पाँखी की छुट्टियाँ


गर्मी की छुट्टियाँ आधी से ज्यादा बीत गई हैं लेकिन पाँखी मुझे अब तक घर में ही नजर आ रही है । हर बार की तरह इस बार वह मामा-बुआ के यहाँ नहीं गई है । इस साल जाएगी भी नहीं । इस साल वह सीबीएसई पाठ्यक्रम की दसवीं कक्षा में है जिसकी परीक्षा बोर्ड से होनी है । इस परीक्षा का अंक प्रतिशत उसके भविष्य का आधार होगा । इसलिए यह परीक्षा अधिकतम अंकों के साथ उत्तीर्ण करना उसके लिए फिलहाल जिन्दगी का इकलौता मकसद होना चाहिए - यह बात अध्यापकों और माता-पिता ने उसे भली प्रकार समझा दी है ।


पाँखी मेरे पड़ौस में ही रहती है । अप्रेल मे ही उसने पंकज सर से पूरे साल भर का ट्यूशन पेकेज ले लिया है । पेकेज की अवधि (अप्रेल से) शुरू होने के बाद से जब तक स्कूल चालू थे, पाँखी सवेरे साढ़े छः बजे घर से निकल जाती थी और लगभग साढ़े आठ बजे लौटती थी । नौ बजे उसके स्कूल का आटो रिक्‍शा आ जाता था । अपराह्न लगभग साढ़े तीन बजे वह स्कूल से लौटती थी । आते ही वह पंकज सर और स्कूल के दिए होम वर्क में जुट जाती थी । शाम पांच बजे उसे दूसरी ट्यूशन पर जाना होता है । वहाँ से भी वह होम वर्क लेकर लौटती है । सवेरे चूँकि फिर जल्दी जाना है, सो शाम वाली ट्यूशन का होम वर्क उसे रात में ही, सोने से पहले ही कर लेना होता है । शाम को जब मुहल्ले के बच्चे उसके घर के आगे, क्रिकेट खेलते हुए ‘हाऊज देट’ की अपीलों से मुहल्ले को गुँजा रहे होते हैं तब वह होम वर्क कर रही होती है ।


गर्मी की छुट्टियाँ शुरू होने के बाद से पंकज सर की ट्यूशन अब तीन घण्टे प्रतिदिन हो गई है । सो, वह सवेरे साढ़े छः बजे जाती है और लगभग साढ़े दस बजे लौटती है । गर्मी की छुट्टियों की वजह से वह दिन में थोड़ा ‘रेस्ट’ कर पा रही है लेकिन उसकी शाम की ट्यूशन तो अभी भी जारी है सो शाम को तो अब भी वह खेल नहीं पाती । खेलते बच्चों की आवाजें ही उसके हिस्से में आ पाती हैं ।
पंकज सर गर्मी की छुट्टियों में एक पखवाड़े के लिए बाहर गए हैं, सो पाँखी पूरे पन्द्रह दिन फुर्सत में है । लेकिन फिर भी वह मामा-बुआ के यहाँ नहीं जा पाएगी क्यों कि उनके बच्चों ने अपने-अपने शहर में कम से कम दो-दो समर कोर्स ज्वाइन कर रखे हैं । फिर, पंकज सर ने यह छुट्टी इतनी अचानक दी कि बाहर जाने के लिए रेल रिजर्वेशन मिल ही नहीं रहा ।


लेकिन अकेली पाँखी ही क्यों ? यह किस्सा तो शिल्पी, चंचला, जैकी, विशाल, हैप्पी, महक, विरति, आयुष, कल्पक, प्राची, साक्षी जैसे उसके तमाम सहपाठियों का भी है । ये सबके सब पंकज सर के ट्यूशन पेकेजधारी हैं । प्रत्येक के माता-पिता ने सात हजार हजार रूपयों का भुगतान पंकज सर को किया है । पंकज सर के कोचिंग केन्द्र पर पाँखी की कक्षा के पन्द्रह बच्चों का एक बैच है जबकि शहर के दूसरे, अंग्रेजी माध्यम वाले, एक प्रतिि‍ष्ठत स्कूल के पचास बच्चों का दूसरा तथा एक और अन्य स्कूल के चालीस बच्चों का तीसरा बैच चल रहा है । पंकज सर को खाने की फुर्सत नहीं मिल पा रही है । वे बच्चों को अपना सर्वाधिक देकर उनका भविष्य और केरीयर बनाने की कोशिशों में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ रहे हैं ।


निस्सन्देह ये बच्चे अच्छे अंक-प्रतिशत से पास होंगे और भविष्य के हमारे उत्कृष्ट प्रशासक, वैज्ञानिक होंगे । लेकिन जब ये भारत के आम आदमी के बारे में जनहितकारी निर्णय ले रहे होंगे तब इन्हें आम आदमी के बारे में कितना कुछ पता होगा ? हमारे देहातों की दरिद्रता और अभावों से भरी जिन्दगी, गाँवों के बाहर बनी अछूतों की बस्तियाँ, सवर्णों द्वारा घोड़ी से उतारे जा रहे पिछड़े वर्ग के दूल्हों, निर्वस्त्र की जा रही, पिछड़े वर्ग की पंच-सरपंच, जात-समाज की पंगतों की फेंकी गई पत्तलों में जूठन एकत्रित करती अछूत महिलाएँ, गाँव-गाँव में मौजूद, प्रेमचन्द के ‘ठाकुर के कुए’, मन्दिर के गर्भ गृह की देहलीज पर मत्था टेकने के लिए तरसते पिछड़े वर्ग के लोग और ऐसी तमाम बातें इन बच्चों की तो कल्पना में भी नहीं आ पाएगी क्यों कि इन सबके बारे में न तो पंकज सर के कोचिंग केन्द्र में बताया जाता है, न अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में और न ही दूसरी ट्यूशन वाले सर के यहाँ ।


