दावा छूट और पुनर्चलित पालिसियाँ

गत गुरुवार को अपनी पोस्ट बीमा किश्त भुगतान की रियायती अवधि में मैंने कहा था: ''पालिसी लेप्स होने पर उसे चालू कराने के साथ ही ग्राहक को बीमा सुरक्षा फिर से मिलने लगती है। किन्तु लेप्स पालिसी चालू करा लेने के बाद भी, (पालिसी के लेप्स होने के कारण उपजा खतरा और उससे होने वाली हानि के कारण) ग्राहक ने अपना कितना बड़ा नुकसान कर लिया है, यह ग्राहक को मालूम नहीं हो पाता।''

इस बात को समझने के लिए पहले दावा छूट (क्लेम कन्सेशन) को समझ लेना उचित होगा।


रियायती अवधि में किश्त जमा नहीं कराने पर पालिसीधारक को जोखिम सुरक्षा (रिस्क कवरेज) उपलब्ध नहीं होता और ऐसी दशा में यदि पालिसीधारक की मृत्यु हो जाए तो उस पालिसी पर मृत्यु दावा राशि का भुगतान नहीं मिलता।


किन्तु प्रत्येक बार ऐसा नहीं होता। निर्धारित अवधि पूरी हो जाने के बाद, यदि रियायती अवधि में किश्त जमा नहीं हो और पालिसीधारक की मृत्यु हो जाए तो भी नामित (नामिनी) को दावा राशि का भुगतान किए जाने के प्रावधान हैं।


ऐसे प्रावधानो को ‘दावा छूट’ (क्लेम कन्सेशन) कहा गया है। यह छूट मुख्यतः दो प्रकार की है - आधारभूत दावा छूट (बेसिक क्लेम कन्सेशन) तथा विस्तारित दावा छूट (एक्सटेण्डेट क्लेम कन्सेशन) । इनके ब्यौरे निम्नानुसार हैं-


आधारभूत दावा छूट (बेसिक क्लेम कन्सेशन) - यदि पालिसी की तीन वर्षों की किश्तें जमा कराई जा चुकी हों और पालिसीधारक की मृत्यु, रियायती अवधि के बाद किन्तु 6 महीनों की अवधि के भीतर हुई हो तो नामित को पूर्ण बीमा धन तथा (मृत्यु दिनांक तक की पालिसी अवधि के) बोनस की रकम का भुगतान देय होगा।


इस भुगतान में से अन्तिम बकाया किश्त की रकम काट ली जाएगी।


उदाहरण - पालिसी का प्रारम्भ दिनांक 28 दिसम्बर 2005 है। इस पालिसी की, दिसम्बर 2007 तक की किश्तें जमा कराई जा चुकी हैं किन्तु दिसम्बर 2008 वाली किश्त का भुगतान नहीं हुआ है। इस पालिसीधारक की मृत्यु यदि दिनांक 27 जून 2009 को या उससे पहले हो गई है तो नामित को पूर्ण बीमा धन तथा दिसम्बर 2005 से दिसम्बर 2008 तक की अवधि के बोनस की रकम का भुगतान किया जाएगा।

यदि पालिसी शर्तों में ‘दुर्घटना हित लाभ’ उपलब्ध कराया गया है और मृत्यु दुर्घटना से हुई है तो बीमा धन के बराबर रकम का भगतान अतिरिक्त रूप से किया जाएगा।

भुगतान की जाने वाली राशि में से दिसम्बर 2008 वाली किश्त की रकम काट ली जाएगी।

विस्तारित दावा छूट (एक्सटेण्डेट क्लेम कन्सेशन) - यदि पालिसी की पाँच वर्षों की किश्तें जमा कराई जा चुकी हों और पालिसीधारक की मृत्यु, प्रथम बकाया किश्त की देय दिनांक के 12 महीनो की अवधि के भीतर हुई हो तो नामित को पूर्ण बीमा धन तथा (मृत्यु दिनांक तक की पालिसी अवधि के) बोनस की रकम का भुगतान देय होगा।

इस भुगतान में से अन्तिम बकाया किश्त की रकम काट ली जाएगी।

उदाहरण - पालिसी का प्रारम्भ दिनांक 28 दिसम्बर 2002 है। इस पालिसी की, दिसम्बर 2006 तक की किश्तें जमा कराई जा चुकी हैं किन्तु दिसम्बर 2007 वाली किश्त का भुगतान नहीं हुआ है। इस पालिसीधारक की मृत्यु यदि दिनांक 27 दिसम्बर 2008 को या उससे पहले हो गई है तो नामित को पूर्ण बीमा धन तथा दिसम्बर 2002 से दिसम्बर 2008 तक की अवधि के बोनस की रकम का भुगतान किया जाएगा।

यदि पालिसी शर्तों में ‘दुर्घटना हित लाभ’ उपलब्ध कराया गया है और मृत्यु दुर्घटना से हुई है तो बीमा धन के बराबर रकम का भगतान अतिरिक्त रूप से किया जाएगा।

भुगतान की जाने वाली राशि में से दिसम्बर 2007 वाली किश्त की रकम काट ली जाएगी।

किन्तु, अपने पालिसीधारकों तथा उनके परिवारों की चिन्ता करते हुए ‘निगम’ ने ‘चेयरमेन रिलेक्सेशन रूल्स 1987’ के अधीन अतिरिक्त रूप से दावा छूट (क्लेम कन्सेशन) सुविधा और उपलब्ध कराई है। यह सुविधा केवल उन्हीं पालिसियों पर उपलब्ध कराई गई है जिनकी, दो वर्षों की किश्त जमा कराई जा चुकी हों।

इस छूट का विवरण इस प्रकार है -
(1) दो वर्षों की किश्तें जमा कराई जा चुकी हैं किन्तु अगली देय किश्त की रकम रियायती अवधि में जमा नहीं कराई जा सकी।


ऐसे पालिसीधारक की मृत्यु यदि उपरोक्त किश्त के देय दिनांक से 3 माह की अवधि में हुई तो नामित को पूर्ण बीमा धन तथा पालिसीधारक की मृत्यु दिनांक तक की पालिसी अवधि के बोनस की रकम का भुगतान मिलेगा।
उदाहरण - पालिसी का प्रारम्भ दिनांक 28 नवम्बर 2006 है। इसकी, नवम्बर 2007 वाली किश्त जमा कराई जा चुकी है किन्तु नवम्बर 2008 वाली किश्त जमा नहीं की गई है। इस पालिसीधारक की मृत्यु यदि 27 फरवरी 2009 को या उससे पहले होने की दशा में नामित को पूर्ण बीमा धन तथा नवम्बर 2006 से नवम्बर 2008 तक की अवधि का बोनस भुगतान किया जाएगा।इस भुगतान में से नवम्बर 2008 वाली किश्त की रकम काट ली जाएगी।


(2) उपरोक्त उदाहरण में, यदि पालिसीधारक की मृत्यु, देय दिनांक से 3 माह (27 फरवरी 2009) के बाद किन्तु 6 माह पूर्ण होने से पहले (27 मई 2009 तक)हो जाती है तो नामित को बीमा धन की आधी रकम का भुगतान किया जाएगा। इस स्थिति में बोनस राशि का भुगतान नहीं किया जाएगा। और
भुगतान की जाने वाली राशि में से नवम्बर 2008 वाली किश्त की रकम काट ली जाएगी।

(3) उपरोक्त उदाहरण में यदि पालिसीधारक की मृत्यु देय दिनांक से 6 माह (27 मई 2009) के बाद किन्तु 12 माह (28 नवम्बर 2009) से पहले हो जाती है तो नामित को ‘आनुपातिक प्रदत्त मूल्य’ राशि का भुगतान किया जाएगा।इस स्थिति में भी बोनस राशि का भुगतान नहीं किया जाएगा और बकाया किश्त की रकम काट ली जाएगी।
उदाहरणार्थ - पालिसी एक लाख रुपये बीमा धन और 20 वर्ष अवधि की है। इसकी कुल दो किश्तें जमा हुई हैं और तीसरी किश्त के देय दिनांक से एक वर्ष पूर्ण होने से पहले ही पालिसीधारक की मृत्यु हुई। अर्थात् पालिसीधारक ने कुल जमा की जाने वाली किश्तों (20) की 1/10 किश्तें (कुल 2) किश्तें ही जमा कराई हैं, इसलिए यहाँ पालिसी के बीमाधन का 1/10 बीमा धन ही भुगतान किया जाएगा।


विशेष: ‘चेयरमेन’ द्वारा उपलब्ध कराई गई इस छूट के अन्तर्गत ‘दुर्घटना हित लाभ’ की रकम का भुगतान नहीं किया जाएगा भले ही पालिसीधारक की मृत्यु, दुर्घटना से हुई हो और भले ही पालिसी शर्तों के अन्तर्गत ‘दुर्घटना हित लाभ’ उपलब्ध क्यों न कराया गया हो।


उपरोक्त वर्णित दावा छूट, ‘निगम’ की निम्नांकित तालिकाओं वाली पालिसियों में किसी भी दशा में नहीं दी जाती हैं -तालिका 21, 58, 94, 111, 150, 153, 164, 177 तथा 190.
उपरोक्त के अतिरिक्त ‘निगम’ की पेंशन योजनाओं में भी किसी भी प्रकार की दावा छूट उपलब्ध नहीं है।

किन्तु गत पोस्ट का अन्त और इस पोस्ट का प्रारम्भ मैंने जिस बात से किया उसका इन ‘दावा छूटों’ से क्या लेना-देना?

है। लेना-देना है और अत्यन्त गम्भीरता से है।

कालातीत (लेप्स) पालिसी के पुनर्चलन को मूल पालिसी का ‘फिर से’ चालू होना माना जाता है। ऐसा करते समय पालिसी के प्रारम्भ दिनांक और पालिसी की बोनस अर्जन पात्रता पर तो कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता किन्तु ऐसी पालिसियों में ‘जोखिम सुरक्षा दिनांक’ स्वतः ही बदल जाता है। ऐसी पालिसियों में, पालिसी को फिर से चालू करने के दिनांक को ‘जोखिम सुरक्षा प्रारम्भ दिनांक’ माना जाता है और तदनुसार ही, उपरोक्त समस्त दावा छूटों का लाभ मिल पाता है।इसे इस तरह समझें - पालिसी प्रारम्भ दिनांक 28 दिसम्बर 2001 है। पालिसी की दिसम्बर 2006 तक की किश्तें जमा की जा चुकी हैं अर्थात् पहली चुकाई जाने वाली बकाया किश्त इस प्रकरण में दिसम्बर 2007 है।

इस पालिसी पर, उपरोल्लेखित ‘विस्तारित दावा छूट’, 27 दिसम्बर 2008 तक उपलब्ध थी। 28 दिसम्बर 2008 से यह पालिसी उक्त छूट की दावेदार भी नहीं रही।

दिनांक 20 जनवरी 2009 को यह पालिसी चालू कराई गई। अब, इस दशा में इस पालिसी का प्रारम्भ दिनांक 28 दिसम्बर 2001 ही रहेगा और बोनस की गणना भी इसी दिनांक से की जाएगी किन्तु ‘दावा छूट’ की गणना 20 जनवरी 2009 से की जाएगी। अर्थात् पूरे 8 वर्ष चल चुकने के बाद भी, जोखिम सुरक्षा (रिस्क कवरेज) के सन्दर्भ में यह पालिसी, 20 जनवरी 2009 से प्रारम्भ मानी जाएगी।


मेरी बात की गम्‍भीरता अब स्‍पष्‍ट हो गई होगी।


इसलिए ग्राहक की बेहतरी इसी में है कि अपनी पालिसी की प्रीमीयम किश्तें रियायती अवधि में ही भरे और किसी भी हालत में अपनी पालिसी कोे लेप्स न होने दे।

ऐसी ही कुछ छोटी-छोटी बातें फिर कभी।

एक बार फिर याद रखने का उपकार कीजिएगा कि ये सूचनाएँ मैं व्यक्तिगत स्तर पर प्रस्तुत कर रहा हूँ। इन्हें भारतीय जीवन बीमा निगम द्वारा प्रस्तुत जानकारियाँ न समझें।
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इन्दौर के सिन्धी समुदाय को सलाम

सिन्धी समुदाय ने एक बार फिर मुझे अपना ‘मुरीद’ बना लिया है। ‘एक बार फिर’ से ही स्पष्ट है कि मैं पहले से ही इस समुदाय का ‘मुरीद’ बना हुआ हूँ-कम से कम दो बातों के लिए।

पहली - इस समुदाय का पुरुषार्थ। विभाजन से विस्थापित इस समुदाय ने जीवन संघर्ष की जो जिजीविषा बरती, वह सदैव मुझे रोमांचित करती रही है। दूसरी - इस समुदाय के लोगों का शुध्द हिन्दी उच्चारण। अधिसंख्य हिन्दी फिल्मों में कोई न कोई ‘सिन्धी चरित्र’ हमारे सामने परोसा जाता रहा है और उस चरित्र का उच्चारण ‘हास्य’ पैदा करने का निमित्त बनाया जाता है। ऐसे प्रत्येक चरित्र ने, प्रत्येक फिल्म में, प्रत्येक बार मुझे अपनी ही नजरों में शर्मिन्दा किया है। जिस ‘सिन्धी उच्चारण’ को हम उपहास का विषय बनाते हैं, वही उच्चारण ‘हिन्दी का शुध्द उच्चारण’ है, हममें से कितने लोग इस बात को जानते हैं?

