अवतार की प्रतीक्षा में

नागरिकता बोध से अनजान बने रहने और नागरिक उत्तरदायित्व से कुशलतापूर्वक बच निकलने का यह बड़ा ही रोचक किन्तु क्षोभजनक अनुभव था। मैं इसे भूल जाना चाहूँगा, यह जानते हुए भी बात कवल मेरे कस्बे की नहीं, लगभग पूरे देश और समूचे समाज की है।

राजस्थान पत्रिका समूह के अखबार ‘दैनिक पत्रिका’ को एक बार फिर रतलाम के लोगों तक पहुँचाने के अभियान के अन्तर्गत इसके स्वत्वाधिकारी श्री गुलाब कोठारी यहाँ के कुछ लोगों से रू-ब-रू हुए। इस प्रसंग को ‘सम्वाद सेतु’ नाम दिया गया था। उनका लक्ष्य तो सुनिश्चित ही था - ‘पत्रिका’ की मार्केटिंग करना। किन्तु इसकी भूमिकास्वरूप उन्होंने मौजूदा सामाजिक संकट को अत्यन्त प्रभावी ढंग से प्रस्तुत किया। उन्होंने स्वीकार किया कि वे ‘पत्रिका’ के लिए बाजार बनाने आए हैं किन्तु रतलाम के लोगों को साथ लिए बिना और रतलाम की बेहतरी के लिए प्रयत्न किए बिना यह सम्भव ही नहीं है। उन्होंने कहा - ‘रतलाम बेहतर बनेगा तो इमारा व्यवसाय तो अपने आप बेहतर होगा।’ उनके कुछ वाक्य तो मुझे ‘सूत्र’ की तरह लगे। जैसे - ‘बिना संकल्प जीवन नहीं चल सकता। उसके बिना तो यात्रा की शुरुआत ही नहीं हो सकती’.....‘परिवर्तन तो सुनिश्चित है। हम उसे रोक तो नहीं सकते किन्तु उसकी दिशा अवश्य बदल सकते हैं।’.... ‘मौजूदा स्थितियों के लिए हमारी भूमिका (हमारी चुप्पी) ही जिम्मेदार है, सरकार या व्यवस्था नहीं।’......‘इण्टरनेट पर बैठा बच्चा भला समाज की चिन्ता क्यों करेगा? इसीके चलते, दो-तीन पीढ़ियों के बाद समाज ही नहीं रहेगा।’.....‘जो जितना बुद्धिमान होगा वह उतनी ही आलोचना करेगा, उतना ही समाज को तोड़ने का काम करेगा।’.....‘लोककन्त्र में लोक की भागीदारी (‘लोगों के द्वारा’) अनिवार्य है किन्तु हम किसी भी अनुचित के विरुद्ध बोलते ही नहीं।’’ आदि आदि। मैंने अनुभव किया कि गुलाबजी ने अपनी बात में सर्वाधिक जोर ‘संकल्प और उत्तरदायित्व’ पर दिया, अधिकारों की बात बिलकुल ही नहीं की।
इसके बाद गुलाबजी ने उपस्थितों से, एक-एक कर, संक्षेप में अपनी बात कहने का आग्रह किया।

सभागार में हम कोई 55/60 लोग बैठे थे। मुझे लगा था कि हममें से प्रत्येक व्यक्ति गुलाबजी के वक्तव्य को ही आधार बना कर अपनी बात कहेगा। किन्तु पहले ही वक्ता की बात से मेरी अपेक्षाओं का क्षरण शुरु हो गया। लोगों ने बोलना शुरु किया तो शुरु-शुरु में तो उपस्थिति पूरी थी। किन्तु धीरे-धीरे लोग कम होने लगे। कुल 25 लोग बोले। मेरा नम्बर 23वाँ था। किन्तु मैं हतप्रभ रह गया यह देख कर कि हममें से (मुझ सहित) कुल दो को छोड़कर शेष समस्त 23 लोगों ने या तो उपदेश दिया या परामर्श या फिर अपेक्षाएँ गिनवाईं। इन बोलने वालों में वर्तमान तथा भूतपूर्व निर्वाचित जन प्रतिनिधि, कांग्रेस और भाजपा के जिला पदाधिकारी, प्रशासकीय अधिकारी, विभिन्न सामाजिक संस्थाओं/संगठनों से जुड़े लोग शामिल थे। किन्तु सबके सबने अपने आप को गुलाबजी की ‘संकल्प और उत्तरदायित्व’ वाली भावना से सतर्कतापूर्वक अलग ही बनाए रखा। सबकी बातें सुनकर मुझे लगातार लगता रहा कि मुख्य आसन पर गुलाब कोठारी नहीं या तो प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह बैठे हैं या फिर सोनिया गाँधी या फिर कोई अवतार-पुरुष बैठा है जो हम रतलाम वालों की सारी समस्याएँ चुटकी में हल कर देगा और सारी अपेक्षाएँ अविलम्ब पूरी कर देगा। वह भी तब, जबकि हममें से एक भी अपना कोई योगदान देने को तैयार नहीं है, गुलाबजी के ‘भागीदारी के आह्वान’ को सुनने को तैयार नहीं हैं।

