मैं, स्‍वर्गवासी

'जब से बहू घर में आई है तब से घर स्‍वर्ग हो गया है और घर में रहने वाले हम सब स्‍वर्गवासी ।' जैसा मुहावरा भले ही आप मुझ पर फिट कर दें लेकिन मुझे कहने की इजाजत दीजिए कि गए दो दिनों से मैं खुद को सचमुच में 'स्‍वर्गवासी' अनुभव कर रहा हूं ।



वस्‍तुत: इस बार राखी के त्‍यौहार पर इस समय मेरे घर में हम 12 लोग मौजूद हैं । इनमें से 5 बडे हैं और 7 बच्‍चे । इन सात में एक, 27 वर्षीय मेरा बडा बेटा भी है लेकिन वह भी बच्‍चों में ही शरीक बना हुआ है । पूरा घर बच्‍चों की चहचहाट से गूंज रहा है । वे धमा चौकडी मचा रहे हैं, घर में यहां से वहां तक, नीचे से ऊपर तक दौड रहे हैं, उनमें से कौन किससे क्‍या कह रहा है-मुझे समझ नहीं पड रहा है लेकिन उन्‍हें सब कुछ सुनाई दे रहा है और समझ भी पड रहा है, भरपूर 'प्‍लाट एरिया' वाला मेरा मकान छोटा पड गया है, इतना छोटा कि मुझे लगने लगा है कि यह भाग-दौड करते हुए वे कहीं पडौस में, छाजेड साहब के घर में न घुस जाएं । उनकी आवाजें, महज आवाजें नहीं हैं । उनकी आवाजों में उल्‍लास, उन्‍मुक्‍तता, निर्बन्‍धता तो है ही, किसी और के होने से बेभान होने की सहज-कुदरती लापरवाही भी है । इस समय मुझे मेरा घर, घर नहीं, कोई पक्षी अभयारण्‍य लग रहा है जहां मुझे चुपचाप यह सब देखते-सुनते रह कर इसका अवर्णनीय आनन्‍द घूंट-घूंट पीते रहना है । ये क्षण, ईश्‍वर प्रदत्‍त ऐसे सुखद क्षण जो शायद मांगे से भी नहीं मिल पाएं ।



परिवार के नाम पर हम कुल चार सदस्‍य हैं - हमारे दो बेटे और हम पति-पत्‍नी । बडा बेटा नौकरी पर चेन्‍नई में पदस्‍थ है और छोटा बेटा हमारे साथ होते हुए भी हमारे साथ नहीं होता । वह अपने कमरे में, बुध्‍दू बक्‍से से उलझा रहता है या फिर 'आर्कुट' पर, अपने उन दोस्‍तों से सम्‍पर्क किए रहता है जो गांव के गांव में ही हैं । हमारा दाम्‍पत्‍य जीवन 31 वर्ष का हो चुका है और हम दोनो 'धणी-लुगाई' उम्र के इस मुकाम पर एक दूसरे के और एक दूसरे की आदतों के इतने आदी हो चुके हैं कि दो-दो, तीन-तीन घण्‍टे आपस में बात किए बिना ही एक दूसरे के काम करते रहते हैं । सो, नि:शब्‍दता या कि नीरवता हमारी ऐसी सहचरी बन गई है कि पत्‍ते का खडकना भी हमारा ध्‍यान भंग कर देता है ।



ऐसे में आप कल्‍पना कर सकते हैं कि मेरे घर का कण-कण कितना जीवन्‍त, कितना चहचहा रहा होगा । मुझे इतना अच्‍छा लग रहा है कि मैं ने अपने सारे काम स्‍थगित कर दिए हैं, बाहर जाने की इच्‍छा मर गई है, मैं इन पलों को पूरी जिन्‍दगी की तरह जी लेना चाह रहा हूं । अपनी आदत के मुताबिक बच्‍चे, किसी एक कमरे में बन्‍द होकर जब खेलना चाहते हैं तो मैं उन्‍हें अपने वाले हॉल में आकर खेलने की कहता हूं । वे अविश्‍वास और अचरज से मेरी ओर देखते हैं, कहते हैं -' आप डांटेंगे, चले जाने को कहेंगे ।' मैं उन्‍हें भरोसा दिला रहा हूं कि ऐसा नहीं होगा । बतौर 'ट्रायल' उन्‍होंने एक बार मेरा कहा माना । मैं अपनी बात पर कायम रहा और चुपचाप उन्‍हें देखता रहा । उसके बाद से वे बेफिक्र होकर 'हॉल' में ही बने हुए हैं । अपनी अधिकाधिक गतिविधियां यहीं पर संचालित, सम्‍पादित कर रहे हैं और मुझे इस बात पर भरोसा हो रहा है कि यदि सच्‍चे मन से कही जाए तो ईश्‍वर हमारी बात सुनता भी है और उसे पूरी भी करता है ।



कल राखी का त्‍यौहार हो गया है । बाहर से आए आठ में से दो-एक लोगों को शायद आज जाना पड सकता है । सबके अपने-आपने काम और नौकरियां हैं । चाह कर भी रूक पाना उनके लिए मुमकिन नहीं होगा । उन्‍हें रोकने की इच्‍छा तो हो रही है लेकिन उनकी विवशताओं को अनुभव करते हुए, ऐसा कर पाने की हिम्‍मत नहीं हो रही । ऐसे में मैं ईश्‍वर से यही प्रार्थना कर रहा हूं कि वे भले ही जाएं लेकिन अपने बच्‍चों को यहीं छोड जाएं । लेकिन मै जानता हूं कि यह भी सम्‍भव नहीं होगा । अव्‍वल तो बच्‍चे अपने मां-बाप के बिना रहेंगे नहीं । और यदि अन्‍य बच्‍चों के संग के लोभ में रह भी गए तो दूसरे बच्‍चों के जाते ही उन्‍हें अपने मां-बाप याद आने लगेंगे और तब वे जो क्रन्‍दन करेंगे, उसे शमित कर पाना हममें से किसी के भी बस से परे ही होगा । सो, इस आनन्‍द की समाप्ति की शुरूआत के लिए अभी से अपने आप को तैयार कर रहा हूं । जानता हूं कि ऐसे क्षण सदैव अस्‍थायी होते हैं । शायद, इनका अस्‍थायी होना ही इनका वास्‍तविक आनन्‍द भी है । सो, इस क्षण तो मैं 'सर्वानन्‍द' से सराबोर, अपनी बात लिख रहा हूं ।



जो होनी है, उसकी अग्रिम प्रतीति होने पर भी उसे रोक पाना हममें से किसी के बस में नहीं । सो, मैं वर्तमान के इस आनन्‍द को, इस स्‍वर्गीय सुख का निमिष-निमिष आत्‍मसात किए जा रहा हूं । आंखें झपकने को जी नहीं करता लेकिन वे झपकती हैं । जिन्‍हें जाना है, वे जाएंगे ही । (जाएंगे नहीं तो वापस कैसे आएंगे ? और और यदि वापस नहीं आएंगे तो यह स्‍वर्गीय सुख भोगने का चिराकांक्षित अवसर मुझे कैसे मिलेगा ?) सो मैं अपने आप को तैयार कर रहा हूं ।