हिन्दी की अहमन्यता से ग्रस्त हम हिन्दी भाषी, हिन्दी के अशुध्द उच्चारण के स्थायी अपराधी हैं, इस ओर हमने कभी ध्यान दिया? हम हिन्दी की दुहाइयाँ देते हैं, उसके ध्वज वाहक बनते हैं और उसकी दुर्दशा पर दुख व्यक्त करते हैं। किन्तु हमारा दोगलापन यही है कि जो सिन्धी समुदाय हिन्दी का शुध्द उच्चारण करता है, उसे उपहास भाव से देखते हैं! अपने अपराध को छिपाने का यह अनूठा उपाय हमने स्थायी रूप से अपना रखा है।

‘रामलाल’ को हम हिन्दी भाषी कभी ‘रामलाल’ नहीं बोलते। हम सदैव ही ‘राम्लाल्’ उच्चारित करते हैं। इसके सर्वथा विपरीत, समूचा सिन्धी समुदाय ‘रा म ला ल’ उच्चारित करता है। प्रत्येक अक्षर पर किया गया उनका ‘शब्दाघात’ हमारे लिए हास्य का विषय होता है। मेरा आश्चर्य तो यह कि अपनी इस विशेषता से खुद सिन्धी समुदाय के लोग परिचित नहीं हैंै। अपने सिन्धी मित्रों को जब मैं यह विशेषता बताता हूँ तो वे मुझे आश्चर्य से देखते हैं। सो, सिन्धी समुदाय की इस विशेषता का मुरीद मैं पहले ही दिन से बना हुआ हूँ।

इसी समुदाय ने अभी-अभी, एक बार फिर मुझे अपना मुरीद बनाया है। कल के सान्ध्य अखबारों ने सूचना दी कि इन्दौर के सिन्धी समुदाय की समस्त पंचायतों ने निर्णय लिया है कि राजनीतिक व्यक्तियों को समाज की संस्थाओं का पदाधिकारी नहीं बनाया जाएगा। अर्थात् विभिन्न दलों में ‘दिग्गज‘ की हैसियत प्राप्त सिन्धी सज्जन अब न तो समाज के निर्णयों को प्रभावित कर पाएँगे और न ही सिन्धी समुदाय के आयोजनों/कार्यक्रमों में, मंचों पर नजर आएँगे। वे अब मंचों के सामने बिछी जाजम/कुर्सियों पर बैठे नजर आएँगे।


मेरे तईं यह ‘क्रान्तिकारी निर्णय’ है। राजनीति को उसकी औकात बताने की दिशा में इन्दौर के सिन्धी समुदाय ने यह ऐसा कदम उठाया है जो सारे देश को न केवल प्रेरित करेगा अपितु ‘राजनीति और राजनेताओं से उपजे त्रास’ से मुक्ति दिलाने की कामना कर रहे लोगों को हौसला भी देगा।


राजनीति को हमने वह सर्वोच्च प्राथमिकता और महत्ता दे दी कि वह आज सबसे बड़ा प्रदूषण बन कर, ‘अमरबेल’ की तरह छा गई है। अपने ही बनाए नेताओं को हम ही इतनी स्वच्छन्दता दे देते हैं कि वे उच्छृंखल बन कर कब हमारे नासूर बन जाते हैं, पता ही नहीं चलता। इसका एक ही उपाय होता है - अपने नेताओं को नियन्त्रित करना, उन पर अंकुश लगाना।

इन्दौर के सिन्धी समुदाय का यह निर्णय मुझे इसी दिशा में बढ़ाया कदम अनुभव हो रहा है। नेता को जन सामान्य की तरह, भीड़ का हिस्सा बनना कभी पसन्द नहीं होता। आम आदमी की दुहाई दे कर वह सदैव ही प्रमुखता प्राप्त करना चाहता है। सो, इन्दौर के सिन्धी समुदाय के इस निर्णय के बाद, ‘नेता’ को आम आदमी की तरह शरीक होना पड़ेगा जिसके लिए ‘वह’ शायद ही तैयार हो। इस ‘जलालत’ से बचने का एक ही रास्ता रहता है - ऐसे आयोजन/कार्यक्रम में जाओ ही मत। याने, अब ‘नेता’ अनुपस्थित रहेगा। नेता की अनुपस्थिति कितनी सुविधाएँ, कितनी अनुकूलताएँ प्रदान करती है, यह हम सब जानते हैं।


सो, मैं तो इन्दौर के सिन्धी समुदाय को प्रणाम करता हूँ। राजनीति को परे धकेल कर उसे उसकी औकात बताना आज का सबसे बड़ा और सर्वाधिक दुरुह ‘पुरुषार्थ‘ बन गया है।

इन्दौर के सिन्धी समुदाय ने इस पुरुषार्थ का प्रारम्भ कर दिया है।

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चिट्ठाकारों! मुझे रास्ता दिखाओ

कल पूरे दिन और कोई आधी रात भर से मैं असमंजस में हूँ। ‘चिट्ठा‘ और ‘चिट्ठाकारी’ को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अखबार और पत्रकारिता के समान ही, अभिव्यक्ति का सार्वजनिक माध्यम मानकर, उस पर प्रकाशित सामग्री को अवमानना की परिधि में लेने के समाचार कुछ चिट्ठों पर पढ़े और प्रायः सब पर टिप्पणी भी दी।

किन्तु मन-मस्तिष्क का द्वन्द्व अभी भी असमाप्त है। व्यवहार में चिट्ठा अवश्य नितान्त व्यक्तिगत-अभिव्यक्ति है किन्तु अब ‘चिट्ठा-विश्व’ का निरन्तर होता जा रहा विस्तार इसकी ‘व्यक्तिगतता’ को ‘सार्वजनिक‘ में बदल रहा है, यह भी सत्य है। मई 2007 में मैं ने जब इस विश्व में पाँव रखा तो चिट्ठों की संख्या 2000 भी नहीं थी। आज यह संख्या चार गुना बढ़कर तेजी से पाँच गुना होने को अग्रसर है। मैथिलीजी तय नहीं कर पा रहे हैं कि इस दशा पर प्रसन्न हुआ जाए या सतर्क क्यों कि चिट्ठा-संख्या के इस तीव्र गति वाले विस्तार के कारण एग्रीगेटर पर चिट्ठों और टिप्पणियों का ‘गोचर जीवन काल’ कम से कमतर होता जाएगा।

मैं ‘लेखक’ कभी नहीं रहा और अब तक बन भी नहीं पाया। किन्तु वर्तमान पर टिप्पणी करने का ‘व्यसन’ मेरे लेखक होने का भ्रम बनाता लगता है। एक टिप्पणीकार के रूप में भी मैं पहले ही क्षण से इस बात का पक्षधर हूँ कि जो भी लिखा जाए, जिस भी स्थिति में लिखा जाए, उसमें ‘उत्तरदायित्व भाव’ अवश्य हो। मेरे लिए तो ‘स्वान्तः सुखाय लेखन’ भी अन्ततः ‘सामामजिक सरोकार‘ लिए होता है। सो, जहाँ ‘उत्तरदायित्व भाव’ नहीं, वहाँ न तो प्राण हैं और न ही विश्वसनीयता। ऐसा प्रत्येक ‘लेखन’ (वह ‘सृजन‘ हो अथवा ‘टिप्पणी’) मुझे ‘अवैध सन्तान’ ही लगता है।

सो, सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय मुझे तनिक भी अस्वाभाविक/असहज नहीं लगा। चिट्ठों पर आई टिप्पणियों को भी चिट्ठाकार का उत्तरदायित्व मानना मुझे आपत्तिजनक नहीं लगता। यदि चिट्ठे को ‘अखबार’ माना जाए तो उस पर आई टिप्पणी स्वतः ही ‘सम्पादक के नाम पत्र’ की हैसियत प्राप्त कर लेती है। तब यह, प्रकाशन के पहले ही क्षण से चिट्ठाकार का उत्तरदायित्व तो बनती ही है।मेरा द्वन्द्व इसी बात को लेकर है। मैं अभिव्यक्ति पर किसी भी प्रकार का प्रतिबन्ध अस्वीकार करता रहा हूँ। आपातकाल में आरोपित की गई सेंसरशिप का विरोध करने के कारण मुझे तब आकाशवाणी का सम्वाददाता बनाने से इंकार कर दिया गया था। किन्तु अपने उस निर्णय का मुझे न तब दुख था न अब है।

इसी मानसिकता के अधीन, चिट्ठों पर ‘वर्ड वेरीफिकेशन’ और ‘कमेण्ट माडरेशन’ के प्रावधान मुझे नहीं सुहाते। मेरे गुरु रविजी ने एक बार, धीमे से मुझे परामर्श दिया था - कमेण्ट माडरेशन की व्यवस्था अपने ब्लाग पर लागू करने का। निस्सन्देह उन्हें आगत की आहट सुनाई दे रही होगी और वे मेरी चिन्ता ही कर रहे होंगे। किन्तु उन्होंने जितना लिहाज बरतते हुए मुझे परामर्श दिया था, उससे अधिक विनम्र-दृढ़ता बरतते हुए मैं ने इंकार कर दिया था।
किन्तु कल से मैं द्वन्द्व में हूँ। क्या करूँ? मेरे लिखे का उत्तरदायित्व तो असंदिग्ध रूप से मेरा ही है। किन्तु टिप्पणियों का उत्तरदायित्व? मैं तो उसके लिए भी तत्पर हो सकता हूँ किन्तु मुझे यह तो मालूम हो कि टिप्पणीकार कौन है! इस जगत् में ‘एनानिमसों’ की संख्या ‘कुकुरमुत्तों’ की तरह बढ़ती जा रही है। स्थिति यह हो गई है कि एक ही विषय पर एक ‘एनानीमसजी‘ सहमति जताते हैं तो उसी टिप्पणी के ठीक नीचे दूसरे ‘एनानीमसजी’ असहमति अंकित कर रहे होते हैं। यह तय कर पाना कठिन हो जाता है कि ये दो अलगःअलग आत्माएँ हैं या एक ही व्यक्ति सुविधा के दुरुपयोग का खेल, खेल रहा है!

तो मैं क्या करूँ? जो मुझे सपने में भी स्वीकार नहीं, वही कमेण्ट माडरेशन की व्यवस्था अपने चिट्ठे पर लागू कर लूँ? या फिर चिट्ठा जगत को ही नमस्कार कर लूँ? दोनों ही स्थितियाँ मेरे लिए तो प्राणलेवा है।

या फिर, अपने चिट्ठे पर ‘न्यायिक क्षेत्राधिकार’ की घोषणा स्थायी रूप से अंकित कर दूँ? ताकि, यदि कोई मुझ पर कानूनी कार्रवाई करे तो मैं देश की विभिन्न अदालतों में उपस्थिति देने के लिए किए जाने वाले ‘आशंकित विवश देशाटन’ से बच सकूँ।

क्या यह द्वन्द्व मुझे अकेले का है?
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‘स्माइल पिंकी’ की जय हो

‘स्माइल पिंकी’ और उससे जुड़े तमाम लोगों को सलाम। इस तथ्य के बाद भी कि ‘स्लमडाग’ को श्रेष्ठ फिल्म का ‘आस्कर’ पुरुस्कार मिल चुका है।

मैं उन ‘अल्पसंख्यकों’ में शामिल हूँ जिन्हें ‘आस्कर’ का नाम न तो आतंकित करता, न ही प्रभावित। आकर्षित तो बिलकुल ही नहीं करता। भारतीय फिल्मों और फिल्मकारों के अपने मानक और अपने लक्ष्य हैं और कहना न होगा कि कई भारतीय फिल्में उन पूरी तरह खरी उतरी हैं। किन्तु ‘घर का जोगी जोगड़ा’ वाली मानसिकता से कोई नहीं उबर सकता। यह मानव मनोविज्ञान की एक ग्रन्थि है। हर कोई ‘घर से बाहर’ अपनी पहचान बनाना चाहता है। सो, भारतीय फिल्मकारो के लिए ‘आस्कर’ यदि ‘जीवन की अन्तिम अभिप्सा’ हो तो यह सहज और स्वाभाविक ही है। यह ललक गए कुछ वर्षों से ‘सनक’ की सीमा को भी छू गई। इस बार यह अपने चरम पर रही।

इस ‘सनक’ का चरम पर जाना ही मुझे आस्कर समारोह के प्रति उत्सुक बना बैठा। सेवेर से ही ‘बुध्दू बक्सा’ खोल लिया था। नौ बजते-बजते, ‘स्लमडाग’ को दो श्रेणियों में ‘आस्कर’ मिल चुका था तभी बिजली चली गई। दस बजे लौटी तो ‘स्लमडाग’ को सात ‘आस्कर’ मिलने का उत्सव पर्दे पर छाया हुआ था।

किन्तु मेरी उत्सुकता ‘स्माइल पिंकी’ को लेकर थी। ‘स्लमडाग’ के कोलाहल में उद्घोषक ने (खानापूर्ति की शैली में) सूचित किया कि अपने वर्ग में ‘स्माइल पिंकी’ ने ‘आस्कर’ प्राप्त कर लिया है। ‘स्लमडाग’ के (इस टिप्पणी के लिखे जाते समय तक) आठ ‘आस्कर’ पर ‘स्माइल पिंकी’ का एक ‘आस्कर’ मुझे भारी ही नहीं, भारी-भरकम अनुभव हो रहा है। मैं, ‘नक्कारखाने में अनसुनी हो रही तूती’ की आवाज में अपनी आवाज, परम् प्रसन्नता से मिला रहा हूँ।

‘स्लमडाग’ और ‘स्माइल पिंकी’ में मूलभूत अन्तर है। ‘स्लमडाग’ पूरी तरह से विदेशी उपक्रम है जिसमें कुछ भारतीयों को भी काम दिया गया। इन सब भारतीयों ने साबित कर दिया कि अपने काम में वे सब के सब निष्णात् हैं। उनकी इस महारत को तो हम सब पहले से ही सलाम कर रहे हैं। हम चाह रहे थे कि उनकी इस महारत को शेष विश्व भी स्वीकार करते हुए सम्मानित करे। इस वर्ष के ‘आस्कर’ पुरुस्कारों में हम भारतीयों की यह साध पूरी हो गई।

किन्तु प्रसन्नता के इस आवेग में मैं यह भूल नहीं पा रहा हूँ कि ‘स्लमडाग’ भारतीय फिल्म नहीं है। यह पूरी तरह से ऐसी विदेशी फिल्म है जो भारतीय समाज की एक बड़ी समस्या पर केन्द्रित है। मैं यह भी नहीं भूल पा रहा हूँ कि यह पूर्णतः व्यावसायिक फिल्म है जिसमें फिल्म निर्माण से जुड़े प्रत्येक पक्ष के लिए साधनों-सुविधाओं का अम्बार सहजता से उपलब्ध था। इसके लिए आवश्य ‘श्रेष्ठ मस्तिष्क’ अपनी मुँह माँगी कीमत वसूल कर, अपनी सेवाएँ दे रहे थे। जिस समस्या को लेकर फिल्म बनाई गई, उस समस्या का समाधान नहीं अपितु उसकी ‘मार्केटिंग’ कर भरपूर लाभार्जन इसका लक्ष्य था। वहाँ भारत की गरीबी को ‘ग्लेमराइज’ कर वाहवाही और रोकड़ा लूटना मकसद रहा।

