जो उसके लिए प्राण वायु का काम कर सके। वैसे, संघ परिवार की सेहतभरी दीर्घायु के लिए जरूरी तो यह है कि यह मामला कभी निपटे ही नहीं।
इसलिए, न्यायालयीन निर्णय को लेकर संघ (और भाजपा) के वक्तव्य सारी सम्भावनाओं को खुला रख रहे हैं। इनमें से कोई भी नहीं कह रहा कि वे सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को आँख मूँद कर स्वीकार करेंगे, जैसा कि मुसलमान समुदाय कह रहा है।

फिर, संघ के वादों पर शायद ही किसी को भरोसा हो। यह संघ परिवार ही था जिसके कल्याण सिंह ने उत्तर प्रदेश के मुख्य मन्त्री की हैसियत में, सर्वोच्च न्यायालय में शपथ पत्र देकर बाबरी मस्जिद की सुरक्षा का वचन दिया था। इसके समानान्तर यह तथ्य भी जगजाहिर है कि सत्ता में रहते हुए संघ के निष्ठावान स्वयम् सेवक कितने अलोकतान्त्रिक, कितने स्वच्छन्द हो जाते हैं। ये लोकतान्त्रिक पद्धति के सहारे सत्तासीन होते हैं और सत्ता में आते ही लोकतन्त्र को परे धकेलने लगते हैं। सो, 30 सितम्बर को यदि कुछ हुआ तो उस ‘होने’ के लिए सबसे पहले संघ परिवार पर ही सन्देह होता है।

ऐसे में, लखनऊ खण्ड पीठ का निर्णय यदि मुसलमानों के पक्ष में आया तो मुमकिन है कि संघ परिवार चुप रहे और सर्वोच्च न्यायालय की तैयारी करे। तब वह इस मामले को ‘कानूनी मामला’ कहना छोड़ कर इसे ‘आस्था का मामला’ कह कर ही अपनी बात कहेगा। वह सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमा भी लड़ेगा और मामले को संसद से लेकर सड़क तक ले जाने की तैयारी भी रखेगा। किन्तु लखनऊ का निर्णय यदि संघ परिवार के पक्ष में आया तो वह चुप रह ही नहीं सकेगा। अपनी खुशी (याने कि मुसलमानों को उनकी हैसियत और स्थिति) जताने के लिए वह ढोल-नगाड़े न भी बजाए तो भी तुरही तो बजाएगा ही बजाएगा।

सो, मुझे नहीं लगता कि 30 सितम्बर को कुछ अनहोनी होगी। यह दिन बिना किसी बड़ी घटना के जैसे-तैसे निकल जाएगा। किन्तु इसी दिन यह भी तय हो जाएगा कि आनेवाले दिन कैसे होंगे।

उसी के लिए तैयार रहिएगा।

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1 comment:

  1. मुझे तो लगता है कि निर्णय तो ३० को भी नहीं आयेगा, न्यायालय किसी ना किसी कानूनी के पेंच के चक्कर में निर्णय नहीं देगी। और यदि आया भी कहीं भी कुछ नहीं होगा, जैसा आपने कहा हारने वाला पक्ष सर्वोच्च न्यायालय में जायेगा।

    आम जनता को इस निर्णय से कुछ भी नहीं लेना देना है, आने वाले तनाव और बंद के कारण बेचारे दैनिक मज़दूर के एक-दो दिन की मज़दूरी मारी जायेगी ।

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