हमारी लोक कथाओं का समापन अंश इस समय मुझे सर्वाधिक सहायता कर रहा है जिसमें लोक मंगल की अकूत भावना प्रकट होती है - 'जैसे उनके दिन फिरे, वैसे सबके फिरें ।' मैं ईश्‍वर से याचना कर रहा हूं - 'जो और जितना सुख मुझे मिला है, वह सब, उससे करोड गुना आप सबको मिले ।'


आमीन

रवि रतलामी सीएनएन आईबीएन पर

अत्यन्त मुदित मन से मैं यह पोस्ट लिख रहा हूं । आखिर बात मेरे गुरू श्री रवि रतलामी के, अन्तरराष्ट्रीय समाचार चैलन 'सीएनएन आईबीएन' पर आने की जो है ।


कल कोई सात घण्टे हम दोनों ने इसी उपक्रम में लगाए ।


परसों शाम अचानक ही मुझे रविजी का सन्देश मिला - 'शुक्रवार सवेरे नौ बजे मेरे निवास पर पहुंचें, कुछ काम है ।' आदेश के परिपालन में समय पर पहुंचा । रविजी ऐसे बैठे थे, मानों कोई काम ही नहीं हो । पूछा तो बोले - 'जिन्हें आना था, वे अब एक घण्टा देर से आएंगे । तब तक आप चाहें तो अपना कोई काम निपटा लें ।' मैं पूरी तरह से फुर्सत लेकर ही गया था । सो 'हजरत-ए-दाग' की तरह वहीं बैठ गया । बातों-बातों में रविजी ने बताया कि 'सीएनएन आईबीएन' का एक सम्वाददाता और केमरामेन गई रात रतलाम पहुचे हैं और छोटी जगहों पर आंचनलिक भाषाओं में ब्लागिंग करने वालों पर धारावाहिक साप्ताहिक स्टोरी के लिए रविजी को शूट करने के लिए आने वाले हैं । सुनकर अच्छा लगा । लेकिन यह देखकर तनिक अजीब लगा कि रविजी अत्यन्त असहज और परेशान हैं । मैंने कुछ भी नहीं पूछा, यह सोच कर कि हकीकत सामने आ ही जाएगी ।



निर्धारित समय पर हम लोग होटल पहुंचे तो पाया कि सम्वाददाता आसिम और केमरामेन अर्पित तैयार खडे थे । दोनों अपनी-अपनी उम्र के पचीसवें बरस में चल रहे थे । रविजी ने दोनों से मेरा परिचय कराया । नाश्ते की व्यवस्था रविजी ने अपने घर पर कर रखी थी लेकिन दानों ही नौजवान हमारे मेजबान बन कर हमसे नाश्ता करने का आग्रह कर रहे थे । हम दोनों को बहुत ही अटपटा लगा । हम मालवा वाले मेहमाननवाजी को ही अपनी पहचान और उससे भी पहले अपना संस्कार मानते हैं और दोनो नौजवान थे कि हमें 'संस्कारच्युत' करने पर तुले थे । वे दोनों अपनी बात पर अडे रहे और हम दोनों अपनी बात पर । अन्तत: उन दोनों ने नाश्ता किया और हम उन्हें देखते रहे ।



बात रतलाम और इसकी पहचान वाले कारकों पर होने लगी । निष्कर्ष निकला कि रतलाम की पहचान बनी हुई नमकीन, बेसन की, 'रतलामी सेव' को भी इस स्टोरी में शामिल किया जाए । यह निर्णय आसिम का था । बातों ही बातों में 'दुनिया में सबसे पहले' वाले फण्डे पर बात चली तो रविजी ने परिहासपूर्वक कहा कि चलती रेल में से, हिन्दी ब्लाग जगत में, सचित्र पोस्टिंग करने वाले वे दुनिया के पहले आदमी बन गए हैं । आसिम ने इस सूत्र को फौरन लपका और स्टोरी का पहला सीनेरियो लिखा कि रतलाम के किसी व्यस्त इलाके की किसी ऐसी दूकान को शूटिंग स्पाट बनाया जाए जहां सेव बन रही हो । रविजी वहां पहुंच कर केमरे से उस बनती सेव के फोटो लेंगे और फिर वहीं, दूकान पर बैठकर 'रतलामी सेव' पर अपनी पोस्ट लिख कर उसे, दूकान से ही अपने ब्लाग पर पोस्ट कर देंगे । यह पूरी प्रक्रिया शूट करने का फैसला हुआ ।



पहली समस्या आई डिजिटल कैमरे की । रविजी का कैमरा 'माइश्चर' खा कर आराम कर रहा था । मुझे अचानक याद आया - रेल्वे हेण्‍डलिंग काण्ट्रेक्टर फर्म मेसर्स मणीलाल झब्‍बालाल वाले मेरे प्रिय संजय जैन के पास आधुनिकतम डिजिटल कैमरा है । उन्‍होंने बताया कि उनके कार्यालय से कैमरा ले लूं । कैमरा लेते हुए मालूम पडा, कैमरे की कनेटिंग केबल तो संजय के घर पर है । वहां जाकर केबल ली । सब लोग रविजी के निवास पर आए । नाश्‍ते का आग्रह हुआ । आसिम और अर्पित मना करने लगे । तभी आसिम की नजर 'खमण ढोकला' पर पडी । उसने अगली मनुहार की प्रतीक्षा नहीं की और शुरू हो गया । अर्पित तनिक संकोच से तथा तनिक देर से शुरू हुआ ।



नाश्‍ते से निपटते-निपटते कोई एक घण्‍टा लग गया और हम लोग लगभग ग्‍यारह बजे अपने 'लोकेशन' पर पहुंचे । रेल्‍वे स्‍टेशन मार्ग वाले प्रमुख चौराहे पर स्थित खण्‍डेलवाल सेव भण्‍डार हमारी लोकेशन थी । अनवरत आवागमन और भरपूर भीड-भाड होने के बावजूद यहां काफी खुली जगह थी । भट्टी 'जाग्रत' थी, कढाही चढी हुई थी और सेव बनाने का क्रम ऐसे चल रहा था मानो सनातन से चला आ रहा है और प्रलय तक यूं ही चलता रहेगा । समूचा दृष्‍‍य देखकर केमरामेन अर्पित के चेहरा खिल उठा - मानो, मुन की मुराद पूरी हो गई हो । शूटिंग के लिए मैं दूकान मालिक से अनुमति मांगता उससे पहले ही खुद मालिक भाई श्री रामावतार खण्‍डेलवाल (जिन्‍हें सारा रतलाम उनके मूल नाम से कम और 'रामू सेठ' के नाम से ज्‍यादा जानता-पहचानता है) ने आगे रहकर नमस्‍कार कर लिया । अब सब कुछ आसान था । और अधिक अनुकूल बात यह रही कि समूचा खण्‍डेलवाल परिवार, रविजी का न केवल परिचित निकल आया बल्कि उनका मुरीद भी । इस मामले में रविजी 'कस्‍तूरी मृग' साबित हुए । उन्‍हें पता ही नहीं था कि उनके इतने सारे और इतने बडे प्रशंसक वहां हैं । इस परिवार के भाई प्रिय पुष्‍पेन्‍द्र खण्‍डेलवाल की पत्‍नी सौ. अपरा, रविजी की जीवन संगिनी डॉ रेखा श्रीवास्‍तव की सुशिष्‍या रही हैं । सो प्रिय पुष्‍पेन्‍द्र तो ऐसे आवभगत में लग गया मानो उसका सुसराल पक्ष वहां अवतरित हो गया है ।



