निर्झरजी का `मृत्यु-वरण'

साहित्यकारों से जुड़ी, सार्वजनिक उपयोग की निजी सूचनाएँ देने वाली, भोपाल से प्रकाशित हो रही मासिक पत्रिका `आसपास' ने रोचक खबर दी है। खबर के अनुसार बिलासपुर (हिमाचल) के ख्यात रचनाकार श्री रत्नचन्द्र निर्झर ने अपना मोबाइल बेच दिया है। हिन्दी कलमकारों की विपन्नता के अनगिनत किस्सों के बीच निर्झरजी के मोबाइल बेचने का कारण न केवल अनूठा बल्कि आज के एक बड़े संकट से मुक्ति पाने का अचूक उपाय भी है।

सूचना प्रौद्योगिकी के चरम विस्फोट वाले इस समय में हर कोई `मोबाइलमय' हो रहा है । आने वाले दो-तीन वर्षों में देश की आधी आबादी मोबाइलधारी हो जाएगी । बात को परिहास तक ले जाऊँ तो कहने दीजिए कि अब पैदा होने वाले बच्चों की गरदनें तिरछी और हाथों के अंगूठों पर पटि्टयाँ बँधी होंगी । पैदा होते ही बच्चे, नर्स अथवा दाई से, विभिन्न मोबाइल कम्पनियों के `करण्ट टेरिफ प्लान' पूछेंगे । एक जमाना था जब चर्चाओं के विषय समाप्त् होने पर बात मौसम पर आ जाती थी। आज तो, बात मोबाइल से शुरू होती है और मोबाइल पर ठहरी रह जाती है- समाप्त् भी नहीं होती । एक परिवार में बीमा करने गया था। पाया कि एक किशोर, गर्दन टेड़ी किए मुझे देख रहा है । मुझे अटपटा लगा। पूछा तो पिता ने कहा- ` चलती बाइक पर मोबाइल से बातें करते रहने के कारण इसका फर्मा टेड़ा हो गया है ।' याने, जीवन में अब, और कुछ हो न हो, मोबाइल तो होगा ही ।

मुट्ठी में बन्द मोबाइल लिए घूमते आदमी को लगता है कि उसकी मुट्ठी में मोबाइल नहीं, पूरी दुनिया बन्द है । किसी जमाने में मुम्बइया फिल्मों को फैशन की जननी माना जाता था । आज, मोबाइल सबसे बड़ा वह फैशन है जो घर-घर में घुसे बुद्धू बक्‍से के पर्दे पर उभरता है और जिसने न केवल हमारी साँस-साँस पर कब्जा कर लिया है बल्कि जिसने हमारे सार्वजनिक व्यवहार और लोकाचार को पूरी तरह बदल दिया है।

पत्राचार की विधा पर इसका सर्वाधिक मारक प्रभाव हुआ है । कई लिक्‍खाड़ों को इस मोबाइल ने अकर्मण्य कर बातूनी बना दिया है । नियमित पत्राचार करने वाले मेरे कई मित्र अब मोबाइल पर ही बतियाते हैं। इनमें से अधिकांश मुझसे विचित्र आग्रह करते हैं। वे चाहते हैं कि वे भले ही पत्र न लिखें लेकिन मैं उन्हें नियमित रूप से पत्र लिखता रहूँ । मैं पूछता हूँ- `क्यों लिखूँ ?' वे कहते हैं- `तुम्हारी तो आदत है। अपनी आदत मत बिगाड़ो और पत्र लिखते रहो ।' मैं उनसे पूछता हूँ कि वे जब तमाम बातें फोन पर कर लेते हैं तो लिखने के लिए मेरे पास कुछ भी नहीं बचता । वे कहते हैं कि मैं कुछ भी लिखूँ लेकिन उन्हें पत्र लिखता रहा हूँ।

जाहिर है कि देर तक, ढेरों बातें करने पर भी वह सन्तोष नहीं मिल पाता जो पचीस पैसे के पोस्टकार्ड से मिलता है । पोस्टकार्ड को सहेज कर रखा जा सकता है, मित्रों-परिजनों को पढ़वाया जा सकता है और जब चाहे तब निकाल कर बार-बार पढ़ा जा सकता हैं । मोबाइल पर की गई बातों और भेजे गए एसएमएस में यह सब कहाँ ? अखबारों में, सम्पादक के नाम पत्र स्तम्भ में भी दो-तीन माह के अन्तराल से किसी न किसी का पत्र छपता रहता है जिसमें पत्राचार समाप्त् होने की स्थिति पर चिन्ता और शोक प्रकट किया जाता है तथा इस विधा को जीवित बनाए रखने की आवश्यकता जताई जाती है । ऐसी आवश्यकता प्राय: प्रत्येक व्यक्ति जताता है लेकिन कोई भी खुद कुछ नहीं करता । हर कोई `परभारे' आश्रित है। यह सब देख-देख कर मुझे अचरज भी होता है, दुःख भी होता है और हँसी भी आती है । नासमझों को समझाने की चेष्ठा की जा सकती है लेकिन समझदारों को कौन समझाए ? इनमें से प्रत्येक जानता, समझता है कि मरे बिना स्वर्ग नहीं देखा जा सकता। निर्झरजी ने यही किया। पत्राचार के सुख का स्वर्ग देखने के लिए उन्होंने `मोबाइल त्याग' का `मृत्यु-वरण' किया । अपना मोबाइल बेचने की सूचना देने वाला उनका पत्र हम सबको चिन्तन-मनन के लिए आवाज लगाता है । उन्होंने लिखा- `चिट्ठी लिखने की परम्परा वर्तमान में समाप्त् हो चली है । पुराने रचनाकारों, साहित्यकारों की चिट्ठी, पत्र उनकी धरोहर हुआ करती थी । चिट्ठी लिखने की पुरानी परम्परा को बनाए रखने के लिए मैंने अपना मोबाइल बेच दिया है । अब मुझसे खतो-किताबत करने के लिए मेरे पते पर स्नेहमयी चिटि्ठयाँ लिखा करिए । पता है- मकान नं. २१०, मिश्रा भवन रोड़, सेक्टर-२, बिलासपुर - १७४००१ (हिमाचल प्रदेश) ।'

कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है। हम ऐसे `अतिरिक्त समझदार' लोग हैं जो कुछ भी खोए बिना सब कुछ पा लेना चाहते हैं । बदले में हमें कुछ भी नहीं मिल पा रहा है और इसीलिए हम प्रलाप करते रहते हैं । निर्झरजी ने मोबाइल छोड़ा है तो पत्राचार का सुख पाएँगे । वे तमाम लोग, जो पत्राचार विधा की शोकान्तिकाएँ पढ़ रहे हैं, निर्झरजी से सबक ले सकते हैं । ऐसे लोग बेशक अपना-अपना मोबाइल न बेचें, किन्तु पत्र लिखना तो शुरू कर ही सकते हैं ।

नया काम शुरू करना आसान है किन्तु स्थगित/बाधित काम शुरू करना कठिन होता है - यह बात मैं अपने अनुभव से कह पा रहा हूं । ऐसे में, निर्झरजी को बधाई देने वाले पत्र से ही इस स्थगित क्रम को गतिशील किया जा सकता है।

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