मुझे बड़ी निराशा हुई। एक तो गुलाबजी हैं जो रतलामवालों से मिलकर रतलाम को बेहतर बनाने की बात कर रहे हैं और हम रतलाम वाले हैं कि सब कुछ उन पर न केवल छोड़ रहे हैं बल्कि इस तरह बात कर रहे हैं कि हमारी अपेक्षाएँ पूरी करना, हमारी सलाह मानना गुलाबजी की नैतिक, सामाजिक और कानूनी जिम्मेदारी है जिसे यदि उन्होंने नहीं निभाया तो वे रतलामवालों के अपराधी हो जाएँगे।

मेरी बारी आने पर मैं अपना क्षोभ नहीं छुपा सका। मैंने गुलाबजी से कुछ यूँ कहा-‘‘मैं, रतलाम का नागरिक, ‘साक्षर’ हूँ (1981 की जनगणना में रतलाम को प्रदेश का सर्वाधिक साक्षर कस्बा घोषित किया गया था और इसी को रतलामवाले गर्वपूर्वक बार-बार उल्लेखित करते रहते हैं), कृपया मुझे ‘शिक्षित’ समझने की भूल कदापि न करें। किन्तु मुझमें इतनी समझ है कि नासमझ बन कर जीने में ही समझदारी है। मैं चाहता हूँ कि रतलाम में कानून का राज हो किन्तु मुझे छोड़कर सब पर हो। मैं चाहता हूँ कि नगर में व्याप्त अतिक्रमण हटे किन्तु मैंने जो अतिक्रमण कर रखा है, उस पर नजर न डाली जाए। मैं चाहता हूँ कि रतलाम का यातायात व्यवस्थित और सुचारु हो किन्तु मुझे यातायात नियमों का उल्लंघन करने की छूट मिलती रहे।’ मेरे, गिनती के इन वाक्यों ने गुलाबजी को सतर्क कर दिया। काफी देर से कुर्सी में लगभग पसरे हुए बैठे थे। मेरी बातें सुनकर, तनिक तन कर बैठ गए। मैंने कहा -‘ मैंने बड़े जतन से अपने कस्बे को श्रेष्ठ नर्क बनाया है। मैं अपने इस नर्क में परम सुखी हूँ। अब आप आए हैं और इसे स्वर्ग बनाना चाह रहे हैं। जरूर बनाइए किन्तु मेरे भरोसे बिलकुल मत रहिएगा। आप इसे स्वर्ग बना देंगे तो उसमें भी मैं जैसे-तैसे रह लूँगा और यदि आप असफल हुए तो अपने बनाए इस श्रेष्ठ नर्क से मुझे कोई शिकायत नहीं होगी।’ मुझे दिए गए तयशुदा समय में मैंने जब अपनी बात समाप्त की तो मैंने देखा कि गुलाबजी तालियाँ बजा रहे हैं। ऐसा उन्होंने केवल मेरे वक्तव्य पर ही किया। मुझे खुश होना चाहिए था किन्तु मैं खुश नहीं हो सका। मैं प्रतीक्षा कर रहा था कि सभागार में मौजूद, रतलाम के तमाम लोग मेरी बातों का बुरा मानेंगे किन्तु मैं हतप्रभ रह गया जब लगभग प्रत्येक ने आकर मुझे बधाई दी।

किन्तु यह दशा केवल मेरे कस्बे की नहीं है। शायद पूरा देश इसी दशा और मनस्थिति में जी रहा है। कोई खुद कुछ नहीं करना चाहता और चाहता है कि सब कुछ हो जाए। हममें से कोई भी, कुछ भी खोना नहीं चाहता इसीलिए हममें से किसी को कुछ भी हासिल नहीं हो रहा है। हम भूल जाना चाहते हैं कि पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है।

यह पोस्ट शुरु करते समय मैंने इसका शीर्षक रखा था - ‘अवतार की कोशिश करते लोग।’ किन्तु जल्दी ही समझ में आ गया कि ‘कोशिश’ तो अपने आप में ‘कर्म’ है और इसीसे तो हम सब बचना चाह रहे हैं! ‘कर्म’ के कारण तो हमें किसी से बुरा बनना पड़ता है, स्टैण्ड लेना पड़ता है, लोगों की नाराजी झेलनी पड़ती है, कीमत चुकानी पड़ती है और इसमें से किसी के लिए हम बिलकुल तैयार नहीं है। मेरे मित्र विजय वाते का शेर मुझे बार-बार याद आता है -

चाहते हैं सब कि बदले ये अँधेरों का निजाम
पर हमारे घर किसी बागी की पैदाइश न हो

कुछ भी न खोने की सवाधानी बरत कर जी रहे हम लोग वास्तव में अवतार की प्रतीक्षा कर रहे अकर्मण्य लोगों की भीड़ बने हुए है। हमें ईश्वर पर भरोसा है, ईश्वरीय अवतार पर भरोसा है। किन्तु ईश्वर भी तो उसी की मदद करता है जो खुद अपनी मदद करे! ईश्वर अवतार भी तभी लेता है जब पापों का घड़ा भर जाता है, संकट अपने चरम पर पहुँच जाता है।

गुलाबजी से कहिएगा कि उन्हें जो करना हो, निश्चिन्तता से करें। हम यही कर रहे हैं।
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3 comments:

  1. बहुत सही लिखा।बहुत बढिया पोस्ट है।आज यही तो हो रहा है....

    चाहते हैं सब कि बदले ये अँधेरों का निजाम
    पर हमारे घर किसी बागी की पैदाइश न हो

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  2. uchit vishay,sahi samay,sath hi sabdo ki lay apki yahi vishesta BAIRAGI JI jai sada vijay
    thodaaaaa sa chhota hota to sayad mai 2 baar padhta apka blog.umrendra singh

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