आसिम और अर्पित काम पर लग गए । वे दोनों ही रवि जी को डायरेक्‍शन दे रहे थे और रविजी असहज हुए जा रहे थे । उन्‍होंने तो इस प्रकार 'अभिनेता' होने की कल्‍पना भी नहीं की थी । वे तो मान कर चल रहे थे कि सब कुछ घर में बैठ कर निपटा लिया जाएगा । लेकिन बात चूंकि 'दृष्‍य माध्‍यम' की थी सो 'विजूअल्‍स' तो उसकी अनिवार्यता और अपरिहार्यत होने ही थे । रविजी के लिए यह कल्‍पनातीत स्थिति असुविधाजनक हो रही थी । वे काम करने वाले आदमी हैं, काम करने में विश्‍वास करते हैं जबकि यहां तो उन्‍हें खुद को काम करते हुए 'दिखना' था । इतना ही नहीं, तयशुदा सवालों के तयशुदा जवाब भी देने थे । उनके लिए न तो सवाल नए थे और न ही जवाब । रोजमर्रा की जिन्‍दगी में उनके लिए जो सर्वाधिक प्रिय और सर्वाधिक सहज था, वही सब उन्‍हें कठिन लग रहा था । वे न चाहते हुए भी 'केमरा काशस' हुए जा रहे थे । लेकिन आसिम अपनी उम्र से अधिक परिपक्‍व हो कर अत्‍यधिक धैर्यपूर्वक और विनम्रतापूर्वक उन्‍हें बार-बार समझाए जा रहा था । उसके चेहरे पर पल भर के लिए भी खिन्‍नता या असहजता नहीं आई । जो बात अब तक रविजी के घर का राज बनी हुई थी वह सडक पर उजागर हो रही थी कि रविजी अत्‍यधिक अन्‍तर्मुखी ऐसे व्‍यक्ति हैं जो अपनी प्रत्‍येक बात अपने मुंह से नहीं, अपने काम से कहते हैं । संजाल पर हिन्‍दी को लोकप्रिय बनाने के लिए अपनी नींद दांव पर लगाने वाले और 'रचनाकार' के लिए चौबीसों घण्‍टों अपने लेपटॉप से खेलने वाले रविजी को सम्‍वाद बोलने में असुविधा हुए जा रही थी । एक कष्‍ट और था । हालांकि वे अंग्रेजी खूब अच्‍छी तरह जानते, लिखते, बोलते हैं लेकिन रतलाम के वातावरण में अंग्रेजी अभी भी 'पानी में तेल' वाली दशा में है, सो धाराप्रवाह बोलना तनिक अस्‍वाभाविक होना ही था ।



लेकिन दो बजते-बजते, 'आउटडोअर शूटिंग' अन्‍तत: पूरी हो गई । सब कुछ आसिम और अर्पित के मनमाफिक हुआ था । रविजी हतप्रभ तो थे ही कि उनसे अभिनय करवा लिया गया है, इसी बात से वे बच्‍चों की तरह खुश भी थे ।



आसिम 'फ्री फ्राम ऑल वरीज' की मुद्रा में आ गया और अर्पित अपना साज-ओ-सामान समेट लगा । इस शूटिंग के दौरान प्रिय पुष्‍पेन्‍द्र ने मालवा की मेहमाननवाजी की बानगी पल-पल दी । अब हम लागों को भूख लग आई थी । भोजन कहां किया जाए - हम इसी विचार में थे कि हमें अपनी 'कमअकली' पर हंसी आ गई । प्रिय पुष्‍पेन्‍द्र का 'होटल सन्‍तुष्‍टी' रतलाम की शान बना हुआ है और हम लोग ठीक उसी के सामने खडे होकर, उसके मालिक से बात करते हुए भोजन करने की जगह तलाश कर रहे थे । सो, भोजन हमने 'सन्‍तुष्‍टी' में ही किया । पुष्‍पेन्‍द्र ने, हाथापाई करने के सिवाय बाकी सब जतन कर लिए कि हम भुगतान नहीं करें लेकिन आसिम ने हम तीनों में से किसी की, एक न सुनी और भुगतान उसी ने किया । पत्रकारिता से जुडे लोगों का ऐसा व्‍यवहार कम से कम मेरे लिए तो अनपेक्षित ही था ।



अब हम लोग एक बार फिर रविजी के निवास पर थे । अब रविजी को न केवल घर में काम करते हुए शूट किया जाना था बल्कि इण्‍टरनेट पर हिन्‍दी को स्‍थापित करने के लिए किए गए उनके प्रयत्‍नों की तथा उनके और उनके मित्र समूह द्वारा, इस कठिन काम के लिए विकसित 'औजारों' पर भी बात होनी थी । मेरा 'जडमति' होना ऐसे क्षणों में मेरे लिए बडा सहायक कारक रहा । सो, मुझे चुपचाप बैठे-बैठे सब कुछ देखना-सुनना ही था । इसी बीच, रविजी की जीवन संगिनी डॉक्‍टर रेखा श्रीवास्‍तव कॉलेज से लौट आईं । अचानक ही रविजी ने आसिम से आग्रह किया कि इस सम्‍वाद में मुझे भी शामिल किया जाए । आसिम ने ऐसे सुना मानो उसने ही रविजी को यह सम्‍वाद बोलने को कहा हो । चूंकि यह 'स्‍टोरी' अंग्रेजी चैनल के लिए हो रही थी सो आसिम का आग्रह था कि सारे सवाल-जवाब अंग्रेजी में ही हों । मेरे लिए यह अत्‍यधिक कठिन काम था । न तो मुझे अंग्रेजी आती है, न ही मुझे अंग्रेजी बोलने का अभ्‍यास है और सबसे बडी बात कि यह मेरी मानसिकता में कहीं है ही नहीं । फिर भी, मेरे गुरूजी का आदेश था, सो मैं जैसा भी बन पडा, अंग्रेजी में बोला । वह सब बोलते हुए मुझे लगता रहा मानो मैं झूठ बोल रहा हूं ।



शाम कोई पांच बजे, आसिम और अर्पित ने हम सबको धन्‍यवाद देते हुए विदा ली । उनके जाते ही मैं ने रविजी और रेखाजी को धन्‍यवाद दे कर नमस्‍कार किया और अपने घर का रास्‍ता पकडा ।