और ‘स्माइल पिंकी’? ग्लेमर की चकाचौंध में यह छोटी सी डाक्यूमेण्टरी, अत्यन्त सीमित साधानों-सुविधाओं में बनी, शत-प्रतिशत भारतीय प्रयास है। इसकी अवधारणा, निर्माता, फिल्म के समस्त पक्षों से जुड़े समस्त लोग भारतीय हैं। इसका सम्पूर्ण फिल्मांकन भी भारत में ही हुआ है। इसमें न तो ग्लेमर है न ही व्यवसाय। मार्केटिंग की कल्पना तो इसे कहीं छू भी नहीं पाई। इसकी कथा और लक्ष्य ‘वैश्विक मानवता’ है। इसकी केन्द्रीय पात्र अवश्य भारतीय है किन्तु ऐसे बच्चे दुनिया के किसी भी हिस्से में पाए जा सकते हैं। ‘स्माइल पिंकी’ वस्तुतः दुनिया के ऐसे सारे बच्चों की चिन्ता करती है।

‘स्लमडाग’ जहाँ ‘वाणिज्यिक सोच’ के अधीन बनी है वहीं ‘स्माइल पिंकी’ ‘सेवा भावना’ के अधीन।

एक बात और। व्यावसायिक फिल्मों के लिए एकाधिक श्रेणियाँ निर्धारित की जाती हैं जबकि जिस श्रेणी में ‘स्माइल पिंकी’ पुरुस्कृत हुई वह श्रेणी अपने आप में इकलौती है। इस पैमाने पर ‘स्माइल पिंकी’ ने ‘अपनी श्रेणी में शत प्रतिशत’ पुरुस्कार प्राप्त किए हैं जबकि ‘स्लमडाग’ ने ‘अधिकांश पुरुस्कार’ प्राप्त किए हैं।

सो, ‘स्लमडाग’ को मिली सफलता, मेरी दृष्टि में ‘विदेशी उपक्रम के माध्यम से कुछ भारतीयों की उपलब्धि’ है जबकि ‘स्माइल पिंकी’ को मिली सफलता ‘भारत और भारतीयता की उपलब्धि’ है। दोनों में बहुत ही बारीक अन्तर है किन्तु यही अन्तर ‘स्माइल पिंकी’ को ‘स्लमडाग’ के मुकाबले हिमालयी ऊँचाई दिला रहा है।

मैं निस्सन्देह ‘स्लमडाग’ के उत्सव में शामिल हूँ किन्तु मन में तो ‘स्माइल पिंकी’ ही बसी हुई है। मैं जानता हूँ कि ‘मार्केटिंग की मारी और टीआरपी के लिए जी रही’ चैनलों के लिए ‘स्माइल पिंकी’ की बात करना मूर्खतापूर्ण और घाटे का सौदा है। इसके नाम पर विज्ञापन नहीं मिल सकते। इसलिए ‘स्लमडाग’ के मुकाबले इसे उपेक्षित ही रहना है। यह भी ‘घर का जोगी जोगड़ा’ वाली उक्ति की श्रेष्ठ मिसाल बना दी जाएगी। किन्तु सच तो यही है कि यदि किसी भारतीय प्रयास ने आस्कर जीता है तो वह केवल और केवल ‘स्माइल पिंकी’ ही है।

बुध्दू बक्से पर कहा जा रहा है कि अभी दो श्रेणियों के ‘आस्कर‘ और घोषित होना शेष हैं। मुमकिन है कि वे दोनों ही ‘स्लमडाग’ को मिल जाएँ फिर भी वह ‘स्माइल पिंकी’ के सामने पानी भरती ही नजर आएगी।

‘स्माइल पिंकी’ को और उससे जुड़े तमाम लोगों को फिर से सलाम।

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यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.

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विवश कर दिया भुवनेश ने

गई रात काम-काज निपटाते-निपटाते कुछ अधिक ही देर हो गई। सवेरे तीन बजे बिस्तर पर जा पाया। तय किया था कि आज ब्लाग पर कुछ भी नहीं लिखूँगा। किन्तु भुवनेश ने ‘निश्चय भंग’ कर दिया।

कोई तीस-पैंतीस वर्षों से भुवनेश से सम्पर्क है। पता ही नहीं चला कि ‘दशोत्तरजी’ का रूपान्तरण कब और कैसे ‘भुवनेश’ में हो गया! जतन करने पर भी याद नहीं आ रहा। अब हम पारिवारिक स्तर पर जुड़े हुए हैं। मानसिक तादात्म्य उससे तनिक अधिक है। महीनों न मिलने पर भी कोई असुविधा और शिकायत नहीं होती।


भुवनेश रेल्वे में ‘चीफ ट्रेन गुड्स क्लर्क’के पद पर कार्यरत था। अभी-अभी, दिसम्बर 2008 में स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ली है। दो बेटियों और एक बेटे का प्रेमल और जिम्मेदार पिता। तीनों बच्चे कामकाजी हैं। बड़ी बेटी का विवाह अभी-अभी किया है।


भुवनेश की पत्नी, हम सबकी सुषमा भाभी, कन्धे से कन्धा मिला कर भुवनेश का साथ निभाने वाली जुझारु और कर्मठ महिला। अपनी वृध्द सास और ‘चारों बच्चों’ की देखभाल बिलकुल ऐसे करती हैं जैसे कोटर में बैठे अपने बच्चों की देखभाल कोई कबूतरी करती है। परिवार का मुखिया निस्सन्देह भुवनेश ही है किन्तु घर तो सुषमा भाभी का है।


बीमा एजेण्ट होने के कारण मुझे असंख्य परिवारों में जाना पड़ता है। सो, अधिकारपूर्वक कहने की स्थिति में हूँ कि भुवनेश का परिवार सचमुच में ‘सबसे न्यारा’ ही है। ऐसा कम ही होता है कि परिवार के सारे सदस्यों की रुचि समान हो। जिसे यह अनूठापन देखना हो, वह भुवनेश-सुषमा का यह परिवार देख ले। पूरा परिवार अभिरुचि सम्पन्न है और इस अभिरुचि में भी ‘कला फिल्में’ (या कि समान्तर फिल्में) सबको समान रुप से पसन्द हैं। मधुबाला और मीनाकुमारी के ‘वाल साइज’ वाले ‘ब्लेक एण्ड व्हाइट पोस्टर’ मैंने पहली बार (और अब तक अन्तिम बार भी) मैंने भुवनेश के घर में ही देखे थे। सामाजिक और जातिगत स्तर पर मिलने-जुलने वाले और औपचारिक व्यवहार रखने वालों के बीच यह ‘दशोत्तर परिवार’ कभी ‘विचित्र किन्तु सत्य’ तो कभी ‘समझ में नहीं आता’ जैसे मुहावरों से उल्लेखित किया जाता है। रेल्वे-मित्रों के बीच भुवनेश को ‘पिछड़ा’ कहा और माना जाता रहा। 33 वर्षों की अपनी नौकरी में उसने ‘सूखी तनख्वाह’ से आगे बढ़ कर कभी सोचा ही नहीं। इस मायने में तो वह सचमुच में ‘पिछड़ा’ ही है। वर्ना, अच्छी-भली ‘सैल्स टैक्स इन्सपेक्टरी’ छोड़ कर रेल्वे की बाबूगिरी करना क्यों पसन्द करता?


अपनी अभिरुचि के अधीन ही भुवनेश को कलम ने आकर्षित किया। वह नियमित लेखक नहीं है। कभी-कभार ‘कुछ’ लिख लेता है। ‘प्रेम’ में भुवनेश का अगाध विश्वास है। कोई उससे प्रेम करे-न-करे, वह सबसे प्रेम करता है। इसी के चलते, ‘वेलेण्टाइन डे’ पर निकलने वाले अखबारी परिशिष्टों वे, जेब से रोकड़ा खर्च कर, ‘प्रेम सन्देश’ प्रकाशित करवाता है। इसमें उल्लेखनीय बात यह कि सुषमा भाभी भी इस ‘प्रेम प्रकटीकरण’ में ‘रोकड़ा से रोकड़ा मिलाकर’ भुवनेश का साथ देती हैं।


इसी भुवनेश ने आज, पोस्ट न लिखने का मेरा निश्चय भंग कर दिया। श्रीमतीजी की भाभी की शल्यक्रिया हुई है। उनकी मिजाजपुर्सी के लिए वे इन्दौर गई हुई हैं। सो, उठ कर (यह उठना दस बजे हो पाया), नित्य कर्मों से निवृत्त होकर, चाय बनाई और फैली टाँगो पर अखबार बिछा लिया। पढ़ते-देखते, ‘नईदुनिया’ के रविवारीय परिशिष्ट का अन्तिम पन्ना सामने आया तो अन्तिम कालम में ‘राइट टाप’ पर, ‘फोर कलर’ में छपी भुवनेश की कविता नजर आई। मेरे लिए यह भुवनेश की पहली कविता थी। सो ‘लपक’ कर पढ़ना शुरु किया और एक साँस में पढ गया। एक बार पढ़ी। दूसरी बार पढ़ी। फिर पढ़ी। ‘इतनी बार’ पढ़ने का कारण केवल उसका ‘अच्छा लगना’ नहीं था। एक कारण और था। यह कविता ‘प्रेम’ पर नहीं थी। अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति अपने बच्चों के माध्यम से पूरे करने वाल ‘आप-हम जैसे अतिरेकी पालकों से त्रस्त स्कूली बच्चों’ पर थी यह कविता। इस कविता ने मुझे चैंकाया ही।


और कुछ कहूँ इससे अच्छा तो यही होगा कि आप खुद ‘गुमशुदा बचपन’ शीर्षक से प्रकाशित वह कविता पढ़ लें और मेरे चैंकने का कारण जान लें -


बचपन

हम बड़ों की भीड़ मे गुमशुदा है

हमने उसे बना लिया है

अपनी लालसाओं का शिकार।

उसके नन्हें कन्धों पर लाद दिए हैं

भारी भरकम बस्ते

प्रतिशतों से भयभीत मासूम

हाँफ रहा है

कोचिंग कक्षाओं के बीच।

बचपन को खड़ा कर दिया है हमने

दिखावटी मंच पर

उसके मुँह में डाल दिए हैं अपने

भद्दे चुटकुले।

उसके पास खड़ी कर दी हैं

छोटे वस्त्रों में इतराती

धरती की अप्सराएँ

वह नाच रहा है रुमानी गीतों

और

आयटम डांस की जहरीली थिरकन पर।

तालियों की गड़गड़ाहट में

ईर्ष्‍या और द्वेष लील रहे हैं

उसकी मासूमियत।

तथाकथित न्यायाधीशों से घिरा

भयभीत नौनिहाल

एसएमएस की दया माँग रहा है

और हम सब कभी खुशी कभी गम के इस प्रायोजित खेल में

अपनी विषबुझी महत्वाकांक्षाओं के साथ

सहर्ष शामिल हैं।

क्योंकि हमारे पास बचपन के लिए न तितली है, न चिड़िया

ना ही पहाड़, नदी और झरने

ना घरौंदे, ना लुका छिपी

और ना ही छुकछुक गाड़ी का खेल।

हम तो सिर्फ

बचपन को जल्दी से जल्दी

बड़ा करने की होड़ में हैं।

उसे एक चूहा दौड़ में

शामिल कर देने की तेज होती दौड़ में हैं।


इसके बाद कुछ भी कहने-सुनने को बाकी नहीं रह जाता। मेरी विवशता और आपकी समझदारी पर मुझे पूरा भरोसा है।
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मिठास को उकेरती कसक

खेत में रखे अपने अण्डों की तरफ बढ़ते साँप को देखकर टिटहरी जो क्रन्दन करती है, वह मैंने आज तक नहीं सुना। किताबों में पढ़ा और लोक कथाओं, लोकोक्तियों में सुना भर है। किन्तु उस रात ऋषि की आवाज में मुझे टिटहरी का क्रन्दन सुनाई दे रहा था।

यह इसी पन्द्रह फरवरी की रात की बात है। कोई साढ़े आठ-पौने नौ बजे होंगे। मोबाइल घनघनाया। निपट अनजान नम्बर था। मेरी ‘हेलो‘ के जवाब में विगलित और व्याकुल स्वर सुनाई पड़ा -‘अंकलजी! मैं ऋषि बोल रहा हूँ। मेरी मदद कीजिए। प्लीज।’ उस रात को सर्दी ठीक-ठीक ही थी। किन्तु ऋषि की आवाज सुनकर पसीना आ गया। लगा, धड़कन बन्द होने के लिए सरपट दौड़ने लगी है। साँस घुटने लगी। लगा, प्राणान्त हो जाएगा।

ऋषि मेरे बड़े बेटे वल्कल का ‘सखा‘ और ‘सहपाठी’ है। बेंगलुरु में नौकरी पर था। कम्पनी ने उसे, दक्षिण कोरिया के ‘सुवों’ (SUWON) शहर भेजा है। अभी-अभी। इसी पहली फरवरी को वहाँ पहुँचा है ऋषि। बेंगलुरु से पूरे नौ घण्टों की हवाई-यात्रा कर। 'देस' से कोई 5600 किलोमीटर दूर। वहाँ के मुकाबले भारत में सवेरा कोई साढ़े तीन घण्टे पहले हो जाता है। याने जब भारत में सवेरे के सात बजते हैं तो वहाँ साढ़े दस बज रहे होते हैं। समय के इस अन्तर ने ही मुझे इस ‘प्राणान्तक’ स्थिति में ला खड़ा कर दिया था। याने, कोरियाई समय के हिसाब से ऋषि मुझसे आधी रात मे बात कर रहा था। नहीं, बात नहीं कर रहा था। ‘मेरी मदद कीजिए’ कह रहा था। परदेस में बैठा अकेला लड़का, आधी रात में 'मदद' के लिए आवाज लगा रहा था! जितनी भी हो सकती थीं, वे सब की सब कुशंकाएँ ‘शेष नाग’ बन कर अपने फन फहराने लगी थीं। कौन सी विपत्ति आ पड़ी उस अकेले लड़के पर? लेकिन उससे पहले ही सवाल आया-मैं उसकी क्या मदद कर पाऊँगा? उसकी अज्ञात विपत्ति की आशंका और अपनी ‘कोई भी सहायता न कर पाने की दशा’ ने मुझे संज्ञाहीन ही बना दिया।

मेरा तो मानो पुनर्जन्म हुआ। बड़ी कठिनाई से पूछ पाया - ‘क्या बात है? सब ठीक तो है ना? तुम्हें कुछ हुआ तो नहीं?’ मेरी आवाज से ही मानो ऋषि ने मेरी दशा का अनुमान लगा लिया। तत्काल ही बोला -‘नहीं! नहीं! अंकलजी। वैसी कोई बात नहीं।’ उसने कहे तो कुल ये सात शब्द किन्तु मुझे लगा कि मैं ने चैरासी लाख योनियाँ पार कर लीं। मेरी साँस सामान्य तो हुई किन्तु संयत तो तब भी नहीं हो पाया। तनिक कठिनाई से ही पूछ पाया - ‘फिर क्या बात है? कैसी मदद चाहिए?’

