मुन्‍ना भाई : आह सजा ! वाह सजा !!

मुन्‍ना भाई याने अभिनेता संजय दत्‍त को मिली, 6 साल की सजा, ऐसा मामला बन गया है जिस पर लोग न तो हंस पा रहे हैं और न ही रो पा रहे हैं, या फिर रोना और हंसना साथ-साथ कर रहे हैं । बात ही ऐसी हो गई ।


यूं तो सटोरियों ने पहले ही मुन्‍ना भाई की सजा की पुष्टि कर दी थी । उनकी सजा का कोई 'खाईवाल' या तो मिल ही नहीं रहा था और यदि कोई मिल रहा था तो वह सचमुच में कौडियों के दाम गिनवा रहा था । ऐसे सटारिये शायद, सटोरिये होने का धर्म निभा रहे थे या फिर सट्टे की लाज रखने के लिए मैदान में उतरे थे । लेकिन शायद उससे भी पहले, खुद मुन्‍ना भाई को गले-गले तक खातरी हो चुकी थी कि उन्‍हें सजा हो कर रहेगी, इसीलिए वे मन्दिर-मन्दिर, मत्‍था टेक रहे थे और अपनी सलामती की याचना कर रहे थे । खुद को सजायाफ्ता होने का विश्‍वास उन्‍हें इतना था कि जब जज साहब ने उन्‍हें सजा सुनाई तो वे फिल्‍मी नायक की अदा में, एक बार भी 'नहीं ! नहीं !!' नहीं चिल्‍लाए और न ही कटघरे पर दोहत्‍थड मारे । उनकी आंखें भर आईं और उन्‍होंने अपने आंसुओं को यदि रोका नहीं तो धार-धार बहने भी नहीं दिया । उन्‍होंने आशा और अपेक्षा से अधिक संयम बरता और अपनी परिपक्‍वता साबित की ।


इस फैसले पर न केवल संजय दत्‍त के प्रशंसकों और आलोचकों की वरन् उन तमाम लोगों की भी नजरें टिकी हुई थीं जो भारतीय न्‍यायपालिका को अपनी शुभेच्‍छापूर्ण धारणाओं की कसौटी पर कसना चाह रहे थे । इन लोगों की ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे बनी हुई थी । ये लोग संजय का बुरा कतई नहीं चाहते थे किन्‍तु चाहते थे कि संजय को सजा अवश्‍य हो ताकि भारतीय न्‍यायालयों, न्‍यायाधीशों और समूची न्‍यायपालिका की छवि की सफेदी में बढोतरी हो । संजय दत्‍त के आलोचक उनके निर्दोष छूटने की प्रार्थना कर रहे थे ताकि वे कह सकें कि संजय ने न्‍याय को खरीद लिया । ऐसे लोग इस फैसले से दुखी ही हुए । संजय के प्रशंसक, अपने नायक को सजा होने से दुखी तो बहुत हैं लेकिन इसके समानान्‍तर वे इस बात से खुश भी हैं कि उनके मुन्‍ना भाई के कारण भारतीय न्‍यायपालिका की टोपी में एक पंख और लग गया ।


भारतीय न्‍याय व्‍यवस्‍था की उलझन भरी प्रक्रिया और देर से न्‍याय मिलने की वास्‍तविकता के चलते, भारतीय न्‍याय पालिका की दशा, श्रीलाल शुक्‍ल के 'राग दरबारी' में वर्णित हमारी शिक्षा पध्‍दति जैसी हो गई नजर आती है जिसे जो चाहे, आकर लात मार कर चला जाता है । इस फैसले ने ऐसी अनगिनत लातों को लात मार दी है । देश में कानून का राज होने की बात आज किसी भोंडे चुटकुले से कम नहीं लगती । स्थितियां कहने को विवश करती हैं कि कानून के लम्‍बे हाथ केवल गरीबों, असहायों और बिना सिफारिश वालों के गलों तक ही पहुंचते हैं और पैसों वालों की ड्योढी पर हमारा कानून कोर्निश बजाता नजर आता है । कानून की समानता को लकर भारतीय जन मानस की धारणा इसी बात बनती और बिगडती है कि पैसे वाले, बडे लोगों के साथ इसका व्‍यवहार कैसा होता है । किसी बडे आदमी को, लोगों की उम्‍मीदों के विरूध्‍द सजा मिलती है तो खुश होने वालों में अधिकांश लोग ऐसे होते हैं जो उन बडे लोगों को को जानते भी नहीं । लेकिन वे फकत इसी बात से खुश हो जाते हैं कि कोई बडा आदमी कानून की गिरफ्त में आ गया । उनकी दशा उन झुग्‍गी-झोंपडियों वालों जैसी होती है जो अतिक्रमण में आई किसी अट्टालिका को गिरते हुए देख कर खुश हो रहे होते हैं ।