जैसा कि आसिम ने बताया है, 'सीएनएन आईबीएन' 3 सितम्‍बर से इस साप्‍ताहिक समाचार कथा का प्रसारण शुरू करेगा । उसने वादा किया है कि 'रवि रतलामी' वाले अंक के प्रसारण की तारीख वह समय पूर्व सूचित करेगा । लेकिन एक कुशल, जिम्‍मेदार और समझ‍दार सम्‍वाददाता की जिम्‍मेदारी निभाते हुए उसने कहा कि हम लोग बहुत ज्‍यादा उम्‍मीद नहीं करें । क्‍योंकि, रतलाम की शूटिंग में से कितना हिस्‍सा इस कथा में शामिल किया जाएगा, यह उसे भी नहीं पता । इस मामले में अन्तिम निर्णय 'स्‍टोरी डिपार्टमेण्‍ट' करेगा । मुझे यह देख कर बहुत अच्‍छा लगा कि इतनी कम उम्र में ही इस नौजवान को अपनी क्षमताओं की ही नहीं, अपनी सीमाओं की जानकारी भी इतनी स्‍पष्‍टता से है । इन क्षणों में आसिम मुझे एक समाचार चैनल का सम्‍वाददाता नहीं बल्कि अपनी समूची पीढी का प्राधिकृत-उत्‍तरदायी प्रवक्‍ता अनुभव हुआ ।



मैं दो बातों से अत्‍यधिक मुदित हूं । पहली तो यह कि मेरे गुरू रवि रतलामी अन्‍तरराष्‍ट्रीय समाचार चैनल पर नजर आएंगे । दूसरी बात यह कि इस महत्‍वपूर्ण काम में मैं मेरे गुरूजी के लिए सहायक बन पाया ।



मेरी प्रसन्‍नता का अनुमान लगाने का कष्‍ट करते हुए आप, इस समाचार कथा के प्रसारण के दिनांक की प्रतीक्षा भी कीजिएगा । युदि मुझे इस तारीख की सूचना पर्याप्‍त समय पहले मिली तो आप सबको खबर करूंगा ही । मुझ पर कृपा कीजिएगा और मेरे ब्‍लाग को देखते रहिएगा

न लेखक, न वरिष्‍ठ, न पत्रकार

'कस्‍बा' में रवीश कुमारजी की पोस्‍ट पढकर मुझे बिलकुल वैसा ही सुख मिला जैसा एक विधवा को, दूसरी विधवा को देख कर मिलता है । रवीशजी के साथ परिचय (या कि 'कुपरिचय') की यह दुर्घटना यदा-कदा ही होती होगी लेकिन महज सवा दो लाख की आबादी वाले मेरे कस्‍बे में, मुझे इस दुर्घटना से आए दिनों दो-चार होना पडता है ।


मैं एक पूर्णकालिक (फुल टाइमर) बीमा एजेण्‍ट हूं और इसके सिवाय ऐसा और कोई काम नहीं करता हूं जिससे 'दो पैसे' मिलते हों । प्रत्‍येक अवसर पर मैं अपना परिचय भी यही कह कर देता हूं कि मैं एक पूर्णकालिक बीमा एजेण्‍ट हूं और इसके सिवाय और कुछ भी नहीं करता हूं । जाहिर है कि मेरे परिवार को 'दो वक्‍त की रोटी' इस बीमा एजेंसी से ही मिलती है । इस एजेंसी से मिली आर्थिक निश्चिन्‍तता के कारण ही मैं अपने तमाम शौक पूरे कर पाता हूं । लेकिन मैं यह देख कर बार-बार हतप्रभ हो जाता हूं कि मेरे सार्वजनिक परिचय में मेरा बीमा एजेण्‍ट होना एक बार भी उल्‍लेखित नहीं हुआ । हर बार मुझे बीमा एजेण्‍ट कहने से ऐसे बचा जाता है मानो बीमा एजेण्‍ट होना निहायत घटिया या फिर देश द्रोही होने जैसा है ।


गए दिनों मेरे कस्‍बे की यातायात व्‍यवस्‍था को लेकर हुई बैठक में (जिसका जिक्र मैं ने अपनी, इससे ठीक पहले वाली पोस्‍ट 'अंग्रेजों ! लौट आओ' में किया है) मैं ने भी अपनी बात कही थी । वहां भी मैं ने खुद को एक बीमा एजेण्‍ट बताया था । लेकिन अगले दिन अखबारों में मुझे 'लेखक, चिन्‍तक और व्‍यंग्‍यकार' के रूप में उल्‍लेखित किया गया ।


जीवन बीमा के साथ ही साथ मैं साधारण बीमा का काम भी करता हूं । जिस साधारण बीमा कम्‍पनी का मैं एजेण्‍ट हूं, उस बीमा कम्‍पनी ने अपनी कुछ नई बीमा योजनाओं की जानकारी देने के लिए अपने एजेण्‍टों की बैठक बुलाई । मुझे, मेरे विकास अधिकारी के माध्‍यम से, एक बीमा एजेण्‍ट की हैसियत से ही सूचना दी गई और मैं ने उसी हैसियत में भाग भी लिया । लेकिन अगले दिन अखबारों में मुझे 'नगर के वरिष्‍ठ साहित्‍यकार' के रूप में उल्‍ले‍खित किया गया । यह समाचार, बीमा कम्‍पनी द्वारा ही जारी किया गया था । याने खुद बीमा कम्‍पनी अपने एजेण्‍ट को बीमा एजेण्‍ट मानने को तैयार नहीं ।


श्रीनितिन वैद्य ने मुझे भारतीय जीवन बीमा निगम का एजेण्‍ट बनाया था । उन दिनों वे मेरे कस्‍बे में विकास अधिकारी के रूप में पदस्‍थ थ्‍ो और बीमा एजेण्‍ट नियुक्‍त करना उनकी नौकरी का हिस्‍सा था । इन दिनों वे पदोन्‍नत होकर शाखा प्रबन्‍धक के रूप में, मुम्‍बई में पदस्‍थ हैं । उम्र में वे मेरे छोटे भतीजे से भी छोटे हैं और मुझे अति‍रिक्‍त आदर, सम्‍मान देते हैं । वे समीपस्‍थ कस्‍बे जावरा के मूल निवासी थे । एक आयोजन में वे मुझे वहां मुख्‍य अतिथि बना कर ले गए । आयोजन में मेरा परिचय उन्‍होंने ही दिया । लेकिन मैं यह देख-सुन कर हैरान रह गया कि उन्‍होंने मुझे 'रतलाम के अग्रणी समाज सेवी' के रूप में प्रस्‍तुत किया । जिस आदमी ने मुझे बीमा एजेण्‍ट बनाया और जिसके अधीनस्‍थ ही मैं बीमा एजेण्‍ट हूं, वही आदमी मुझे बीमा एजेण्‍ट बताने में शर्मा गया । है न ताज्‍जुब की बात ?


