यह सब करे गरीब आदमी


8 नवम्बर 2009, रविवार। आगरा में मेरी यह दूसरी सुबह थी। भारतीय जीवन बीमा निगम के एजेण्टों के एकमात्र राष्ट्रीय संगठन ‘लाइफ इंश्योरेंस एजेण्ट्स फेडरेशन ऑफ इण्डिया’ (लियाफी) के चा चौदहवें राष्ट्रीय अधिवेशन के दूसरे दिन की कार्रवाई में शामिल होने के लिए मेरे चारों एजेण्ट साथी निकल चुके थे। आलस्यवश मैं पीछे रह गया था। वैसे भी मुझे किसी कार्रवाई में भागीदारी तो करनी नहीं थी, उपस्थिति मात्र दर्ज करानी थी। सो, समय पर न पहुँचकर भी मैं विलम्बित नहीं था।

धौलपुर हाउस से मैंने रिक्शा लिया। चैराहा पार कर रकाबगंज में कुछ ही मीटर दूरी पार की थी कि छिपी टोला के नुक्कड़ पर, सामने पूड़ी-कचौड़ी और दूध की दो दुकानें नजर आईं। ‘सुन्दर दूध भण्डार’ पर रिक्शा रुकवाया। रिक्शाचालक ने कहा तो कुछ नहीं किन्तु उसकी खिन्नता चेहरे पर चस्पा हो गई थी।

दुकान खुले शायद बहुत देर नहीं हुई थी। पास वाला ‘जावेद पान भण्डार’ अभी नहीं खुला था। उससे लगी, जूतों की दुकानवाला आया ही था। उसने अपने हाथ का अखबार पास खड़े एक आदमी को थमाया। आदमी अखबार देखने लगा और दुकानदार दुकान खोलने का उपक्रम करने लगा।

‘सुन्दर दूध भण्डार’ पर तीन ग्राहक खड़े थे। दुकान के प्रवेश वाले हिस्से के दाहिने कोने पर भट्टी लगी हुई थी। एक लड़का पूड़ियों की मसालेदार लोइयाँ बना कर पूड़ियाँ बेल रहा था, दूसरा तल रहा था। एक अन्य कारीगर कचौड़ियों की लोइयाँ बना कर उन्हें हथेली के गद्दे पर रखकर, दूसरे हाथ के अँगूठे से दबाकर, कचौड़ी के आकार में फैला कर थाल में रख रहा था। भट्टी पर चढ़ी कढ़ाई में पूड़ियाँ तली जा रही थीं। कढ़ाई के सामने दो थालों में पूड़ियाँ और कचौड़ियाँ अलग-अलग रखी हुई थीं और बड़े भगोने में आलू की सब्जी। दूसरे कोने पर पर बनी भट्टी पर बढ़े कड़ाह में रखे दूध पर मलाई की मोटी तह जमी हुई थी जिसके नीचे दूध उबल रहा था। कड़ाह के चारों ओर, दूध की सतह से तनिक ऊपर, मलाई की मोटी तह चिपकी हुई थी। कड़ाह के सामने बैठा कर्मचारी मिट्टी के सकोरों को पोंछ रहा था। ग्राहकों के लिए दूध तैयार करने के लिए एक छोटी भगोनी और एक बर्तन में शकर उसके पास रखी हुई थी।

मैंने खुद के लिए और रिक्शाचालक के लिए दो-दो पूड़ियों और एक-एक सकोरा दूध के लिए टोकन लिए। दुकानदार ने पूड़ियों का पहला दोना मुझे थमाया तो मैंने रिक्शाचालक की ओर बढ़ा दिया। उसे सम्पट नहीं बँधी। उसे विश्वास ही नहीं हुआ। उसने हाथ जोड़ते हुए इंकार कर दिया। मैंने कहा कि उसके लिए ही लिया है तो वह हक्का-बक्का होकर मेरी तरफ देखने लगा और इसी दशा में रोबोट की तरह, हाथ बढ़ाकर दोना लिया। पूड़ियाँ और आलू सब्जी निपटा कर मैंने दूध का पहला सकोरा लेकर उसी तरह रिक्शाचालक को थमाया।