उत्तर में ऋषि ने जो कुछ कहा, सुनकर मैं अपने आपे में नहीं रह सका। रोना आ गया। यूँ देखूँ तो ‘बात न बात का नाम’। किन्तु ऋषि की बात को ‘यूँ’ देख पाना ही तो मुमकिन नहीं हुआ! ऋषि ने कहा-‘हिन्दुस्तान के समय के मुताबिक आज सवेरे साढे़ आठ बजे से मैं कोशिश कर रहा हूँ कि या तो अभिषेक से मेरी बात हो जाए या फिर उस तक मेरी बात पहुँच जाए। किन्तु पूरे बारह घण्टे हो गए हैं। मैं हलकान हो गया हूँ। आज अभिषेक की शादी है। मुझे आज वहाँ होना चाहिए था। लेकिन मेरा होना तो दूर रहा, मेरी आवाज भी अभिषेक तक नहीं पहुँच पा रही है। हार कर मैंने आपको फोन लगाया है। प्लीज ऐसा कुछ कीजिए कि या तो अभिषेक से मेरी बात हो जाए या फिर मेरी बात उस तक पहुँच जाए।’

अभिषेक याने ऋषि और वल्कल का ‘सखा‘ और सहपाठी। उसी की शादी में ठुमके लगाने के लिए वल्कल हैदराबाद से यहाँ पहुँचा था। आते ही उसने भी ऋषि को याद किया था-अत्यन्त दुखी मन से। ऋषि का यहाँ न होना, उसके होने की कसक को और उभार रहा था। पता नहीं, इन तीनों ने क्या-क्या सोचा होगा इस प्रसंग के लिए। ऋषि भारत में होता तो सारी बाधाओं को चीर कर अभिषेक की शादी में आता और अपनी उपस्थिति को यादगार बना देता।


ऋषि की आवाज में यही कसक हुमक रही थी। वह रुँआसा था। शायद हताश भी। ऋषि, अभिषेक और वल्कल की तिकड़ी अपने स्कूल में पर्याप्त ‘ख्यात’ थी। अध्यापक इसके पहले ‘कु’ और छात्र ‘वि’ लगा लिया करते थे। वल्कल की शादी में भी ऋषि नहीं पहुँच पाया था। और अब अभिषेक की शादी में भी?


वह बता रहा था कि उसने अभिषेक और वल्कल के मोबाइलों पर वास्तव में अनगिनत बार ‘ट्राई’ किया किन्तु एक बार भी सफल नहीं हो पाया। उसने कहा-‘अंकलजी! यह भी कोई बात हुई? मैं क्या बताऊँ कि मुझे कैसा लग रहा है?’ मैंने उसे ढाढस बँधाने की कोशिश की। कहा कि मैं अभिषेक के घर बात कर, सम्पर्क कराने की कोशिश करता हूँ। मैंने उसे अभिषेक के घर का नम्बर भी दिया। अभिषेक की माताजी से बात कर ऋषि की व्याकुलता सूचित की। ऋषि से कहा कि फोन बन्द कर, ‘चेट’ पर आ जाए।


थोड़ी ही देर बाद चेट बाक्स में ऋषि का सन्देश आया - ‘अच्छा अंकलजी। गुड नाइट।’ उसने यह नहीं बताया कि अभिषेक से उसका सम्पर्क हुआ या नहीं। किन्तु उसकी पहली आवाज सुनने से लेकर चेट बाक्स में उसके सन्देश के आने के इन कुछ मिनिटों के समय में मैं एक पूर युग को जी गया। इस युग में प्रगाढ़ आत्मीयता थी, वह मिठास थी जो मिठास की तमाम उपमाओं और प्रतिमानों को बौना, अपर्याप्त और अधूरा साबित कर रही थी, अपनेपन की वह ऊष्मा थी जिसने कृत्रिमता, दिखावा, औपचारिकता को भस्म कर दिया था। इस युग में रिश्तों का वह सब कुछ था जो आज ‘अजायब घर के काबिल’ हो गया है। ये बच्चे भले ही अपनी आयु के तीसरे दशक को जी रहे हैं किन्तु दूरियाँ अभी भी इन्हें सालती हैं, ‘सखा का बाराती’ न बन पाना व्याकुल और व्यग्र करता है, उससे बात न कर पाना जीवन की व्यर्थता लगता है।

‘पैकेज के मारे’ इन युवाओं के मन में यह तड़प अभी भी बाकी है-यह अनुभव कर मन को शान्ति मिली। लगा, जेठ की तपती दुपहरी में ऋषि ने मुझे घने नीम की ठण्डी छाया में बैठा दिया है। ऋषि की आवाज की कसक ‘दोस्ती’ की मिठास को उकेर रही थी। इस कसक पर मैं न्यौछावर।

टिटहरी का क्रन्दन मैं अब भी सुन रहा हूँ किन्तु लग रहा है कि उसके अण्डों को खाने के लिए बढ़ रहा साँप क्रन्दन की विकरालता से भयभीत हो लौट गया है। शायद अपने प्राण बचा कर।

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संस्‍कृति और धर्म रक्षा : व्यापार बनाम उद्यम

कल रात कोई सवा ग्यारह बजे यह समाचार एक चैनल पर देखा था और आज प्रातः अखबारों में देख रहा हूँ। ‘आश्चर्यचकित’ तो क्षणांश को भी नहीं हुआ किन्तु तनिक असहज अवश्य हूँ।

महाराष्ट्र राज्य शासन ने केन्द्र शासन के ‘माता-पिता के भरण पोषण और कल्याण कानून’ को अपने राज्य में लागू करने पर सहमति दे दी है। अब, महाराष्ट्र में भी, उन पुत्रों/पुत्रियों को तीन माह का कारावास अथवा पाँच हजार रुपयों तक का अर्थ दण्ड हो सकेगा जो अपने वृध्द माता-पिता का ‘सम्मान’ नहीं करेंगे।

आश्चर्यचकित इसलिए नहीं हुआ क्यों कि ‘यह तो होना ही था’ वाला पूर्वानुमान था। ‘भारतीय समृध्दि’ परिवार को छोटा नहीं करती। इसमें ‘संयुक्त परिवार’ अथवा ‘पारिवारिक सामूहिकता’ स्वतः सन्निहित है जिसमें परिवार का मुखिया, चाहे कितना ही वृध्द क्यों न हो जाए, परिवार के निर्णय लेने का पारम्परिक अधिकारी होता है। ‘पाश्चात्य समृध्दि’ में ऐसा नहीं है। वहाँ ‘वैयक्तिकता’ प्रधान है। इसीके चलते हम ‘छोटे परिवार’ से प्रारम्भ होकर ‘एकल परिवार’ तक आ पहुँचे। ऐसे में परिवार के वृध्द भी एक अलग और स्वतन्त्र ‘एकल परिवार’ बन कर रह गए।
किन्तु ‘राज्य द्वारा अपने नागरिकों की देखभाल’ के मामले में पश्चिम में और हममें मूलभूत अन्तर है। वहाँ, वृध्दों की देखभाल का जिम्मा राज्य का होता है। हमारे यहाँ ऐसा नहीं है। हमारे यहाँ तो वृध्द आज भी सन्तान का ही उत्तरदायित्व हैं।

पश्चिम के रास्ते चल कर समृध्दि प्राप्त करने के लिए ‘एकल’ होना अपरिहार्यता है। वह तो हम हो गए किन्तु सामाजिक स्तर पर ‘संयुक्त’ बने रहना भी अपरिहार्य है, यह भूल गए। ऐसे में, ‘राज्य’ हमें ‘एकल’ होने के लिए सुविधाएँ और प्रोत्साहन तो उपलब्ध करता है किन्तु उसके ‘उप उत्पाद’ (बाय प्राडक्ट) से उपजी स्थिति की जिम्मेदारी नहीं लेता। विकराल जनसंख्या के कारण यह सम्भव भी नहीं लगता।

अब, जबकि ‘भारतीय संस्कृति’ में जो माता-पिता ‘तीर्थ’ और दिनारम्भ में प्रणम्य (‘प्रातःकाल उठि कर रघुनाथा, मात-पिता, गुरु नाँवहि माथा’) हुआ करते थे, वे अब ‘कानूनी जिम्मेदारी’ बनने लगे हैं, तब मुझे लगता है, यही वह बिन्दु है जहाँ से ‘भारतीय संस्कृति की रक्षा की चिन्ता’ शुरु की जानी चाहिए।

यह स्थिति, बहुत ही धीमे-धीमे आई है, बिल्ली की तरह दबे पाँव। किन्तु इसका प्रतिकार तो अपनी सम्पूर्ण शक्ति, क्षमता और सक्रियता से, अविलम्ब ही करना पड़ेगा। क्षरण तो सदैव ही मन्द गति से प्रारम्भ होता है किन्तु उसके प्रभावों से बचने के उपाय तो तीव्रतम गति से करने पड़ते हैं।

भारतीय संस्कृति और धर्म के पहरुओं की भूमिका निभाने वाले इस ओर शायद ही दृष्टिपात करें। क्योंकि उन्हें सबसे पहले अपने वृध्द परिजनों को सम्मान देने के लिए समय निकालना पड़ेगा और उनके लिए आवश्यक व्यवस्थाएँ करने का कष्ट उठाना पड़ेगा।

यह सब करने की अपेक्षा, सड़कों पर ताण्डव मचाना, लोगों को भयभीत करना, ‘अपनी सरकार’ होने के दम पर आतंक उपजा कर अपनी धाक जमाना अधिक सहज और सुविधाजनक होता है।

भारतीय संस्कृति के ठेकेदारों और धर्म रक्षकों के लिए यह एक और ‘स्वर्णिम अवसर’ उपलब्ध है। ‘पाश्चात्य समृध्दि’ के कारण अकेले हो रहे वृध्दों की सुरक्षा, सेवा और देख भाल के लिए वे कोई दीर्घकालीन और स्थायी प्रकल्प प्रारम्भ कर सकते हैं। हाँ, इस प्रकल्प से प्राप्त होने वाले सम्मान और दुआओं के लिए उन्हें वर्षों तक, अत्यन्त धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा करनी होगी।

यह देखना रोचक होगा कि वे भय आतंक उपजाने वाले और ताण्डव मचाने जैसे ‘तत्काल प्रभाव’ वाले नकारात्मक काम करने में विश्वास करते हैं या भारतीय संस्कृति और धर्म की रक्षा के सच्चे और वास्तविक दीर्घकालीन प्रकल्प शुरु करते हैं।

हाथों-हाथ लाभ की कामना भरे प्रयत्‍न व्यापारी (ट्रेडर) करता है जबकि दीर्घकालीन प्रकल्प बना कर, दूरगामी-स्थायी लाभ की कामना करने का साहस कोई ‘उद्यमी’ (एण्टरप्रीनर) ही कर पाता है।

भारतीय संस्कृति और धर्म की ठेकेदारी कर रहे लोग ‘व्यापारी’ हैं या ‘उद्यमी’, यह उन्हें ही साबित करना है।

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बीमा किश्त भुगतान की रियायती अवधि


बीमा किश्तों के भुगतान के लिए भा.जी.बी.नि. अपने ग्राहकों को रियायती अवधि (ग्रेस पीरीयड) उपलब्ध कराता है। यह अवधि, सामान्यतः देय दिनांक से एक माह (किन्तु 30 दिन से कम नहीं) की होती है जबकि ‘कुछ पालिसियों’ में यह 15 दिनों की ही होती है।

वार्षिक, अध्र्द वार्षिक और तिमाही किश्त भुगतान विधि में यह अवधि एक माह (30 दिन से कम नहीं) और मासिक किश्त भुगतान विधि में 15 दिन होती है। किन्तु उपरोल्लेखित ‘कुछ पालिसियों’ यह अवधि सदैव 15 दिन ही होती है भले ही उनकी किश्त भुगतान विधि वार्षिक, अध्र्द वार्षिक अथवा तिमाही ही क्यों न हो।

रियायती अवधि सदैव ही ‘देय दिनांक’ से प्रारम्भ होती है। यह देय दिनांक वही होता है जो पालिसी का प्रारम्भ दिनांक होता है। वार्षिक विधि से किश्त भुगतान विधि वाली पालिसियों में देय माह भी वही होता है जो पालिसी का प्रारम्भ माह होता है।

इसे, इस उदाहरण से समझें।

किसी पालिसी का प्रारम्भ दिनांक 28 दिसम्बर है। यदि इसकी किश्त भुगतान विधि वार्षिक है तो इसकी किश्त प्रति वर्ष 28 दिसम्बर को देय होगी। किन्तु यदि इसकी किश्त भुगतान विधि अर्ध्‍द वार्षिक है तो इसकी किश्तें प्रति वर्ष 28 दिसम्बर और 28 जून को देय होंगी और यदि इसकी किश्त भुगतान विधि तिमाही है तो इसकी किश्त देय दिनांक प्रति वर्ष 28 दिसम्बर, 28 मार्च, 28 जून तथा 28 सितम्बर होगी। मासिक किश्त भुगतान विधि में प्रत्येक माह की 28 तारीख, देय दिनांक होगी। रियायती अवधि, इसी देय दिनांक से प्रारम्भ होगी।

इस रियायती अवधि का महत्व और इसकी गम्भीरता अधिकांश ग्राहकों को पता नहीं होती। ग्राहक सामान्यतः इसका एक ही अर्थ निकालते हैं कि इस अवधि में किश्त जमा करने पर किश्त की रकम पर ब्याज अथवा विलम्ब शुल्क नहीं देना पड़ता है। किन्तु इसका महत्व इसके अतिरिक्त भी है।

यह अवधि ‘निगम’ अपनी ओर से, स्वैच्छिक रूप से उपलब्ध कराता है इसलिए इस अवधि में ग्राहक किश्त जमा कराए या नहीं, उसे पूरी-पूरी बीमा सुरक्षा उपलब्ध रहती है। अर्थात्, 28 दिसम्बर को देय किश्त 27 जनवरी तक भी जमा नहीं कराई जाए और (इस अवधि के दौरान) ग्राहक की मृत्यु हो जाए तो ‘निगम’ उसके नामित (नामिनी) को मृत्यु दावे की रकम चुकाएगा।