स्‍थानीय केबल चैनलें भी अपने समाचारों में मुझे कभी साहित्‍यकार तो कभी पत्रकार, कभी वरिष्‍ठ लेखक तो कभी अग्रणी चिन्‍तक जैसे विशेषणों से उल्‍लेखित करती हैं जबकि दोनों चैनलों के मालिकों से लगाकर छोटा से छोटा कर्मचारी भी मेरी असलियत से भली प्रकार वाकिफ है ।


ऐसा क्‍यों होता है ? किसी आदमी को उसके वास्‍तविक स्‍वरूप में हम उसे जस का तस स्‍वीकार क्‍यों नहीं कर पाते हैं ? यह हमारी फितरत है या मानव मनो‍विज्ञान की कोई अबूझ ग्रंथी ? क्‍या कोई मजदूर प्रबुध्‍द नहीं हो सकता ? क्‍या कोई सडक छाप आदमी सा‍हित्यिक अभिरूचि वाला नहीं हो सकता ? क्‍या किसी दफ्तर का कोई बाबू ललित कलाओं में दखल नहीं रख सकता ? यदि इन सबका उत्‍तर हां में है तो उसे उसके वास्‍तविक स्‍वरूप में उल्‍ले‍खित किए जाने में हिचक क्‍यों होती है ।


कोई जाने या न जाने, मैं अपनी असलियत भली प्रकार जानता हूं । मैं साहित्‍य प्रेमी हूं, लिखने-पढने वालों के आस-पास बने रहना, उनकी बातें सुनना मुझे अच्‍छा लगता है । लेकिन इस सबके कारण मैं सा‍हित्‍यकार या लेखक कैसे हो गया ? रवीश कुमारजी ने मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया है । मैं जो हूं, भाई लोग मुझे वह मानने को तैयार नहीं और वे सब मिल कर मुझे जो साबित करना चाह रहे हैं, उसका कोई कारण मेरे आस-पास तो ठीक, कोसों दूर तक कहीं नहीं है ।


मेरा क्‍या होगा ?

अंग्रेजों ! लौट आओ

आजादी की साठवीं वर्ष गाँठ मैं ने दो कारणों से तनि‍क खिन्‍नता और उदासी के साथ मनाई । पहला कारण तो मेरा ब्राड बेण्‍ड कनेक्‍शन का 'डेड' हो जाना रहा । इस कारण मैं बारह अगस्‍त से लेकर अब तक 'संजाल सम्‍पर्क' से वंचित रहा । लेकिन वास्‍तविक वजह दूसरी थी । मुमकिन है, जो मैं ने भुगता-अनुभव किया वह सबके लिए सामान्‍य और रोजमर्रा की बात हो, लेकिन मुझे बडा मानसिक सन्‍ताप रहा ।


हमारे जिले के नवागत पुलिस अधीक्षक ने, मेरे शहर के यातायात को नियन्त्रित और व्‍यवस्थित बनाने की नेकनीयत से शहर के लोगों की खुली बैठक बुलाई । बैठक के लिए कोई औपचारिक निमन्‍त्रण नहीं था । यह बैठक सबके लिए खुली थी - जो चाहे सो आए । मेरे शहर के अनियन्त्रित और स्‍वच्‍छन्‍द मानसिकता वाले यातायात से मैं बहुत ही परेशान और चिन्तित रहता हूं और आए दिन कुछ न कुछ उठापटक करता रहता हूं । सो मुझे तो इस बैठक में जाना ही था ।


बैठक में मैं ने पाया कि तमाम वक्‍तव्‍य-वीर और रायचन्‍द पहले से ही मौजूद थे, जैसी कि मैं ने उम्‍मीद की थी । विषय वस्‍तु की भूमिका स्‍वरूप, यातायात सूबेदार ने एक सीडी प्रदर्शित की । इसके ठीक बाद, लोगों से सुझाव मांगे गए । जैसा कि होना ही था, धुरन्‍धर और धन्‍धेबाजों ने माइक पर कब्‍जा किया और लगे अपनी-अपनी राय जताने । यातायात के प्रति वे जितने चिन्तित थे, उससे अधिक वे इस कोशिश में थे कि नवागत पुलिस अधीक्षक की नजरों में 'चढ' जाएं । इसके साथ ही साथ, अपना ज्ञान बघारना और खुद को बाकी सबसे अलग और विशेष साबित करना भी उनमें से प्रत्‍येक का मकसद था । अपने इस मकसद को हासिल करने के लिए भाई लोगों ने जो मांगें पेश कीं, उन्‍होंने मुझे गहरे अवसाद में धकेल दिया ।


इन 'रायचन्‍दों' ने जो मांगें पेश कीं उनकी बानगी देखिए - दुपहिया वाहनों पर तीन सवारियों का बैठना रोका जाए, बिना लायसेंसे वाहन चलाने वाले लोगों पर (खास कर अवयस्‍क किशोरों पर) कार्रवाई की जाए, वाहनों पर अतिरिक्‍त रूप से लगवाए गए तेज और कर्कश ध्‍वनियों वाले हार्नों को हटवाया जाए, यातायात सिग्‍नल का उल्‍लंघन करने वालों पर जुर्माना किया जाए, वाहनों की नम्‍बर प्‍लेटें कानून के अनुसार करवाई जाएं ।


ये माँगें सुन कर मुझे अचरज तो हुआ ही, अन्‍तर्मन तक गहरा दुख भी हुआ । मुझे लगा ही नहीं कि हम आजादी की साठवीं सालगिरह मनाने वाले हैं । हम ऐसे समाज के रूप में विकसित होते जा रहे हैं जो आजादी का मतलब केवल अधिकार लेना ही जानता है जबकि आजादी अपने आप में एक जिम्‍मेदारी पहले है । अधिकार और जिम्‍मेदारियां, किसी भी आजादी के सिक्‍के के दो पहलू हैं । लेकिन हम जिम्‍मेदारी वाले पहलू को नजरअन्‍दाज कर रहे हैं और शायद इसीलिए अपनी आजादी हमें ही किसी खोटे सिक्‍के जैसी लगने लगी है । मजे की बात यह है कि इस दशा के लिए हममें से प्रत्‍येक, खुद के सिवाय बाकी सबको जिम्‍मेदार मानता है ।