लेकिन मुन्‍ना भाई को 6 साल की कैद वाला मामला ऐसा नहीं रहा । सब कोई जानते हैं कि संजय दत्‍त असंदिग्‍ध रूप से 'बडे आदमी' हैं । लेकिन उन्‍हें सजा होने पर खुश होने वालों की तादाद बहुत-बहुत कम होगी । 'ड्रग एडिक्‍ट बिगडैल बच्‍चे' की छवि से उबर कर संजय दत्‍त ने खुद को जिस तरह से एक भला आदमी साबित किया वह सफर आसान नहीं था । 'प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं में बदलने' के, मेनेजमेण्‍ट के बहु उच्‍चारित फण्‍डे को वास्‍तविकता में बदलने के लिए मुन्‍ना भाई ने खुद में 'नख-शिख' या कि 'आमूलचूल' परिवर्तन किए और यह सब केवल दिखावे में नहीं, आचरण में उतारे ।


यह फैसला भारतीय न्‍यायपालिका के पन्‍नों में भले ही एक सामान्‍य फैसला बन कर रह जाए लेकिन भारतीय जनमानस के लिए यह फैसला, जूलीयस सीजर की जग विख्‍यात 'टू डू ऑर नॉट टू डू' वाली दशा से कम नहीं रहा । यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि इस पर आह भरी जाए या वाह की जाए ।


जाहिर है, इस फैसले पर 'आह सजा ! वाह सजा !!' से कम या ज्‍यादा और कुछ नहीं कहा जा सकता

10 comments:

  1. अब सट्टे इस पर लग सकते हैं कि 6 साल में कितने अंतत: संजय जेल में काटेंगे. सजा सुनते समय हीरोचित व्यवहार एक बात है. जेल काटना दूसरी. गांधीगिरी एक बात है, गान्धी बनना दूसरी.

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  2. आह सजा ! वाह सजा और क्या कहा जाये.

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  3. बहुत अच्‍छे ढंग से अपनी सोंच प्रस्‍तुत की सर आपने बधाई !
    विगत कुछ वर्षों से आ रहे फैसलों को देखते हुए भारतीय न्‍याय व्‍यवस्‍था के प्रति लोगों का विश्‍वास बढा है ।
    संजय के जीवन से नई पीढी को शिक्षा लेनी चाहिए जैसे मुन्‍ना भाई, गांधी गिरी को लोगों नें आत्‍मसाध किया है वैसे ही यह भी आत्‍मसाध करें कि गलती करने पर सजा मिलती है संजय दत्‍त जैसे ।

    आरंभ

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  4. मुन्ना (मुल्ला) भाई का सुधरा हुआ रूप बनावटी (फिल्मी) है। मरता क्या नहीं करता? कबीरदास जी का यह दोहा यहाँ बहुत ही प्रासंगिक है:

    दुख में सुमिरन सब करे, सुख में करे न कोय।
    जो सुख में सुमिरन करे, दुख काहे को होय।।

    इसके साथ ही यह भी कहना चाहूँगा यदि ऐसे ही निर्भय निर्णय आते रहे तो आम जनता की कानून में आस्था बढ़ेगी। किन्तु भारत में समय पर (या त्वरित) निर्णय अभी भी आने बाकी हैं।

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  5. बैरागी जी बहुत बढिया लिखा... लेकिन न्याय व्यवस्था पर "पंख" वगैरह तो नहीं लगे क्योंकि जो असल और खास मुजरिम थे उनका तो अभी बाल भी बाँका नहीं हुआ है, होने की उम्मीद भी नहीं है, रही बात संजू बाबा की, तो मुझे पूरा विश्वास है कि २-३ महीने के अन्दर-अन्दर वे पुनः बाहर दिखाई देंगे और फ़िल्मों में काम भी करेंगे... "मुझे भारत की न्याय व्यवस्था पर पूरा विश्वास है" यह सूत्र वाक्य अबू सलेम, मोनिका बोल चुके अब दाऊद की बारी है..

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  6. मैं जानता था आप चिट्ठाकारों को नये विषय में उलझा सकते हैं. इसलिए आपके पीछे पड़ा कि नियमित लिखिये.
    बहुत अच्छी प्रस्तुति.

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  7. मै सहमत हू सुरेश भाई से,अगर पुलिस किसी बंदे को चाकू के साथ अंदर कर देती है तो उसका मुकदमा शुरु होते होते 10/12 साल बीत जाते है,बाहर आना बहुत बडी बात है,वह तो आजंन्म कारावास काटकर भी अंदर ही रहता है ,कही गलती से वह किसी पत्रकार या समाज सुधारक् एन जी ओ के हत्थे पड कर छूट जाये तो अलग बात है..:)

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  8. सल्लू खान सोच रहे होंगे कि ना जाने कब कानून अपनी पिस्तौल उनकी गटई पर धर कर बोल पड़े,"तेरा क्या होगा सल्लू?"

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  9. आह सजा, वाह सजा...बस सब कुछ तो आ गया इसमें। बहुत अच्छा चिन्तन।

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  10. बड़ी देर कर दी हुज़ूर आते आते ... :(

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