इसमें एक बारीक बात और जिसके बारे में बहुत कम जानते हैं। रियायती अवधि के अन्तिम दिनांक को भी यदि ग्राहक ने किश्त जमा नहीं कराई और उस दिनांक की रात्रि 12 बजे से पहले उसकी मृत्यु हो गई तो भी ग्राहक के नामित को मृत्यु दावा देय होगा। इस बात में ‘पेंच’ मात्र यही है कि किश्त जमा कराने (आर्थिक ‘लेन-देन’) का समय बीमा कम्पनी अपनी सुविधा से (जैसे, सामान्य दिनों में अपराह्न साढ़े तीन बजे तक और शनिवार को दोपहर एक बजे तक) निर्धारित करती है जबकि ‘रिस्क कवरेज’ तो उस ‘पूरी तारीख’ (अर्थात् रात 12 बजे) तक उपलब्ध रहता है।

स्थिति का दूसरा पक्ष उपरोक्त विवरण से स्वतः स्पष्ट हो जाता है। अर्थात्, रियायती अवधि में किश्त जमा नहीं कराने पर पालिसी स्वतः ही कालातीत (लेप्स) हो जाती है और ग्राहक बीमा सुरक्षा से वंचित हो जाता है। अर्थात्, रियायती अवधि में किश्त जमा नहीं हो और ग्राहक की मृत्यु हो जाए तो ऐसे प्रकरण में मृत्यु दावा की रकम देय नहीं होगी।

अर्थात्, बीमा सुरक्षा निरन्तर प्राप्त करते रहने के लिए, ग्राहक के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी पालिसी को चालू बनाए रखे जिसके लिए, रियायती अवधि में अपनी किश्त जमा कराना उसके लिए एक मात्र उपाय है।

इस पोस्ट के प्रारम्भ में ऐसी ‘कुछ पालिसियाँ’ उल्लेखित की गई हैं जिनकी किश्तें जमा कराने के लिए यह रियायती अवधि 15 दिनों की होती है। ये ऐसी पालिसियाँ होती हैं जिनमें, बहुत ही कम प्रीमीयम में ग्राहक को बीमा सुरक्षा उपलब्ध कराई जाती है। ऐसी पालिसियों में ग्राहक को परिपक्वता राशि (मेच्योरिटी वेल्यू) या तो बिलकुल ही नहीं मिलती (वाहन बीमा की तरह) या फिर, पालिसी अवधि में जमा कराई गई किश्तों की रकम में से कुछ रकम कम कर, ग्राहक को लौटाई जाती है। ऐसी पालिसियों को ‘शुद्ध बीमा’ (प्योअर इंश्योरेंस) अथवा ‘अवधि बीमा’ (टर्म इंश्योरेंस) अथवा ‘उच्च जोखिम योजना’ (हाई रिस्क प्लान) कहा जाता है। जैसा कि शुरु में कहा गया है, ऐसी पालिसियों की किश्त भुगतान विधि कोई सी भी हो, रियायती अवधि 15 दिन ही होती है।

इन ‘हाई रिस्क प्लान’ वाली लेप्स पालिसियों को चालू कराने के लिए वे समस्त औपचारिकताएँ पूरी करनी पड़ती हैं जो पालिसी लेते समय की गई थीं। केवल नया प्रस्ताव पत्र नहीं लिया जाता। इन औपचारिकताओं में यदि चिकित्सा परीक्षण भी शामिल हैं तो वे सब परीक्षण ग्राहक को अपने ही खर्चे से कराने पड़ते हैं। ऐसी योजनाओं में अमूल्य जीवन तथा अमूल्य जीवन-1 (तालिका 179 तथा 190), अनमोल जीवन तथा अनमोल जीवन-1 (तालिका 153 तथा 164), बीमा सन्देश (तालिका 94), तथा बीमा किरण और न्यू बीमा किरण (तालिका 111 तथा 150) प्रमुख हैं। इनमें से बीमा किरण तथा न्यू बीमा किरण में रियायती अवधि यद्यपि 30 दिनों की दी गई है किन्तु लेप्स पालिसी चालू कराने के लिए समस्त औपारिकताएँ पूरी करना इनके लिए भी अनिवार्य है।

शेष पालिसियों में, रियाती अवधि के बाद भी, भले ही भुगतान खिड़की पर, विलम्ब शुल्क अथवा ब्याज के साथ बीमा किश्त जमा कर ली जाती है किन्तु तब भी वह ‘लेप्स पालिसी का पुनर्चलन’ ही हो रहा होता है। ग्राहक को इसकी जानकारी केवल इसलिए नहीं होती क्योंकि उससे कोई औपचारिकता पूरी नहीं कराई जाती।

रियायती अवधि के बाद किश्त जमा कराने पर ग्राहक से, किश्त की रकम पर, रियायती अवधि का भी विलम्ब शुल्क अथवा ब्याज लिया जाता है। अर्थात् रियायती अवधि की छूट, रियायती अवधि तक ही उपलब्ध होती है। अवधि की समाप्ति के साथ ही साथ, सारी सुविधाएँ भी समाप्त हो जाती हैं।

इसलिए, ग्राहक की बेहतरी इसी में है कि रियायती अवधि में अपनी किश्त जमा कराए और निरन्तर बीमा सुरक्षा प्राप्त करता रहे।

पालिसी लेप्स होने पर उसे चालू कराने के साथ ही ग्राहक को बीमा सुरक्षा फिर से मिलने लगती है। किन्तु लेप्स पालिसी चालू करा लेने के बाद भी, (पालिसी के लेप्स होने के कारण उपजा खतरा और उससे होने वाली हानि के कारण) ग्राहक ने अपना कितना बड़ा नुकसान कर लिया है, यह ग्राहक को मालूम नहीं हो पाता।

इस खतरे के बारे में और ऐसी ही कुछ और छोटी-छोटी बातें फिर कभी।

अन्त में वही निवेदन - ये विचार मेरे हैं। कृपया इन्हें, भारतीय जीवन बीमा निगम के विचार न समझें।
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यशोविजय सूरिश्वरजी महाराज से मेरी याचना

'बर्ग वार्ता' की आज की पोस्ट दिमागी जर्राही बरास्ता नाक [इस्पात नगरी से - खंड 9] पढ़ कर (और टिप्पणी के रूप में ‘बिन माँगी सलाह’ देकर) चुप बैठ गया था। किन्तु लगा कि कुछ चूक कर रहा हूँ। सो, ब्लाग फिर खोला तो पाया कि प्रदीप मानोरिया भी मेरे अनुमान को पुष्ट करते हुए टिपिया चुके हैं। मनोरियाजी की टिप्पणी से लगा कि मैं ‘जैन साधु’ के विदेश प्रवास से ‘खिन्न’ हूँ। जबकि वास्तविकता इसके पूर्णतः विपरीत है। तब, अनुरागजी की दी हुई, अखबार की लिंक से, ‘पिट्सबर्ग ट्रीब्यून-रीव्यू’ का पूरा समाचार पढ़ा।


यशोविजय सूरिश्वरजी महाराज की प्रसन्नता भली लगी किन्तु डा. दिनेश मेहता और श्रीकान्त भाई पारीख का ‘स्पष्टीकरण’ अच्छा नहीं लगा। दोनों के ‘स्पष्टीकरण’ में ‘प्रायश्चित भाव’ यद्यपि कहीं नहीं है तदपि ‘अपराध बोध’ को ‘बिटविन द लाइन्स’ आसानी से पढ़ा जा सकता है।


मैं ‘सनातनी’ हूँ किन्तु स्वीकार करता हूँ कि सनातनी साधुओं में से गिनती के साधु ही मुझे आकर्षित कर पाए है और प्रभावित करने वाले तो नगण्य से हैं। वे ‘मोह माया त्याग’ करने का उपदेश देते हैं किन्तु देखता हूँ वे खुद ‘मोह माया’ को चिपटाए बैठे हैं। इनमें से कुछ राजाओं को भी परास्त करते नजर आते हैं तो कई स्थानीय जमीदारों/जागीरदारों जैसे।

इनकी तुलना में जैन साधुओं ने मुझे तनिक अधिक आकर्षित किया। इनमें भी दिगम्बर सन्तों ने अधिक। इनमें से विद्यानन्दजी महाराज को तो मैं अब तक अपनी स्मृति में से रंच मात्र भी मद्धिम नहीं कर पाया हूँ। उनके प्रवचन सुनने के लिए मैं अपने गाँव मनासा से कोई सवा दौ सौ किलोमीटर की यात्रा कर इन्दौर तक गया हूँ। यह सन् 61-62 की बात होगी तब यातायात के साधन अत्यल्प और सीमित थे। आकाशवाणी के इन्दौर केन्द्र के तत्कालीन केन्द्र निदेशक नैयर साहब ने, इन्दौर में उनका साक्षात्कार जब रेकार्ड किया था तब सौभाग्यवश मैं भी उपस्थित था। वह साक्षात्कार, अपने-अपने क्षेत्र के दो महारथियों का ऐसा अविस्मरणीय सम्वाद था जिसमें दोनों ही ‘लुट जाने को उतावले’ हुए जा रहे थे। नैयर साहब घुमा-फिरा कर सवाल कर रहे थे और विद्यानन्दजी महाराज बिना किसी लाग लपेट के उत्तर दिए जा रहे थे वह भी इतना विस्तृत कि नैयर साहब के अगले दो-तीन पूरक प्रश्न उसमें स्वतः ही समाहित हो रहे थे। उस साक्षात्कार में विद्यानन्दजी महाराज ने (सम्भवतः कन्नड़ के) कुछ लोक गीत गाकर सुनाए थे।

उनके बाद मुझे आकर्षित, प्रभावित और मोहित किया, त्रिस्तुतिक श्वेताम्बर समाज के जयन्‍तसेन सूरिश्वरजी महाराज ने। इनके व्याख्यानों की सादगी और सरलता मेरे अन्तरतम तक पैठ गई और आज दशा यह है कि वे यदि मेरे कस्बे के आसपास कहीं आते हैं तो उनके दर्शनार्थ जाने की कोशिश अवश्य करता हूँ।


मेरे इस आचरण पर सनातनी कम और जैनी अधिक ताज्जुब करते हैं। हाँ, सनातनी इस बात पर रोष अवश्य प्रकट करते हैं कि मैं लोकप्रिय और स्थापित साधु-सन्तों तथा प्रवचनकारों के पाण्डालों की भीड़ में नजर क्यों नहीं आता हूँ। मैं चुप रह जाता हूँ। यह भी नहीं बताता कि जिन, दिगम्बर जैन सन्त तरुणसागरजी के पाण्डालों को ‘दर्शक’ हर बार छोटा और अपर्याप्त साबित करते हैं, मैं वहाँ भी नहीं होता।

सो, मुझे यशोविजय सूरिश्वरजी महाराज के विदेश प्रवास ने पुलकित ही किया। मैं ने अनुरागजी को उनसे मिलने का आग्रह केवल इसलिए किया ताकि जैन सन्तों के विदेश प्रवास के समर्थन में पुष्ट, शास्त्रोक्त तर्क और प्रमाण प्राप्त किए जा सकें और उनका लाभ विश्व भर के ‘श्रावकों’ को मिल सके। किन्तु डाक्टर मेहता और श्रीकान्त भाई के वक्तव्यों ने मुझे निराश किया।


‘जैन मत’ के बारे में मेरी जानकारियाँ उतनी ही हैं जितनी कि किसी ‘सड़कछाप आदमी’ की हैं। किन्तु जैन सन्तों सहित मैं समस्त धर्मों, समुदायों के ‘साधु-सन्तों’ के विदेश प्रवास का ‘धुर समर्थक’ हूँ। इसके पीछे हैं - विवेकानन्द। वे भी ‘साधु-सन्त’ ही थे। वे यदि भारत से बाहर नहीं जाते तो अमरीकी समाज को भारत और भारतीयता की आत्मा के दर्शन नहीं हो पाते।

इस क्षण जैन सन्त सुशील मुनिजी महाराज बड़ी शिद्दत से याद आ रहे हैं। उन्होंने न केवल विदेश यात्राएँ कीं अपितु विदेशी महिलाओं को अपने शिष्य मण्डल में भी सम्मिलित किया। सुशील मुनिजी के इस आचरण पर तब हल्ला मचा था किन्तु वे अविचलित रहे। आज भी उनके अनुयायी पूरी दुनिया में मौजूद है और इससे बड़ी तथा महत्वपूर्ण बात यह कि उन्हें ‘अजैन’ अथवा ‘जैन विरोधी’ घोषित कर उनका बहिष्कार नहीं किया गया।


मालवा स्थित भानपुरा (जिला मन्दसौर, मध्य प्रदेश) स्थित शंकराखर्य उप पीठ के तत्कालीन शंकराचार्य स्वामी सत्यमि़त्रानन्दजी गिरी ने समस्त निषेधों को परे धकेल कर, सत्तर की दशक के पूर्वार्द्ध में विदेश यात्रा की थी। इस यात्रा के दौरान उन्हें उपलब्ध ‘स्त्री गाईड’ ने बीसियों बार उनका कन्धा थपथपाते हुए, ‘सी, मिस्टर गिरी’ कह कर महत्वपूर्ण स्थानों/चीजों की ओर उनका ध्यानाकर्षित किया जबकि उनके लिए ‘स्त्री स्पर्श’ वर्जित था। ये बातें स्वयम् सत्यमित्रानन्दजी ने मेरे गृह नगर मनासा में, दादा को दिए एक साक्षात्कार में बीसियों भक्तों की उपस्थिति में बताई थीं। यह साक्षात्कार उन दिनों, मन्दसौर से प्रकाशित हो रहे ‘दैनिक कीर्तिमान’ में ‘सुरा लोक में शंकराचार्य’ शीर्षक से श्रृंखलाबध्द सचित्र प्रकाशित हुआ था। सत्यमित्रानन्दजी का सान्निध्य और मार्ग दर्शन आज भी समूचे सनातन समाज को प्राप्त है और उनके प्रति आदर भाव में रंच मात्र भी कमी नहीं है।