सभागार में बैठे-बैठे, सयानों और रायचन्‍दों की मांगें सुनते-सुनते मुझे झुंझलाहट होने लगी थी । ये तमाम मांगें ऐसी थीं जिन पर हम अपने-अपने घरों में ही अमल कर इन्‍हें दूर कर सकते थे । हम अपने बच्‍चों को कभी सलाह नहीं देते कि वे दुपहिया वाहनों पर तीन नहीं बैठें, हमें पता है कि 18 वर्ष से कम आयु के बच्‍चों को लायसेंस नहीं मिल सकता फिर भी हम खुद उन्‍हें दुपहिया वाहन सौंप देते हैं, वाहन हमारे घरों में खडे रहते हैं लेकिन हममें से कोई भी उनमें लगे अतिरिक्‍त हार्नों को हटवाने के लिए अपने बच्‍चों से कभी नहीं कहता, हम अपने बच्‍चों को यातायात शिक्षा के नाम पर कभी कोई बात नहीं बताते । ऐसी तमाम बातों पर पुलिसिया कार्रवाई करने की मांग करते लोगों को देख कर मुझे लगा कि हम अभी भी मानसिक रूप से गुलात ही हैं, हमें व्‍यवस्थित बनाने के लिए चाबुक चाहिए, कोई आए और हमें ऐसे हांके जैसे जानवरों को हांका जाता है ।


गांधीजी ने उस शासन व्‍यवस्‍था को सर्वोत्‍कृष्‍ट माना था जो अपने नागरिकों के दैनन्दिन जीवन व्‍यवहार में कम से कम हस्‍तक्षेप करे । इसका मतलब यह कतई नहीं था कि सरकार कुछ भी नहीं करे या कि नागरिक उच्‍छृंखल हो जाएं । इसका एकमेव मतलब यही था कि नागरिक अपनी-अपनी जिम्‍मेदारी इस सीमा तक निभाएं कि सरकार को हरकत में आना ही नहीं पडे । लेकिन मैं देख रहा था कि यहां तो लोग सरकार को न्‍यौता दे रहे थे - आओ और हमें डण्‍डे से हांको ।


सभागर में बैठे-बैठे, तमाम गैरजिम्‍मेदाराना मांगें सुनते हुए मुझे पल-पल लगता रहा मानो हम हम अंग्रेजों को बुलावा दे रहे हैं - हे ! अंग्रेजों, तुम कहां हो ? तुम इतनी जल्‍दी क्‍यों चले गए ? लौट आओ । यह आजादी हमसे नहीं सम्‍हल रही । आओ और एक बार फिर हमें गुलाम बनाओ और हम पर राज करो ।

चिपलूनकरजी के बहाने


'सोनिया गाँधी वाले चिट्ठे पर उठते सवाल-जवाब' शीर्षक से चिपलूनकरजी
ने जो सफाई दी है, वह तर्क, कुतर्क से काफी आगे बढकर जिम्‍मेदारी से बचने की आश्‍चर्यजनक और बचकानी कोशिश्‍ा है । चिट्ठा जगत में मैं अभी 'दुध मुँहा' हूँ लेकिन जितने भी चिट्ठे मैं पढ-देख रहा हूँ, उन सबमें जिम्‍मेदारी लेने से बचने की कोशिश कहीं नजर नहीं आती । यह बहुत बडी बात है । यही बात लिखने वाले या प्रस्‍तोता को विश्‍वसनीय बनाती है । मेरी नजर में यह पहली ऐसी प्रस्‍तुति है जिसमें प्रस्‍तोता अपनी करनी से बचने की विचित्र कोशिश कर रहा है । चिट्ठा जगत में यह परम्‍परा यदि पहले से ही चली आ रही है तब तो मुझे कुछ नहीं कहना है । लेकिन यदि यह शुरूआत है है तो चिट्ठा जगत के हरावलों-पुराधाओं से मेरा विनम्र आग्रह है कि कृपया इस दुनिया को इस विकृति से बचाने में फौरन जुट जाऍं ।



किसी भी पार्टी से या उसके विचार से जुडना न तो शर्मिन्‍दगी वाली बात होती है और न ही गर्व करने वाली । विचार केवल विचार है, उससे सहमत या असहमत हुआ जा सकता है । किसी विचार से सहमत होने का यह अर्थ कदापि नहीं होता कि उसके वाहकों के आचरण से भी सहमत हुआ ही जाए या कि उनका समर्थन किया ही जाए । इसलिए, यदि चिपलूनकरजी संघ या भाजपा से सामीप्‍य अनुभव करते हों तो इस पर न तो उन्‍हें संकोच होना चाहिए और न ही किसी को आपत्ति । लेकिन विचार के समर्थन में यदि कोई बात प्रस्‍तुत की जाती है तो उसकी जिम्‍मेदारी भी ली जानी चाहिए । यदि ऐसा नहीं होता है तो, विचार-वाहकों के इस गैरजिम्‍मेदाराना व्‍यवहार के कारण समूचा विचार बदनमाम होता है और इसीलिए विचार-वाहकों के आचरण को ही विचार मान लिया जाने लगता है ।


चिपलूनकरजी का कहना बिलकुल सही है कि उन्‍होंने जो कुछ परोसा है उसमें उनका अपना कुछ भी नहीं है । लेकिन सवाल यह उठता है कि किसके निवेदन अथवा आदेश पर उन्‍होंने यह यह सब परोसा है ? किसी पाठक ने अनुरोध किया है या खुद खानसामा ने कहा है ? यदि दोनों में से कोई बात नहीं है और आप स्‍वेच्‍छा से परोस रहे हैं तो जाहिर है कि यह न केवल आपकी पसन्‍द है बल्कि इसे आपकी सहमति, सहयोग और संरक्षण आपकी सम्‍पूर्ण वैचारिकता और मानसिकता से प्राप्‍त है । आप उसके 'कण्‍टेण्‍ट' और 'इण्‍टेंशन' से पूरी तरह सहमत हैं । ऐसे में यह परोसा हुआ आपकी ही ऐसी 'डिश' है जो बेशक आपने खुद नहीं बनाई लेकिन आपके आचरण के कारण वह आपकी ही है ।


चिपलूनकरजी यदि अपनी इस प्रस्‍तुति से सहमति या असहमति नहीं जता रहे और फिर भी प्रस्‍तुति का औचित्‍य सिध्‍द क रने की कोशिश्‍ा कर रहे हैं तो जाहिर है कि वे गुड तो खा रहे हैं लेकिन गुलगुलों से परहेज करते दिखाई दे रहे हैं ।


क्‍या यह सचमुच में अचरज वाली बात नहीं है कि आप कोई विचार तो प्रस्‍तुत कर दें, उसकी जिम्‍मेदारी भी न लें और यह भी नहीं बताऍं कि मूल खानसामे तक कैसे पहँचा जाए ? इसके मायने क्‍या हैं ? चिपलूनकरजी मालवा निवासी हैं इसलिए उन्‍हें वह मालवी कहावत याद दिलाने का दुस्‍साहस कर रहा हूँ - या तो बाप का नाम बताओ या श्राध्‍द करो । यदि दोनों में से कोई काम नहीं किया जा रहा है तो फिर 'भुस में आग लगा कर बन्‍नो दूर खडी' वाली कहावत को साकार किया जा रहा है और ऐसा केवल, कोई सुनिश्चित (राजनीतिक) मकसद हासिल करने के लिए किया जाता है ।


फर्जी ई-मेलों पर आपत्ति जताने वाला, चिपलूनकरजी का तर्क खुद उन पर भी लागू होता है । फर्जी ई-मेल भेजने वाले भी जिम्‍मेदारी लेने से बच रहे हैं और चिपलूनकरजी भी, बिना किसी के मांगे, बिना किसी के कहे, अपने मनपसन्‍द खानसामे की, अपनी मनपसन्‍द 'डिश' जमाने को परोस रहे हैं और उसकी जिम्‍मेदारी लेने से बच रहे हैं । दोनों में आखिर फर्क ही क्‍या है ?


