मोबाइल का कृपा-प्रसाद

जस्सु भाई ने टोका तो ‘मोबाइल कृपा’ का एक नया आयाम उद्घाटित हुआ। उन्होंने उलाहने के लहजे में कहा - ‘लगता है, अब हमारे यहाँ से आपको बीमे की या तो जरूरत नहीं रह गई है या फिर उम्मीद नहीं रह गई है।’ मैं चकरा गया। जस्सु भाई का मन्तव्य समझ नहीं पाया। मेरी आँखें पढ़ कर बोले -‘आपके पत्र तो बराबर आ जाते हैं किन्तु दो-तीन बरसों से आपने फोन करना बन्द कर दिया है।’ बात फौरन मेरे भेजे में आ गई।

भरे-पूरे संयुक्त परिवार के मुखिया हैं जस्सु भाई। वे, उनकी पत्नी, दो बेटे, दो बहुएँ, दो पोते और एक पोती। कुल नौ सदस्यों का परिवार। ऐसे परिवार इन दिनों देखने में नहीं आते। अनूठे बन गए हैं। मनुष्य वही तलाशता है जो उसके पास नहीं होता। परिवार के नाम पर हम मियाँ-बीबी ही रह गए हैं गए कुछ बरसों से। सो, ऐसे अनूठे, संयुक्त परिवार मुझे अतिरिक्त रूप से आकर्षित करते हैं, ललचाते हैं और कभी-कभार ईर्ष्‍यालु भी बना देते हैं। मेरे सम्पर्क-क्षेत्र के ऐसे संयुक्त परिवारों में जाने के लिए मैं बहाने भी तलाश नहीं करता। जब जी चाहा, बिना पूर्व सूचना दिए ऐसे परिवारों चला जाता हूँ। धमा-चौकड़ी मचाते बच्चे और उन्हें डाँटते-हड़काते बड़े-बूढ़े मेरे खालीपन को दूर कर देते हैं। मेरी थकान दूर हो जाती है। ताजादम कर देते हैं मुझे ऐसे दृश्य। इन्हीं कारणों से जस्सु भाई के यहाँ अकारण ही गाहे-ब-गाहे जाता रहता हूँ।

एक कारण और है जस्सु भाई के यहाँ जाते रहने का। उनके दोनों बेटे, अपने पूरे परिवार सहित मेरे पॉलिसीधारक याने मेरे ‘अन्नदाता’ हैं। मैं अपने ‘अन्नदाताओं’ और उनके परिजनों के जन्म दिनांक और विवाह वर्ष गाँठ पर अभिनन्दन और शुभ-कामना पत्र तो भेजता ही हूँ, उस दिन टेलीफोन पर भी बधाई देने का जतन करता हूँ। जस्सु भाई इसी की शिकायत कर रहे थे।

मैंने कहा - ‘नहीं जस्सु भाई! मैं तो सबके जन्म दिन और शादी की सालगिरह पर बराबर फोन कर रहा हूँ। विश्वास न हो तो अपने दोनों बेटे-बहुओं से पूछ लीजिए।’ जस्सु भाई को सचमुच में विश्वास नहीं हुआ। अपनी बात को गिरता देख असहज हो गए। बोले -‘कहाँ करते हैं? आपके फोन तो आते ही नहीं!’

पूरी बात अब साफ-साफ समझ में आई। मैंने कहा - ‘जस्सु भाई! पहले पूरे घर में एक ही फोन था। लेण्ड लाइनवाला। तब मैं जब भी फोन करता तो आप ही उठाते थे। पहले आपसे बात होती थी और फिर मेरे कहने पर आप सम्बन्धित सदस्य को बुलाते थे ताकि मैं उसे बधाई दे सकूँ। लेकिन अब तो आपके बेटों-बहुओं के पास ही नहीं, दोनों पोतों के पास भी मोबाइल आ गए हैं। अब तो सीधे उन्हीं से बात हो जाती है।’