ऐसे में यशोविजय सूरिजी महाराज का पिट्सबर्ग जाना, अपनी शल्य चिकित्सा कराना मुझे न केवल भला और आह्लादकारी लगा अपितु, ‘जीव जगत् की बड़ी सेवा’ भी लगा। महाराजजी की पिट्सबर्ग यात्रा को मैं तो ‘ईश्वरेच्छा’ से तनिक आगे बढ़ कर ‘ईश्वरीय आदेश’ मानता हूँ। डाक्टर मेहता और श्रीकान्त भाई को तो, महाराजजी के पिट्सबर्ग आगमन के प्रसंग से, वहाँ उपजे उल्लास और उत्सव भाव का उद्घोषक बन कर, यह कहना बन्द कर देना चाहिए कि महाराजजी वहाँ केवल चिकित्सा हेतु पहुँचे हैं सो चिकित्सा करवाने के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं करेंगे, कुछ भी नहीं कहेंगे।


‘साधु-सन्त’ किसी भी समाज की मूल्यवान परिसम्पत्ति मात्र नहीं होते, वे तो समाज की सबसे बड़ी ‘आश्वस्ति’ होते हैं। परिवार के बड़े-बूढ़ों की उपस्थिति से समूचे परिवार में जो निश्चिन्तता उपजती है, वही निश्चिन्तता पूरा समाज अपने साधु-सन्तों कर उपस्थिति के कारण अनुभव करता है।

डाक्टर मेहता और श्रीकान्त भाई ने सूचित किया है कि अपनी विदेश यात्रा के ‘पातक के प्रायश्चितरूवरूप’ महाराजजी आने वाले दिनो में उपवास करेंगे। इस सूचना से ‘उत्साहित’ और तनिक अधिक ‘लालची’ होकर (कि जब आप 'प्रायश्चित-उपवास' कर ही रहे हैं तो), मैं आदरणीय यशोविजय सूरिश्वरजी महाराज साहब से कर बध्द याचना कर रहा हूँ - ‘‘महावीर की इच्छा (या कि आदेश) के अधीन आप पिट्सबर्ग पहुँचे हैं। वहाँ के ‘जैन श्रावाकों’ पर ही नहीं, वहाँ प्रकृति में उपस्थित समस्त जीवों पर कृपा कीजिए, उन्हें ‘महावीर वाणी’ का अमृत पान कराने का पुण्योपकार करें। उन सबके सौभाग्य से ही आप वहाँ विराजमान हुए हैं। इस ‘अजैन श्रावक’ की यह याचना स्वीकार करने का उपकार करें। आप चाहेंगे तो, आपके प्रायश्चित में, अपनी क्षमतानुरूप मैं भी शामिल होने का प्रयत्न करूँगा।

‘‘आपका यह कृपापूर्ण आचरण महावीर की महत् सेवा की दिशा में ऐसा ‘छोटा सा कदम’ होगा जिससे बनी पगडण्डी, वैश्विक राजमार्ग में परिवर्तित होगी।

‘‘कृपया मेरी वन्दना स्वीकार कर मुझे उपकृत करें।’’

(मेरी यह पोस्ट ‘स्मार्ट इण्डियन’ श्री अनुराग शर्मा को समर्पित है। यह उनकी निजी सम्पत्ति है। वे अपनी इच्छानुसार इसका उपयोग करने को अधिकृत तथा स्वतन्त्र हैं।)

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'वर्षा' आ गई फागुन में : इसे सहेज लीजिए

‘जीवन वर्षा’
भारतीय जीवन बीमा निगम की नई योजना (पालिसी)

कल, 16 फरवरी को, भारतीय जीवन बीमा निगम (एल. आई. सी.) एक बार फिर अपने स्थापित, जग-जाहिर और पारम्परिक आत्म विश्वास का परिचय देते हुए अपनी नई पालिसी ‘जीवन वर्षा’ बाजार में प्रस्तुत कर रहा है। मन्दी की उथल-पुथल से त्रस्त इस ‘भीषण विकट आर्थिक समय’ में एल. आई. सी. एक बार फिर सुनिश्चित लाभ (ग्यारण्टीड एडीशन) देने वाली पालिसी प्रस्तुत कर, देश के असंख्य मझोले निवेशकों को ‘बीमा सुरक्षा और सुनिश्चित लाभ’ एक साथ उपलब्ध कराने का ‘अविश्वसनीय कारनामा’ ही कर रही है।

‘जीवन वर्षा’ (तालिका 196) की महत्वपूर्ण बातें इस प्रकार हैं -

- यह एल. आई. सी. की ऐसी पहली ‘धन वापसी योजना’ (मनी बेक पालिसी) है जिसमें तीन-तीन वर्षों के अन्तराल पर धन वापसी का प्रावधान है। अन्यथा, एल. आई. सी. की अब तक उपलब्ध ‘धन वापसी योजनाओं’ (मनी बेक पालिसियों) में चार-चार अथवा पाँच-पाँच वर्षों के बाद ‘धन वापसी’ का प्रावधान है।

- यह योजना सीमित अवधि, 31 मार्च 2009 तक के लिए ही उपलब्ध है।
- यह योजना, 15 वर्ष (पूर्ण) से 66 वर्ष की आयु समूह के लोगों के लिए है।
- परिपक्वता आयु अधिकतम 75 वर्ष।
- योजना दो अवधियों (9 वर्ष तथा 12 वर्ष)के लिए उपलब्ध है।

- प्रीमीयम भुगतान अवधि - 9 वर्ष। यह अवधि दोनों पालिसी अवधियों के लिए समान है। अर्थात् 12 वर्ष की पालिसी अवधि का विकल्प लेने पर भी किश्त भुगतान 9 वर्ष तक ही करना है। 9 वर्ष पालिसी अवधि विकल्प में तो किश्त भुगतान अवधि 9 वर्ष है ही।

सुनिश्चित लाभ (ग्यारण्टीड एडीशन)

(अ) 9 वर्ष पालिसी अवधि वाली योजना के लिए 65 रुपये प्रति वर्ष प्रति हजार। तथा

(ब) 12 वर्ष पालिसी अवधि वाली योजना के लिए 70 रुपये प्रति वर्ष प्रति हजार।

- इसके अतिरिक्त, परिपक्वता भुगतान के साथ ‘निष्ठा आधिक्य’ (लायल्टी एडीशन) भुगतान

का भी प्रावधान।



योजना के लाभ -
(1) 9 वर्ष पालिसी अवधि वाली योजना में, पालिसी के -

- 3 वर्ष पूरे होने पर बीमा धन की 15 प्रतिशत राशि का भुगतान।

- 6 वर्ष पूरे होने पर बीमा धन की 25 प्रतिशत राशि का भुगतान।

- 9 वर्ष पूरे होने पर (अर्थात् परिपक्वता के समय) बीमाधन की शेष 60 प्रतिशत राशि के साथ सुनिश्चित लाभ की राशि तथा निष्ठा आधिक्य की राशि का भुगतान।

(2) 12 वर्ष पालिसी अवधि वाली योजना में, पालिसी के -

- 3 वर्ष पूरे होने पर बीमा धन की 10 प्रतिशत राशि का भुगतान।

- 6 वर्ष पूरे होने पर बीमा धन की 20 प्रतिशत राशि का भुगतान।

- 9 वर्ष पूरे होने पर बीमा धन की 30 प्रतिशत राशि का भुगतान।

- 12 वर्ष पूरे होने पर (अर्थात् परिपक्वता के समय) बीमा धन की शेष 40 प्रतिशत राशि के साथ, सुनिश्चित लाभ की राशि तथा निष्ठा आधिक्य की राशि का भुगतान।



बीमा सुरक्षा

-पालिसी प्रारम्भ दिनांक से, पालिसी के अन्तिम वर्ष से पहले वाले वर्ष तक की अवधि में मृत्य होने पर - बीमा धन की रकम तथा मृत्यु के समय तक की पालिसी अवधि के सुनिश्चित लाभ की रकम का भुगतान।

- पालिसी के अन्तिम वर्ष में (परिपक्वता दिनांक से पहले) मृत्यु होने की दशा में बीमा धन की रकम तथा सुनिश्चित लाभ की रकम तथा निष्ठा आधिक्य की रकम का भुगतान।

विशेष - मृत्यु दावे की रकम में से, 3-3 वर्षों के अन्तराल में किए गए भुगतान की रकम कम नहीं की जाएगी। यह प्रावधान, एल. आई. सी. की पहले से चली आ रही मनी बेक पाॅलिसियों में भी उपलब्ध है।

न्यूनतम बीमा धन - रुपये 50,000/-उसके बाद रुपये 5,000/- के गुणक में।
अधिकतम बीमा धन - कोई सीमा नहीं। (किन्तु प्रस्तावक की आयु और सकल आय के आधार पर निर्धारित अनुपात के अनुसार।)

प्रीमीयम निर्धारण में उपलब्ध रियायतें

भुगतान विधि छूट -

-वार्षिक भुगतान विधि पर मूल प्रीमीयम दर पर 2 प्रतिशत की और अध्र्द वार्षिक भुगतान विधि पर मूल प्रीमीयम दर पर 1 प्रतिशत की छूट।

बीमा धन छूट -

95,000/- तक - कोई छूट नहीं।

1 लाख से 1,95,000/- तक - मूल प्रीमीयम दर पर 2 रुपये प्रति हजार।

2 लाख से 4,95,000/- तक - मूल प्रीमीयम दर पर 3.50 रुपये प्रति हजार।

5 लाख तथा अधिक पर - 5 रुपये प्रति हजार।

(बीमा एजेण्ट जब आपको उदाहरण देते हुए प्रीमीयम बताता है तो उसमें समस्त रियायतें देने के बाद ही रकम बताता है।)

किश्त भुगतान विधि - वार्षिक, अध्र्द वार्षिक और तिमाही।

आय कर प्रावधान -
- चुकाई गई प्रीमीयम की रकम पर, आय कर अधिनियम की धारा 80 (सी) के अन्तर्गत कर छूट मिलेगी।
- पालिसी से मिलने वाली समस्त रकम, आय कर की धारा 10 (10) (डी) के अन्तर्गत आय कर से पूर्णतः मुक्त रहेगी।

प्राप्तियों का ‘लाभ-प्रतिशत’
- 30 वर्ष की आयु वाले व्यक्ति के जीवन पर ली गई, 9 वर्ष अवधि वाली, रुपये 5 लाख बीमा धन की पालिसी पर, आय कर छूट न लेने की दशा में लगभग 9 प्रतिशत की दर से तथा आय कर छूट लेने की दशा में लगभग 17 प्रतिशत की दर से लाभ प्राप्ति अनुमानित है।



- उपरोक्तानुसार ही, 12 वर्ष अवधि का विकल्प लेने पर यह लाभ प्रतिशत, आय कर छूट न लेने की दशा में लगभग 10 प्रतिशत तथा आय कर छूट लेने की दशा में 23 प्रतिशत अनुमानित है।

- यदि मिलने वाली रकम पर आय कर की छूट को भी शरीक कर लिया जाए तो यह लाभ-प्रतिशत और अधिक हो जाता है।

मेरी सलाह -
यह पालिसी उन समस्त लोगों के लिए ‘बिल्ली के भाग से टूटा छींका’ है जो 55 वर्ष से अधिक आयु के हो चुके हैं। 62 पार कर चुके लोगों के लिए तो यह ‘मनी बेक सुविधा सहित, छप्पर फाड़ बीमा सुरक्षा वर्षा’ है।

एल.आई.सी. की वर्तमान मनी बेक पालिसियों में, परिपक्वता की अधिकतम आयु 70 वर्ष निर्धारित की हुई है। अर्थात् 46 वर्ष का व्यक्ति 25 वर्षीय मनी बेक पालिसी, 51 वर्ष आयु का व्यक्ति 20 वर्षीय मनी बेक पालिसी और 56 वर्षीय व्यक्ति 15 वर्षीय मनी बेक पालिसी नहीं ले सकता। 12 वर्ष अवधि वाली कोई मनी बेक पालिसी एल.आई.सी. के पास उपलब्ध है ही नहीं।
किन्तु ‘जीवन वर्षा’ पालिसी में परिपक्वता आयु 75 वर्ष तक कर दी गई है। अर्थात् यह पॅलिसी 66 वर्ष तक की आयु वाले लोगों के लिए उपलब्ध है। वे 9 वर्ष अवधि वाली ‘जीवन वर्षा’ ले सकते हैं और 63 वर्ष की आयु वाले तो 12 वर्ष अवधि वाली ‘जीवन वर्षा’ ले सकते हैं।

जाहिर है कि ‘उच्च जोखिम क्षेत्र’ (हाई रिस्क झोन) में जी रहे जो वरिष्ठजन बीमा सुरक्षा लेने को उत्सुक हैं, उनके लिए तो यह ‘लपक लेने वाला प्रतीक्षित सुनहरा मौका’ ही है।

ऐसे लोगों को तो यह पालिसी, अपनी भुगतान क्षमता के अनुरूप, ‘बिना विचारे’ ही ले लेना चाहिए

- आर्थिक परिदृश्य पर छाया मन्दी का प्रभाव जल्दी दूर होता अनुभव नहीं हो रहा है। सरकार बार-बार भरोसा दिला रही है और अर्थ विशेषज्ञ चेतावनियाँ दे रहे हैं। बैंकों की ब्याज दरें कम होने की आशंका चारों ओर पसरी हुई है। ऐसे में ‘ग्यारण्टीड रिटर्न’ अपने आप में सबसे बड़ा आकर्षण है। कहा जा सकता है कि ‘जीवन वर्षा’ पालिसी लेकर, मन्दी के खतरे से बेफिक्र होकर, टाँगे पसार कर सोया जा सकता है।

- ‘जीवन आस्था’ के समय जो दो बातें मैं ने कही थीं, वे दानों ही दुहरा रहा हूँ। - यह योजना भले ही 31 मार्च तक उपलब्ध है किन्तु अन्तिम तारीख की प्रतीक्षा न करें। यदि यह योजना अनुकूल अनुभव होती है तो तत्काल ही खरीद लें।

- यथा सम्भव, 12 वर्ष अवधि की योजाना लें।

सदैव की तरह कृपया याद रखें - यह विवरण मुझे मिली अब तक की तानकारियों के आधार पर हैं। इन्‍हें भारतीय जीवन बीमा निगम की अधिकृत जानकारियां न समझें।

जीवन बीमा से जुड़ी कुछ छोटी-छोटी जानकारियाँ, गुरुवार को।

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वेलेण्टाईन डे का विरोध : एक 'कुविचार'