मेरी बात को पढते समय यह याद रखने का उपकार कीजिएगा कि मैं चिपलूनकरजी की बातों पर कोई टिप्‍पणी नहीं कर रहा हूँ । वह तो मैं उनके चिट्ठे पर ही कर चुका हूँ । मैं उस मानसिकता पर अपनी असहमति जता रहा हूँ जो इस प्रस्‍तुति में मुझे अनुभव हुई है । मैं भली प्रकार जानता हूँ कि मेरी बातें न तो अन्तिम हैं और न ही सर्वमान्‍य ।


मेरी चिन्‍ता के केन्‍द्र में समूची 'चिट्ठा विधा' है और उसी की चिन्‍ता करते हुए, अपनी सम्‍पूर्ण सदाशयता से यह 'प्रलाप' किया है । चिपलूनकरजी यदि इसे खुद के खिलाफ मानें तो यह मेरे दुर्भाग्‍य के सिवाय और कुछ नहीं होगा - वे मुझे क्षमा कर दें ।

चिपलूनकरजी के बहाने


'सोनिया गाँधी वाले चिट्ठे पर उठते सवाल-जवाब' शीर्षक से चिपलूनकरजी
ने जो सफाई दी है, वह तर्क, कुतर्क से काफी आगे बढकर जिम्‍मेदारी से बचने की आश्‍चर्यजनक और बचकानी कोशिश्‍ा है । चिट्ठा जगत में मैं अभी 'दुध मुँहा' हूँ लेकिन जितने भी चिट्ठे मैं पढ-देख रहा हूँ, उन सबमें जिम्‍मेदारी लेने से बचने की कोशिश कहीं नजर नहीं आती । यह बहुत बडी बात है । यही बात लिखने वाले या प्रस्‍तोता को विश्‍वसनीय बनाती है । मेरी नजर में यह पहली ऐसी प्रस्‍तुति है जिसमें प्रस्‍तोता अपनी करनी से बचने की विचित्र कोशिश कर रहा है । चिट्ठा जगत में यह परम्‍परा यदि पहले से ही चली आ रही है तब तो मुझे कुछ नहीं कहना है । लेकिन यदि यह शुरूआत है है तो चिट्ठा जगत के हरावलों-पुराधाओं से मेरा विनम्र आग्रह है कि कृपया इस दुनिया को इस विकृति से बचाने में फौरन जुट जाऍं ।



किसी भी पार्टी से या उसके विचार से जुडना न तो शर्मिन्‍दगी वाली बात होती है और न ही गर्व करने वाली । विचार केवल विचार है, उससे सहमत या असहमत हुआ जा सकता है । किसी विचार से सहमत होने का यह अर्थ कदापि नहीं होता कि उसके वाहकों के आचरण से भी सहमत हुआ ही जाए या कि उनका समर्थन किया ही जाए । इसलिए, यदि चिपलूनकरजी संघ या भाजपा से सामीप्‍य अनुभव करते हों तो इस पर न तो उन्‍हें संकोच होना चाहिए और न ही किसी को आपत्ति । लेकिन विचार के समर्थन में यदि कोई बात प्रस्‍तुत की जाती है तो उसकी जिम्‍मेदारी भी ली जानी चाहिए । यदि ऐसा नहीं होता है तो, विचार-वाहकों के इस गैरजिम्‍मेदाराना व्‍यवहार के कारण समूचा विचार बदनमाम होता है और इसीलिए विचार-वाहकों के आचरण को ही विचार मान लिया जाने लगता है ।


चिपलूनकरजी का कहना बिलकुल सही है कि उन्‍होंने जो कुछ परोसा है उसमें उनका अपना कुछ भी नहीं है । लेकिन सवाल यह उठता है कि किसके निवेदन अथवा आदेश पर उन्‍होंने यह यह सब परोसा है ? किसी पाठक ने अनुरोध किया है या खुद खानसामा ने कहा है ? यदि दोनों में से कोई बात नहीं है और आप स्‍वेच्‍छा से परोस रहे हैं तो जाहिर है कि यह न केवल आपकी पसन्‍द है बल्कि इसे आपकी सहमति, सहयोग और संरक्षण आपकी सम्‍पूर्ण वैचारिकता और मानसिकता से प्राप्‍त है । आप उसके 'कण्‍टेण्‍ट' और 'इण्‍टेंशन' से पूरी तरह सहमत हैं । ऐसे में यह परोसा हुआ आपकी ही ऐसी 'डिश' है जो बेशक आपने खुद नहीं बनाई लेकिन आपके आचरण के कारण वह आपकी ही है ।


चिपलूनकरजी यदि अपनी इस प्रस्‍तुति से सहमति या असहमति नहीं जता रहे और फिर भी प्रस्‍तुति का औचित्‍य सिध्‍द क रने की कोशिश्‍ा कर रहे हैं तो जाहिर है कि वे गुड तो खा रहे हैं लेकिन गुलगुलों से परहेज करते दिखाई दे रहे हैं ।


क्‍या यह सचमुच में अचरज वाली बात नहीं है कि आप कोई विचार तो प्रस्‍तुत कर दें, उसकी जिम्‍मेदारी भी न लें और यह भी नहीं बताऍं कि मूल खानसामे तक कैसे पहँचा जाए ? इसके मायने क्‍या हैं ? चिपलूनकरजी मालवा निवासी हैं इसलिए उन्‍हें वह मालवी कहावत याद दिलाने का दुस्‍साहस कर रहा हूँ - या तो बाप का नाम बताओ या श्राध्‍द करो । यदि दोनों में से कोई काम नहीं किया जा रहा है तो फिर 'भुस में आग लगा कर बन्‍नो दूर खडी' वाली कहावत को साकार किया जा रहा है और ऐसा केवल, कोई सुनिश्चित (राजनीतिक) मकसद हासिल करने के लिए किया जाता है ।


फर्जी ई-मेलों पर आपत्ति जताने वाला, चिपलूनकरजी का तर्क खुद उन पर भी लागू होता है । फर्जी ई-मेल भेजने वाले भी जिम्‍मेदारी लेने से बच रहे हैं और चिपलूनकरजी भी, बिना किसी के मांगे, बिना किसी के कहे, अपने मनपसन्‍द खानसामे की, अपनी मनपसन्‍द 'डिश' जमाने को परोस रहे हैं और उसकी जिम्‍मेदारी लेने से बच रहे हैं । दोनों में आखिर फर्क ही क्‍या है ?