ये सब तो भारी-भरकम बाते हैं । इन बच्चों को तो यह भी नहीं पता कि महुआ कहाँ और कैसे टपकता है, उसकी गन्ध की मादकता से तो ये सपने में भी परिचित नहीं हो सकेंगे, इमली के अधपके टिकोरे के लिए पत्थर कैसे फेंका जाता है, झरबेरी में से बेर तोड़ते समय हाथ कैसे लहू-लुहान होते हैं, अमराई में से, रखवाले को धता बता कर आम कैसे चुराए जाते हैं, कलाम डारा और सतौलिया कौन से खेल हैं ।
पाला पड़ने से फसलों का जलना, फसलों में इल्ली लगना, अति वृि‍ष्ट से फसलों का गलना और पहली बोवाई के बाद बरसात में खेंच पड़ने से बीज का नष्ट हो जाना जैसी बातें (जो आज भी देश के कम से कम सत्तर प्रतिशत लोगों को सीधे-सीधे प्रभावित करती है) ये बच्चे अखबारों से जानेंगे और इनका मतलब जानने के लिए लोगों को तलाश करेंगे । ऐसे तमाम बच्चों के लिए लोक जीवन, लोक संस्कृति, लोक रंग, जन-जीवन अजूबा रहेंगे जिन्हें ये किसी ‘इवेण्ट’ के रूप में देख पाएँगे ।

ये और ऐसे तमाम बच्चे वातानुकूलित कक्षों में बैठकर, काले सूट पहन कर, गुलाबी अखबार पढ़कर, आम भारतवासी के लिए योजनाएँ बनाएँगे और उनके प्रभावी क्रियान्वयन के लिए ‘ब्ल्यू प्रिण्ट’ भी । जब हम इनमें भारतीयता और भारतीय संस्कार तलाश करेंगे तब ये ‘ओ’ ! शिट्’ कहकर हम पर हँसते हुए अपने आफिस के लिए निकल जाएँगे ।


हम इन्हें ‘हेवी पेकेज और ब्राइट एण्ड साउण्ड यूचर वाले इण्डिया’ में धकेल रहे हैं और ‘भारत’ के पिछड़ने का रोना रो रहे हैं ।

पाँखी का क्या दोष ?

(मेरी यह पोस्ट, रतलाम से प्रकाशित हो रहे ‘साप्ताहिक उपग्रह’ के, 12 जून 2008 के अंक में, ‘बिना विचारे’ शीर्षक स्तम्भ में भी प्रकाशित हुई है ।)

4 comments:

  1. विचारनीय प्रश्न!
    बिल्कुल शत-प्रतिशत सहमत हूँ आपसे.
    बहुत ही विचारोत्तेजक मुद्दा उठाया आपने.
    कई सवाल खडे होते हैं हम सबके सामने.
    जवाब कंहा है? किसके पास है?

    बहुत अच्छा लिखा आपने.

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  2. बहुत बढ़िया-इस तरह की शिक्षा छूत का रोग है-मगर हम अपने बच्चों को उसी ओर धकेले जा रहे हैं-चाहे-अनचाहे

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  3. विष्‍णु जी...परीक्षाओं में अच्‍छे अंक तो ले आयेंगे, पर जिंदगी जीने का सही बिंदास अंदाज़ कहां से आएगा, मुझे याद है हमारी कक्षाओं में भी कुछ पढ़ाकू किस्‍म के चुग़द होते थे । जिन्‍होंने बारिश में सायकिल पर शहर नहीं घूमा । जिन्‍होंने बीमार होने के डर से कीचड़ में फुटबॉल नहीं खेला । इमली और कबीट का स्‍वाद नहीं लिया । चोरी से पिच्‍चर नहीं देखी । दोस्‍तों से मारा-मारी नहीं की । सायकिलों की हवा नहीं निकाली । म.प्र. का हमारे ज़माने के बच्‍चों का प्रिय खेल 'हुल गदागद' नहीं खेला । काग़ज की नाव नहीं बनाई । पतंगें नहीं लूटीं । कंचे नहीं खेले । गिल्‍ली डंडा वो जानते ही नहीं । ऐसे बच्‍चों का क्‍या बचपन और क्‍या जीवन ।

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  4. विष्णु जी

    आप का लिखा हमेंशा दिमाग में हलचल मचाता है। पहले से ही अमरीका में रात में बंद दुकानों की सारी लाईटें देख कर गालियां देता था कि आपकी खाने वाली कहानी ने खाने में भी वही बात दिखा दी।

    आज इसे पढ़ कर एक बात याद आई। पड़ोसी के छोटे बच्चे से पूछा कि बेटा दूध कहाँ से मिलता है तो उसका जवाब था - वालमार्ट से। देस में भी वह दिन भी दूर नहीं।

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