मेरे लेप टाप की घड़ी के मुताबिक इस समय 12 और 13 फरवरी की दरमियानी रात के दो बजने वाले हैं। ‘ब्लागवाणी’ के जरिए ढेर सारे ब्लागों की सैर की। कुछ पर टिप्पणी की। अचानक ही इस पोस्ट का विषय मन में कौंधा। मुमकिन है कि यह ‘कुविचार’ अथवा ‘कुतर्क’ हो किन्तु अन्ततः इसमें ‘विचार’ और ‘तर्क’ तो है ही। इसलिए इसके साथ तनिक अतिरिक्त सदाशयता और उदारता बरती जाए, यह अनुरोध भी है और अपेक्षा भी।


वेलेण्टाइन डे के विरोध का आधारभूत तर्क है कि यह नितान्त पाश्चात्य अवधारणा है और भारतीयता से इसका कोई तादात्म्य नहीं है। सही है। किन्तु यह एकमात्र ऐसी पाश्चात्य अवधारणा क्यों है जो आँखों में खटक रही है? अनेक पाश्चात्य अवधारणाएँ और परम्पराएँ हमने अत्यन्त उदारतापूर्वक और प्रसन्नतापूर्वक अंगीकर कर रखी हैं-बरसों से। जैसे कि, जन्म दिन पर केक काटना।


केक काटने में पहले, केक पर लगी मोम बत्तियाँ फूँक मार कर बुझाई जाती हैं। इसके ठीक विपरीत, भारतीय परम्परा में तो ऐसे प्रसंगों पर दीप प्रज्ज्वलन किया जाता है। कहाँ है वह परम्परा? और तो और, भारतीयता के ज्वाजल्य प्रतीक पुरुष अटलजी के जन्म दिन पर भी केक काटा जाता है! यही क्यों, अब तो मन्दिरों में भी केक काटे जाने लगे हैं! मेरे बच्चे भी केक काट कर ही अपना जन्म दिन मनाते हैं।


एक और पाश्चात्य परम्परा हम समारोहपूर्वक अंगीकार करने लगे हैं। यह है - रिंग सेरेमनी। भारतीय संस्कार सूची में ‘रिंग सेरेमनी’ कहीं है ही नहीं। हाँ, 'वाग्‍दान संस्‍कार' का उल्लेख अवश्य है। लेकिन इसका स्थान अब ‘रिंग सेरेमनी’ ने ले लिया है। मेरे बेटे का ‘वाग्‍दान संस्कार’ जब सम्पन्न हो रहा था तब ‘रिंग सेरेमनी‘ की आवाज उठी थी। मैं ने सहज भाव से इससे इंकार कर दिया था और कहा था कि भारतीय परम्परा में ‘रिंग सेरेमनी’ नहीं है। मेरी बात तब भले ही मान ली गई थी किन्तु कई लोग अब भी मुझसे खिन्न बैठे हैं और गाहे-बगाहे मुझे उलाहना दे ही देते हैं कि मैं ने एक रस्म पूरी नहीं होने दी।


हाथ मिलाना भी भारतीय परम्परा नहीं है। भारतीय परम्परा में तो अपने ही दोनों हाथ जोड़ कर, यथा सम्भव नत-मस्तक हो, सामने वाले का अभिवादन किया जाता है। लेकिन हम सब देख रहे हैं कि ‘करतल युग्म से नमस्कार’ करें न करें, हाथ अवश्य मिलाते हैं।


हाथ मिलाना पूर्णतः पाश्चात्य परम्परा है जिसका अपना अनुशासन है। इसमें ‘जूनीयर’ केवल ‘विश’ (यथा,गुड मार्निंग गुड नून,) करता है और प्रत्युत्तर में ‘सीनीयर’ हाथ बढ़ाते हुए ‘विश’ का जवाब देते हुए कुशलक्षेम पूछता है-‘हाऊ डू यू डू?’ किन्तु हमने न केवल इस पाश्चात्य परम्परा को प्रेमपूर्वक आत्मसात कर लिया है अपितु इसका भारतीयकरण भी कर लिया है-अब ‘जूनीयर‘ भी मिलते ही तपाक् से अपना हाथ आगे बढ़ा देता है और कोई भी इस ‘अशिष्टता’ का बुरा मानना तो दूर रहा, इसका नोटिस भी नहीं लेता!

नव वर्ष चैत्र प्रतिपदा भी हमारे लिए एक समारोह मात्र है। इस प्रसंग का उपयोग हम अपनी भारतीयता को याद करने और प्रदर्शित करने के लिए करते हैं और जैसे ही हमारा यह ‘मतलब’ पूरा होता है, हम इसे तत्काल ही भूल जाते हैं। हममें से कितने लोग अपने दैनन्दिन व्यवहार में भारतीय महीनों और तिथियों का उपयोग करते हैं? अपवादों को छोड़ दें तो, कोई नहीं। हम सब ‘ईस्वी’ सन् और तारीखें ही प्रयुक्त करते हैं और ऐसा करते हुए क्षणांश को भी अनुचित, अन्यथा अथवा अटपटा नहीं लगता।


ये तो गिनती की बाते हैं जो मुझे इस समय बिना किसी कोशिश के याद आ रही हैं। कोशिश करने पर ऐसी बीसियों बातें निकाली जा सकती हैं।

फिर, आखिर वेलेण्टाईन डे का ही विरोध क्यों? मुझे सन्देह होने लगा है कि यह विरोध कहीं प्रायोजित अथवा ‘डब्ल्यू डब्ल्यू एफ’ की तरह ‘नूरा कुश्ती’ तो नहीं?


इस दिन कोई आयोजन नहीं होते, कोई समारोह नहीं होते। होने के नाम पर बस, आपस में कार्ड का या भेंट का या फूलों का आदान-प्रदान होता है। ऐसे ‘डे’ और इनके बधाई पत्र भी भारतीय परम्परा का अंग नहीं हैं। किन्तु अनेक विदेशी कम्पनियाँ इनका उत्पादन/व्यापार करती हैं। इस व्यापार के आँकड़े अरबों-खरबों के निकल आएँ तो मुझे ताज्जुब नहीं होगा। यही नहीं, यह आँकड़ा वर्ष-प्रति-वर्ष तेजी से बढ़ता ही जा रहा है। मुझे सन्देह हो रहा है कि कहीं, इन कार्डों का उत्पादन/व्यापार करने वाली विदेशी कम्पनियाँ ही तो यह विरोध प्रायोजित नहीं करवा रहीं? सन्देह इसलिए भी हो रहा है क्यों कि विरोध करने वाले भाई लोग इन कार्डों का विक्रय करने वाली दुकानों को तो निशाने पर लेते हैं पर इन्हें उत्पादित करने वाली फैक्ट्रियों की तरफ देखते भी नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि ‘वहाँ’ न देखने की एवज में ‘पार्टी फण्ड’ मिलता हो और यहाँ ‘देख लेने’ के नाम पर वसूली हो रही हो?


वेलेण्टाईन डे का विरोध करने वालों का विरोध करने के लिए अब गुलाबी चड्डियाँ भेजे जाने का क्रम चल पड़ा है। भारतीय समाज में ‘चड्डी’ कभी भी विरोध का प्रतीक अथवा माध्यम नहीं रही। यह भी पूरी तरह से पाश्चात्य प्रतीक और परम्परा है। इसके उत्पादन और व्यापार में भी विदेशी कम्पनियाँ अग्रणी हैं। कहीं यह अभियान भी तो प्रायोजित नहीं?


मुझे तो इस सबके पीछे कोई ‘विशेषज्ञ’ (मैं ‘माहिर’ और ‘शातिर’ जैसे विशेषण प्रयुक्त करने से बचना चाह रहा हूँ) ‘मानव मनोविज्ञानी मस्तिष्क’ अनुभव हो रहा है। सामान्य मनुष्य प्रकृति के अधीन ‘निषेध सदैव ही आकर्षित करते हैं।’ सो, इसी मनुष्य प्रकृति का ‘वाणिज्यिक उपयोग’ करने के लिए, वेलेण्टाईन डे का विरोध करवाया जा रहा हो ताकि लोग ज्यादा से ज्यादा इसकी ओर आकर्षित हों, (और विदेशी कम्पनियों को मालामाल करने के लिए) ज्यादा से ज्यादा बधाई पत्र, भेंट दी जाने वाल वस्तुएँ खरीदें। इसे ‘दबाने पर गेंद और ज्यादा उछलती है’ या फिर ‘न्यूटन के गति नियमों’ के अनुसार ‘किसी भी क्रिया की समान और विपरीत प्रतिक्रिया होती है’ भी कहा जा सकता है।


अब ‘विरोध का विरोध’ भी चड्डियों के जरिए हो रहा है। मुझे तो यह भी ‘फारेन गुड्स की मार्केटिंग स्ट्रेटेजी’ ही अनुभव हो रही है और प्रायोजित या कि ‘नूरा कुश्ती’ ही लग रही है।


आधी रात को मन में उठी इन बातों का मेरे पास न तो कोई आधार है और न ही कोई तथ्यात्मक प्रमाण। ‘यही सही है’ यह कहने की स्थिति में मैं बिलकुल ही नहीं हूँ। किन्तु ‘यह सही क्यों नहीं हो सकता?’ जैसा सवाल, इस समय तो मुझे मथ ही रहा है।


कहीं ऐसा तो नहीं कि भारतीयता की रक्षा के नाम अपने ही लोग अपने ही लोगों को पीट रहे हैं और जेबें भर रहे हैं विदेशियों की?

मुझे किसी की नीयत पर सन्देह नहीं है। किन्तु सन्देह के बीज को अंकुरित होने के लिए न तो उपजाऊ जमीन की आवश्यकता होती है और न ही खाद-पानी की। फिर, जयचन्द और मीर जाफर जैसे नाम, ऐसे क्षणों में न चाहते हुए भी मन में उठने लगें और ‘विश्वामित्र-मेनका’ जैसे प्रसंग आँखों के सामने नाचने लगें तो ऐसे ‘कुविचार‘ और ‘कुतर्क’ सच अनुभव होने लगें तो आश्चर्य नहीं।

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इस ब्लाग पर, प्रत्येक गुरुवार को, जीवन बीमा से सम्बन्धित जानकारियाँ उपलब्ध कराई जा रही हैं। (इस स्थिति के अपवाद सम्भव हैं।) आपकी बीमा जिज्ञासाओं/समस्याओं का समाधान उपलब्ध कराने का यथा सम्भव प्रयास करूँगा। अपनी जिज्ञासा/समस्या को सार्वजनिक न करना चाहें तो मुझे bairagivishnu@gmail.com पर मेल कर दें। आप चाहेंगे तो आपकी पहचान पूर्णतः गुप्त रखी जाएगी। यदि पालिसी नम्बर देंगे तो अधिकाधिक सुनिश्चित समाधान प्रस्तुत करने में सहायता मिलेगी। यह सुविधा पूर्णतः निःशुल्क है।

यदि कोई कृपालु इस सामग्री का उपयोग करें तो कृपया इस ब्लाग का सन्दर्भ अवश्य दें । यदि कोई इसे मुद्रित स्वरूप प्रदान करें तो कृपया सम्बन्धित प्रकाशन की एक प्रति मुझे अवश्य भेजें । मेरा पता है - विष्णु बैरागी, पोस्ट बाक्स नम्बर - 19, रतलाम (मध्य प्रदेश) 457001.


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आपका अधिकार है किश्त भुगतान विधि में परिवर्तन

एनानीमस के नाम से एक पाठिका ने तीन बातें पूछी हैं-

1. लैप्स हुई पॉलिसी के लिए क्या किया जा सकता है? शायद अलग अलग तरह की पॉलिसी के लिए अलग अलग नियम हैं।

आपने बिलकुल ठीक सोचा। कालातीत (लेप्स) पालिसी के पुनर्चलन (चालू कराने) के कुछ नियम सामान्य होते हैं जो सब पालिसियों पर समान रूप से लागू होते हैं। पालिसीधारक की श्रेणी (जो उसके व्यवसाय से निर्धारित होती है), उसकी आयु, पालिसी कितनी चल चुकी है, बीमा धन जैसी कुछ बातें ‘प्राथमिक नियम’ हैं किन्तु योजना (पालिसी) कौन सी ली है, इस पर भी काफी कुछ निर्भर करता है। ये सारी बातें शाखा कार्यालय से सम्पर्क करने पर आपको विस्तार से बता दी जाएँगी।

इस सम्बन्ध मे कृपया मेरी लेप्स पालिसियो के पुनर्चलन का विशेष अभियान शीर्षक पोस्ट देखें। कई बातें स्पष्ट हो जाएँगी।

2. आजकल बहुत से एजेन्ट पहले की तरह किश्त के भुगतान आदि का समय पहले की तरह याद नहीं दिलाते। इसका एक कारण शायद यह भी है कि वे बहुत से कामों में हाथ डाले होते हैं और समय नहीं दे पाते।

अपने पालिसीधारकों को किश्त के देय होने की सूचना देना (और निर्धारित समयावधि में किश्त जमा कराने के लिए ग्राहक को प्रेरित, प्रोत्साहित कर, किश्त का भुगतान सुनिश्चित कराने की कोशिश करना) एजेण्ट की आचरण संहिता का महत्वपूर्ण और अनिवार्य अंश है।

आपका यह अनुमान सही हो सकता है कि एक से अधिक काम हाथ में लेने के कारण एजेण्ट इस संहिता का उल्लंघन करता हो। लेकिन यह उसकी अपनी कठिनाई है। इस आधार पर उसे आचरण संहिता से छूट नहीं मिलती। आप चाहें तो इसकी लिखित शिकायत, सम्बन्धित शाखा प्रबन्धक से कर सकते हैं। यह आपका अधिकार है। किन्तु मेरा विनम्र आग्रह है कि शिकायत करने के बाद, एजेण्ट के अनुनय-विनय से पिघल कर यदि आप अपनी शिकायत वापस लेने की मनःस्थिति में हों तो कृपया शिकायत करें ही नहीं। शिकायतों की वापसी अन्ततः ऐसे एजेण्टों का मनोबल ही बढ़ाती हैं और ग्राहकों के प्रति प्रबन्धन के मन मे अगम्भीरता उपजाती है।

3. क्या पॉलिसी रिन्यू करवाते समय फिर से डॉक्टरी जाँच आदि होती है ? यदि इस दौरान कोई बड़ा रोग हुआ हो तो क्या वह रिन्यू नहीं होती ?