जस्सु भाई की असहजता तनिक घनी हो गई। शायद इस कारण कि यह ‘छोटी सी बात’ उन्हें क्यों नहीं सूझ पड़ी। तनिक पीड़ा से बोले - ‘अरे! हाँ। यह बात तो मुझे कभी सूझी ही नहीं। अब समझ में आया कि मेरे फोन की घण्टी पहले जैसी क्यों बार-बार नहीं बजती।’ फिर कुछ इस तरह बोले, मानो एक-एक बात या तो याद कर रहे हों या बात खुद-ब-खुद याद आ रही हो - ‘तभी मैं कहूँ कि समधीजी के फोन भी क्यों नहीं आते? अब तो वो भी सीधे अपने बेटी-जमाई से बात कर लेते होंगे। अब यह भी समझ में आ रहा है कि फोन की घण्टी तभी क्यों बजती है जब सामनेवाले को मुझीसे बात करनी होती है। इसीलिए अब घर के किसी मेम्बर के लिए कोई फोन नहीं आता।’

जिन स्वरों में जस्सु भाई ने यह सब कहा, सुन कर लगा, मानो वे बेटे-बहुओं, पोते-पोतियों से भरे-पूरे घर में एकाएक, एकदम अकेले हो गए हैं। ऐसे घने बीहड़ जंगल में खड़े हो गए जहाँ कोई पगडण्डी भी नजर नहीं आती। मानो, यहाँ से वे कहीं जा नहीं सकते और न ही कोई और उन तक पहुँच सकता। खुद का जा पाना या किसी और का आ पाना तो दूर रहा, शायद उनकी पुकार भी किसी को सुनाई न दे। मानो, शेष जीवन के लिए एकान्त भोगने को अभिशप्त हो गए हों - उनके बेटे-बहुएँ, पोते-पोती सब उन्हें इस निर्जन में अकेला छोड़ कर चले गए।

वे सहज नहीं हो पा रहे थे। वे खुद भी ऐसी कोशिश नहीं कर पा रहे थे। इस उखड़ी मुद्रा और मनःस्थिति ने मानो उनकी वाणी छीन ली हो। बड़ी कठिनाई से उनकी घरघराती आवाज आई - ‘यह तो गजब हो गया बैरागीजी! हम पूरे नौ जने इस घर में हैं लेकिन इस मोबाइल ने तो हम सबको अकेला कर दिया! इसे बनानेवाले ने तो सोचा होगा कि उसने लोगों को जोड़ने वाली मशीन बनाई है। लेकिन यह तो एकदम उल्टा हो गया! सब एक साथ होते हुए भी अलग-अलग हो गए! है कि नहीं?’

उनकी दशा और बातों ने मुझे अवाक् कर दिया। मेरी साँसें घुटने लगीं। लगा, यहीं प्राणान्त हो जाएगा। जस्सु भाई मेरी ओर ऐसे देख रहे थे मानो अचानक मालूम पड़ी इस विपदा से उन्हें छुटकारा मैं ही दिला सकता हूँ। दिला सकता हूँ नहीं, छुटकारा दिलाना ही है। यदि मैं ऐसा किए बिना चला गया तो मानो जस्सु भाई के प्राण पखेरु उड़ जाएँगे, कुछ इसी तरह से जस्सु भाई मुझे देखे जा रहे थे। छाती में उठते गुबार को रोक पाना मेरे लिए असम्भव होता जा रहा था। जस्सु भाई की जड़वत् दशा मुझे परेशान, हलकान किए जा रही थी। यदि मैंने बिलख-बिलख कर रोना शुरु नहीं किया तो मेरी छाती फट जाएगी।

जस्सु भाई को मानो मुझ पर दया आ गई। मेरी दशा देखकर, निःश्वास छोड़ते हुए बोले - ‘अच्छा बैरागीजी! आते रहना और फोन करते रहना भैया।’

मैं वहाँ से चला तो जरूर किन्तु पाँव नहीं उठ रहे थे। लग रहा था, सारी दुनिया का बोझ किसी ने मेरी पीठ पर लाद दिया हो। मैंने अपनी पीठ पर हाथ फेरा। कुछ भी नहीं था। फिर यह वजन कैसा?

नहीं। यह वजन नहीं था। ये तो जस्सु भाई थे मेरी पीठ पर - अपने आशंकित एकान्त के साथ।
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1 comment:

  1. यह भी एक रूप है संचारक्रांति का, कभी ध्यान ही नहीं गया इस ओर।

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