अपने लिए दूध का सकोरा लेकर मैंने दूध सुड़कना शुरु किया ही था कि मेरे अचेतन ने मानो कुछ कहा। मैंने अपने आसपास देखा तो पाया कि दुकान के कर्मचारी, पहले से खड़े तीनों ग्राहक और अखबार पढ़ रहा आदमी, सब के सब मुझे और रिक्शाचालक को घूर रहे हैं। दूध हलक से नीचे उतारना मेरे लिए कठिन हो गया। जैसे-तैसे सकोरा खाली किया। रिक्शाचालक पहले ही निपट चुका था। मैं अपना प्रयुक्त सकोरा, दुकान के सामने रखे कूड़ादान में डालने लगा तो रिक्शाचालक लगभग विगलित स्वरों में बोला-‘बाबू साहब! भगवान आपका भला करे।’ इस वाक्य का मुझे अन्देशा था। किन्तु ‘दुआ’ में अनकही आशंका छुप नहीं सकी। वह चाह कर भी नहीं पूछ सका - ‘नाश्ते की रकम मेरी मजदूरी में से काटोगे तो नहीं?’ आसपास के लोगों की नजरें झेल पाना मेरे लिए कठिन होता जा रहा था। रिक्शे में चढ़ते हुए मैंने कहा - ‘इसकी कोई जरूरत नहीं। जल्दी चलो।’ लेकिन मेरी बात अनसुनी कर वह बोला -‘जरूरी तो नहीं बाबू साहब! पर गरीब आदमी दुआ देने के सिवाय और कर ही क्या सकता है?’

मैंने अनसुनी कर दी लेकिन अखबार पढ़ रहे आदमी ने रिक्शावाले की बात लपक ली। उससे एक दिन पहले, शनिवार को, आगरा के एक हिस्से में लोगों ने दुकानें लूट ली थीं और पुलिसवालों की जोरदार पिटाई कर दी थी। ये लोग, दाल, प्याज, आलू जैसी रोजमर्रा की चीजों की बढ़ती कीमतों से त्रस्त थे और मँहगाई को नियन्त्रित करने की माँग करते हुए सड़कों पर उतरे थे। यह समाचार प्रमुखता से अखबारों में छपा था। रिक्शावाले की बात सुनकर, अखबार पढ़ रहा आदमी तल्खी से तथा पूरे जोर से बोला - ‘क्यों? गरीब को करने के लिए और काम मालूम नहीं? गरीब को कई सारे काम करने पड़ते हैं। गरीब आदमी नेता को वोट दे, उसके लिए जिन्दाबाद के नारे लगाए, उसके जुलूसों में शामिल हो, उसकी झिड़कियाँ सहे, उसके वादों पर भरोसा करे, जिन्दा रहने के लिए उसके सामने गिड़गिड़ाए, उसके तलुए चाटे और फिर भी जिन्दा रहने के लिए जरूरी चीजें नहीं मिले तो आत्महत्या करले। इतने सारे काम हैं गरीब को करने के लिए और यह स्साला कह रहा है कि गरीब आदमी और कर ही क्या सकता है?’

तब तक कुछ लोग और दुकान पर पहुँच गए थे। आदमी की बातें सुनकर सब हँसने लगे। किन्तु मैं नहीं हँस पाया। रिक्शाचालक भी तनिक खिसिया गया। उसे लगा, उस आदमी ने उसे झिड़क दिया है। अपनी दुआ पर इस तरह डाँटा जाना उसे अरुचिकर लगा और उसे असहज कर गया।

रिक्शा चल पड़ा। कुछ ही मिनिटों में मैं अपने मुकाम, तार घर ग्राउण्ड पर पहुँच गया। रिक्शा से उतर कर मैंने रिक्शाचालक को भुगतान किया। उसने रुपये गिने ही नहीं। मुझे एक बार फिर धन्यवाद दिया। पाण्डाल में पहुँच कर अपने साथियों को तलाश कर उनके पास अपनी जगह बनाई। कार्रवाई शुरु हो चुकी थी। हमारे राष्ट्रीय अध्यक्षजी हमारी समस्याएँ गिनवा रहे थे। लोग खुश तथा होकर उत्तजित होकर बीच-बीच में ‘लियाफी जिन्दाबाद’ के नारे लगा रहे थे। किन्तु मुझे यह सब नहीं सुनाई दे रहा था। मुझे तो, रकाबगंज में छिपीटोला के नुक्कड़ पर स्थित सुन्दर दूध भण्डार के पास खड़े आदमी की, तल्खी में डूबी, गरीब आदमी द्वारा किए जाने वालों कामों की सूची सुनाई पड़ रही थीं।

मैं सोच रहा था, गरीब आदमी को इन कामों से मुक्ति दिलाने के लिए भी कभी, कहीं, कोई अधिवेशन होगा?

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1 comment:

  1. ये अधिवेशन मेहनत कर कमाने पर भी गरीब रहने वाले लोगों को खुद ही करने होंगे। जब तक वे अवतारों के भरोसे रहेंगे, यह सब चलता रहेगा।

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