जैसा कि मैंने ऊपर बताया है, पालिसी पुनर्चलन के लिए आवश्यकताओं का निर्धारण शाखा कार्यालय ही करेगा। आवश्यक होने पर आपसे विशेष चिकित्सा परीक्षण कराने के लिए कहा जा सकता है।

‘बड़े रोग’ से आपका आशय स्पष्ट नहीं है। कृपया अपनी ओर से किसी रोग को बड़ा या छोटा न मानें। रोगों का सुनिश्चित वर्गीकरण किया हुआ है। मुमकिन है, जिसे आप ‘बड़ा रोग‘ माने बैठे हैं, वह मामूली रोगों की सूची में हो।

चिकित्सा परीक्षण के आधार पर तीन में से कोई एक ही स्थिति सामने आएगी - (1) आपकी पालिसी पुनर्चलित हो सकेगी। या (2) पुनर्चलित नहीं हो सकेगी। या (3) अतिरिक्त प्रीमीयम के साथ पुनर्चलित हो सकेगी।

चिकित्सा परीक्षण के निष्कर्ष ही निर्णय का आधार होंगे।

श्रीPt.डी.के.शर्मा"वत्स"ने एक शिकायत की है, एक जानकारी चाही है और एक जिज्ञासा प्रस्तुत की है।

पहले उनकी शिकायत-

1.लगभग चार पहले अपने एजेंट के कहे अनुसार मैने न्यू जनरक्षा नाम की एक 2 लाख रूपए की पालिसी ली थी.हमारी अज्ञानता का लाभ उठाकर वो हमे एक पालिसी के बजाय 25-25 हजार की आठ पालिसियां थमा गया.वो तो अब जाकर मालूम हुआ कि वो अपने लाभ के लिए हमारा नुक्सान कर गया.

यह पढ़कर मैं शर्मिन्दा हूँ। किसी भी एजेण्ट ने ऐसा नहीं करना चाहिए। मुझे लगता है कि (जब आपने पालिसी ली थी, उस समय) नव व्यवसाय के सन्दर्भ में, पालिसी संख्या के आधार पर कोई प्रतियोगिता चल रही होगी। उसी के लालच में एजेण्ट ने यह अनपेक्षित और अनुचित आचरण किया होगा। अच्छा होता कि इसके लिए वह आपको विश्वास में लेता। कभी-कभी मैं भी ऐसा करता हूँ किन्तु ऐसे समय दो बातें ध्यान में रखता हूँ - (1) ग्राहक से स्पष्ट स्वीकृती लूँ। और (2) ऐसा करने से ग्राहक को किसी भी स्तर पर, कोई हानि न हो।

मेरी जमात के उस अनाम सदस्य ने आपके साथ जो किया, उसके लिए मैं आपसे क्षमा-याचना करता हूँ। वह जो भी हो, है तो एजेण्ट ही।

2.मेरी कुछ पालिसियों की किस्त भुगतान त्रैमासिक है तथा कुछ की अर्धवार्षिक.मैं आपसे यह जानना चाहता हूं कि क्या अब इनका भुगतान वार्षिक हो सकता है.

आप अपनी पालिसी की किश्त भुगतान विधि, पूरी पालिसी अवधि में चाहे जितनी बार बदल सकते हैं। यह सुविधा आपका अधिकार है। इस हेतु आपको न तो किसी से पूर्वानुमति लेनी है और न कोई पूछताछ करनी है।

बस, एक बात याद रखनी है-

किश्त भुगतान विधि सदैव ही पालिसी प्रारम्भ होने वाले महीने से ही प्रभावी होगी और वह भी तब जबकि आपने उस महीने की देय किश्त का भुगतान न किया हो।

इसे एक काल्‍‍पनिक उदाहरण से समझें -

माना कि आपकी पालिसी की किश्त भुगतान विधि तिमाही है और आपकी पालिसी, मार्च महीने में शुरु हुई है। अर्थात्, आपको मार्च में किश्त चुकानी है।

यदि आप अपनी इस पालिसी की किश्त भुगतान विधि बदल कर वार्षिक या अर्ध्‍द वार्षिक कराना चाहते हैं तो-

(अ) मार्च वाली किश्त नहीं भरें।

(ब) सम्बन्धित शाखा कार्यालय में एक सामान्य आवेदन दे दें। आपकी इच्छानुसार, आपकी किश्त भुगतान विधि बदल दी जाएगी।

(स) यदि आप भूल गए और आपने मार्च वाल किश्त जमा करा दी, और आप किश्त भुगतान विधि वार्षिक ही कराना चाहते हैं तो अब आपको, शेष तीन तिमाही किश्तें जमा कराते हुए अगले मार्च तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। किन्तु

(द) यदि आप किश्त भुगतान विधि अर्ध्‍द वार्षिक कराना चाहते थे तो सितम्बर में ही आप यह परिवर्तन करा सकते हैं। उसके लिए आप जून वाली किश्त जमा कर, तत्काल ही किश्त भुगतान विधि अर्ध्‍द वार्षिक करने का आवेदन दे दीजिए। आपकी किश्त भुगतान विधि सितम्बर से अर्ध्‍द वार्षिक कर दी जाएगी।

किश्त भुगतान विधि वार्षिक कराने के लिए आपको मार्च तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी और तब भी याद रखिएगा-मार्च वाली किश्त जमा मत कराइएगा।

अब देख लीजिए कि आपकी पालिसी कौन से महीने में शुरु हुई है। उस महीने से 6 महीने का अन्तराल जोड़ कर भुगतान विधि अर्ध्‍द वार्षिक करने हेतु आवेदन दे दीजिए और यदि वार्षिक स्तर पर ही भुगतान करना चाहते हैं तो इस परिवर्तन के लिए, पालिसी प्रारम्भ होने वाले महीने की प्रतीक्षा कीजिए।

एक बात और - इस उदाहरण में तिमाही से वार्षिक अथवा अर्ध्‍द वार्षिक विधि में परिवर्तन की बात कही गई है। किन्तु यह सुविधा इसके विपरीत भी उपलब्ध है। अर्थात् यदि आपकी किश्त भुगतान विधि वार्षिक है और आप उसे तिमाही या अर्ध्‍द वार्षिक कराना चाहते हैं तो, यह सुविधा भी आपको अधिकार के रूप में प्राप्त है। चाहे जब, चाहे जितनी बार।

3.आपने जो लेख के माध्यम से भुगतान में मूल प्रीमियम दर पर 1.5% की छूट के बारे में बताया है. किन्तु हमें तो कभी इस प्रकार की कोई छूट प्राप्त नहीं हुई.

यदि आपने किश्त भुगतान विधि अर्ध्‍द वार्षिक ले रखी है तो विश्वास कीजिए, आपको मूल प्रीमीयम दर में 1.5 प्रतिशत की छूट मिली हुई है। आप जब किश्त भुगतान विधि वार्षिक अथवा तिमाही कराएँगे तब आपको नई किश्त की रकम से यह अन्तर तत्काल ही अनुभव हो जाएगा।

ऐसी ही कुछ और छोटी-छोटी बातें अगली बार।

सदैव की तरह ही कृपया ध्‍‍यान दीजिएगा-ये जानकारियां मेरे श्रेष्ठ ज्ञान और अनुभव के आधार पर हैं। भारतीय जीवन बीमा निगम की ओर से नहीं।

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गन्ध के झोंके: मनु और प्रज्ञा




1995 की फरवरी की 22 तारीख को उनके आँगन में गूँजी थी पहली किलकारी। ‘अयनी’ जनमी थी उसी दिन। लेकिन वे मुझे मिले थे 'दोनों अकेले', अयनी के जनम से पहले।

निश्चय ही कम से कम पन्द्रह बरस पहले की बात होगी। सर्दियों की सुबह हम सबने किया था नाश्ता पोहा जलेबी का। रतलाम के सर्किट हाउस में। उनके आने की खबर की थी गोर्की ने। उसी के मित्र थे (अभी भी हैं ही) वे दोनों। गोर्की, मेरा छोटा भतीजा। नितिन भाई ने जुटाया था सारा संरजाम।


‘वे दोनों’ याने मनु श्रीवास्तव और प्रज्ञा श्रीवास्तव। मनु, भारतीय प्रशासनिक सेवाओं के सदस्य और प्रज्ञा, भारतीय पुलिस सेवाओं की। आए-आए ही थे नौकरी में। लबालब थे उत्साह और जोश से। कर गुजरना चाहते थे कुछ ऐसा जो अब तक नहीं किया हो किसी ने। गोया, लिख देना चाह रहे हों अपना नाम अनन्त आकाश के केनवास पर, अपनी उमंग-उछाह की कूची से।


उन ‘दोनों अकेले’ से हुई वह पहली मुलाकात। बनी हुई है अब तक अन्तिम भी। आपने-सामने नहीं मिले हम लोग उसके बाद से अब तक। लेकिन नहीं। लगता है, कह रहा हूँ कुछ गलत मैं। क्योंकि मिलने का मतलब नहीं होता आमने-सामने मिलना या कि एक दूसरे से ‘हाय! हैलो! कह कर हाथ मिलाना ही? दूरी नहीं होती बाधक मिलने में। कुछ लोग सामने होकर भी नहीं मिल पाते। मिल पाना तो छोड़िए, दिखाई भी नहीं देते। नहीं सुनाई देते उनके बोल। और कुछ लोग नजर न आकर भी मिल लेते हैं। छू लेते हैं आपको गन्ध के झोंके की तरह आपके पास से तैरते हुए। लपेट लेते हैं आपको अपने भुजबन्ध से। ऐसे और इतना कस कर कि साँसे घुट जाएँ, इतनी कि प्राणान्त की इच्छा जाग उठे तत्क्षण। इतनी खुशी फिर मिले, न मिले क्या पता? ऐसा ही कर रहे हैं मनु और प्रज्ञा मेरे साथ। गए, कोई पन्द्रह बरस से।


हर साल, पहली जनवरी आती है बाद में। बाद में बदलता है केलेण्डर । पहले थपथपाती हैं मेरा दरवाजा, प्रज्ञा और मनु की शुभ-कामनाएँ। आत्मीयता से भरीं, ऊष्मा से सराबोर। हर साल। बिना नागा किए।


उनका अभिनन्दन पत्र होता है हर बार अनूठा, सबसे अलग। बाजार में नहीं मिलता किसी दुकान पर। और उसमें छपी कविता? क्या कहा जाए उसके बारे में! बहा लेती है हर बार, हर साल मुझे, तटबन्ध तोड़ कर हहराती, उफनती नदी की तरह, अपने साथ।


‘हम सब मिल कर तैयार करते हैं ग्रीटिंग कार्ड’ कह रही थी अयनी फोन पर। शहतूत की मिठास को लजा रही थी उसकी आवाज। ‘हम सबसे क्या मतलब?’ पूछा था मैं ने। ‘हम सब मीन्स माम, पापा, समवी और मैं’ कहा अयनी ने। ‘समवी मेरी यंगर सिस्टर है। अभी नाइंटिंथ डिसेम्बर को मनाया है हमने उसका नाइंथ बर्थ डे।’ बताया था अयनी ने जब पूछा था मैंने - ‘कौन है यह समवी?’

बह रही थी पहाड़ी नदी की तरह किलकारियाँ मारती अयनी फोन पर। ‘दीपावली से ही शुरु कर लेते हैं नेक्स्ट ईयर के ग्रीटिंग कार्ड की तैयारी हम सब मिल कर। तय होती है थीम सबसे पहले और बनाते हैं उसके चित्र हम सब बारी-बारी से। चारों का काण्ट्रीब्यूशन कम्पलसरी होता है इसमें। पापा लिखते हैं कविता। वे ही छपाते हैं इस कार्ड को। खास हम सबका होता है यह कार्ड। इसीलिए नहीं मिलता किसी दुकान में, छान मारें आप दुनिया भर के बाजार तो भी।’

अयनी की बातें मुझे ठेल देती हैं पुराने बक्से की ओर। तलाशने लगता हूँ मैं प्रज्ञा और मनु के भेजे पुराने बधाई पत्र। आँखें चुराने लगता हूँ अपने आप से थोड़ी ही देर में। एक भी कार्ड नहीं तलाश पाता हूँ इसलिए। लेकिन प्रज्ञा-मनु के भुजबन्ध की कसावट तिल भर भी नहीं होती ढीली। कसती जा रही है यह साल, दर साल। मैं जकड़ा जा रहा हूँ इसमें । और। और, और।

शब्द कैसे रीतते हैं और बोलता मनुज कैसे हो जाता होगा गूँगा, अनुभव हो रहा है मुझे इस पल। कितना भी चाह लूँ, अधूरा, अव्यक्त ही रह जाऊँगा मैं।

सब कुछ समझा देगी , खुद मनु की कविता आपको। खुद के बारे में भी और कर देगी बखान, ‘इस पल उपस्थित मेरी अक्षमता’ का भी।किसी की पैरवी की नहीं मोहताज यह कविता-


कविताओं
नर्सरी की किताबों

और आसमान में,

भले ही चाँद आवारा घूमा करे।


अपने कागजों, कम्प्यूटर-स्क्रीनों पर

अपने रिश्तों, सपनों में,

रचें खुद का एक चाँद,

बेहद पर्सनल

खास सिर्फ अपना।


फिर भरें उसमें अपने पसन्दीदा रंग

अपनी-सी मुस्कान

किसी पुरानी चोट का बचा हुआ निशान

आँखें-खुद में उतरती हुईं

बाल-घुँघराले, कुछ बिखरे से।



इस साल,

अपने अपने राकेटों और पतवारों के साथ

अपने जुनून और दीवानगी से लैस

अपनी परछाईयों को पीछे छोड़ते हुए,

चल निकलें अपने चन्द्रयान पर
पहुँचने अपने चाँद तक।


तब फिर

पहुँचा हुआ होगा

यह साल,

चाँद सा साल।





पहले चित्र में श्रीवास्‍तव परिवार और दूसरा चित्र उनके 2009 के अभिनन्‍दन-पत्र का।

नितिन वैद्य मेरी मुम्बई में जावरा का ओटला शीर्षक पोस्‍ट के नायक हैं।


मनु श्रीवास्तव, भारत सरकार के पेट्रोलियम एवम् गैस मन्त्रालय में डायरेक्टर के पद पर और प्रज्ञा श्रीवास्तव, केन्द्रीय विद्यालय संगठन में संयुक्त आयुक्त के पद पर कार्यरत हैं। मनुजी से srimanu@hotmail.com पर और प्रज्ञाजी से pragyarsrivastava@gmail.com पर सम्पर्क किया जा सकता है।

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