मेरी बात को पढते समय यह याद रखने का उपकार कीजिएगा कि मैं चिपलूनकरजी की बातों पर कोई टिप्‍पणी नहीं कर रहा हूँ । वह तो मैं उनके चिट्ठे पर ही कर चुका हूँ । मैं उस मानसिकता पर अपनी असहमति जता रहा हूँ जो इस प्रस्‍तुति में मुझे अनुभव हुई है । मैं भली प्रकार जानता हूँ कि मेरी बातें न तो अन्तिम हैं और न ही सर्वमान्‍य ।


मेरी चिन्‍ता के केन्‍द्र में समूची 'चिट्ठा विधा' है और उसी की चिन्‍ता करते हुए, अपनी सम्‍पूर्ण सदाशयता से यह 'प्रलाप' किया है । चिपलूनकरजी यदि इसे खुद के खिलाफ मानें तो यह मेरे दुर्भाग्‍य के सिवाय और कुछ नहीं होगा - वे मुझे क्षमा कर दें ।

चिपलूनकरजी के बहाने


'सोनिया गाँधी वाले चिट्ठे पर उठते सवाल-जवाब' शीर्षक से चिपलूनकरजी
ने जो सफाई दी है, वह तर्क, कुतर्क से काफी आगे बढकर जिम्‍मेदारी से बचने की आश्‍चर्यजनक और बचकानी कोशिश्‍ा है । चिट्ठा जगत में मैं अभी 'दुध मुँहा' हूँ लेकिन जितने भी चिट्ठे मैं पढ-देख रहा हूँ, उन सबमें जिम्‍मेदारी लेने से बचने की कोशिश कहीं नजर नहीं आती । यह बहुत बडी बात है । यही बात लिखने वाले या प्रस्‍तोता को विश्‍वसनीय बनाती है । मेरी नजर में यह पहली ऐसी प्रस्‍तुति है जिसमें प्रस्‍तोता अपनी करनी से बचने की विचित्र कोशिश कर रहा है । चिट्ठा जगत में यह परम्‍परा यदि पहले से ही चली आ रही है तब तो मुझे कुछ नहीं कहना है । लेकिन यदि यह शुरूआत है है तो चिट्ठा जगत के हरावलों-पुराधाओं से मेरा विनम्र आग्रह है कि कृपया इस दुनिया को इस विकृति से बचाने में फौरन जुट जाऍं ।



किसी भी पार्टी से या उसके विचार से जुडना न तो शर्मिन्‍दगी वाली बात होती है और न ही गर्व करने वाली । विचार केवल विचार है, उससे सहमत या असहमत हुआ जा सकता है । किसी विचार से सहमत होने का यह अर्थ कदापि नहीं होता कि उसके वाहकों के आचरण से भी सहमत हुआ ही जाए या कि उनका समर्थन किया ही जाए । इसलिए, यदि चिपलूनकरजी संघ या भाजपा से सामीप्‍य अनुभव करते हों तो इस पर न तो उन्‍हें संकोच होना चाहिए और न ही किसी को आपत्ति । लेकिन विचार के समर्थन में यदि कोई बात प्रस्‍तुत की जाती है तो उसकी जिम्‍मेदारी भी ली जानी चाहिए । यदि ऐसा नहीं होता है तो, विचार-वाहकों के इस गैरजिम्‍मेदाराना व्‍यवहार के कारण समूचा विचार बदनमाम होता है और इसीलिए विचार-वाहकों के आचरण को ही विचार मान लिया जाने लगता है ।


चिपलूनकरजी का कहना बिलकुल सही है कि उन्‍होंने जो कुछ परोसा है उसमें उनका अपना कुछ भी नहीं है । लेकिन सवाल यह उठता है कि किसके निवेदन अथवा आदेश पर उन्‍होंने यह यह सब परोसा है ? किसी पाठक ने अनुरोध किया है या खुद खानसामा ने कहा है ? यदि दोनों में से कोई बात नहीं है और आप स्‍वेच्‍छा से परोस रहे हैं तो जाहिर है कि यह न केवल आपकी पसन्‍द है बल्कि इसे आपकी सहमति, सहयोग और संरक्षण आपकी सम्‍पूर्ण वैचारिकता और मानसिकता से प्राप्‍त है । आप उसके 'कण्‍टेण्‍ट' और 'इण्‍टेंशन' से पूरी तरह सहमत हैं । ऐसे में यह परोसा हुआ आपकी ही ऐसी 'डिश' है जो बेशक आपने खुद नहीं बनाई लेकिन आपके आचरण के कारण वह आपकी ही है ।


चिपलूनकरजी यदि अपनी इस प्रस्‍तुति से सहमति या असहमति नहीं जता रहे और फिर भी प्रस्‍तुति का औचित्‍य सिध्‍द क रने की कोशिश्‍ा कर रहे हैं तो जाहिर है कि वे गुड तो खा रहे हैं लेकिन गुलगुलों से परहेज करते दिखाई दे रहे हैं ।


क्‍या यह सचमुच में अचरज वाली बात नहीं है कि आप कोई विचार तो प्रस्‍तुत कर दें, उसकी जिम्‍मेदारी भी न लें और यह भी नहीं बताऍं कि मूल खानसामे तक कैसे पहँचा जाए ? इसके मायने क्‍या हैं ? चिपलूनकरजी मालवा निवासी हैं इसलिए उन्‍हें वह मालवी कहावत याद दिलाने का दुस्‍साहस कर रहा हूँ - या तो बाप का नाम बताओ या श्राध्‍द करो । यदि दोनों में से कोई काम नहीं किया जा रहा है तो फिर 'भुस में आग लगा कर बन्‍नो दूर खडी' वाली कहावत को साकार किया जा रहा है और ऐसा केवल, कोई सुनिश्चित (राजनीतिक) मकसद हासिल करने के लिए किया जाता है ।


फर्जी ई-मेलों पर आपत्ति जताने वाला, चिपलूनकरजी का तर्क खुद उन पर भी लागू होता है । फर्जी ई-मेल भेजने वाले भी जिम्‍मेदारी लेने से बच रहे हैं और चिपलूनकरजी भी, बिना किसी के मांगे, बिना किसी के कहे, अपने मनपसन्‍द खानसामे की, अपनी मनपसन्‍द 'डिश' जमाने को परोस रहे हैं और उसकी जिम्‍मेदारी लेने से बच रहे हैं । दोनों में आखिर फर्क ही क्‍या है ?


मेरी बात को पढते समय यह याद रखने का उपकार कीजिएगा कि मैं चिपलूनकरजी की बातों पर कोई टिप्‍पणी नहीं कर रहा हूँ । वह तो मैं उनके चिट्ठे पर ही कर चुका हूँ । मैं उस मानसिकता पर अपनी असहमति जता रहा हूँ जो इस प्रस्‍तुति में मुझे अनुभव हुई है । मैं भली प्रकार जानता हूँ कि मेरी बातें न तो अन्तिम हैं और न ही सर्वमान्‍य ।


मेरी चिन्‍ता के केन्‍द्र में समूची 'चिट्ठा विधा' है और उसी की चिन्‍ता करते हुए, अपनी सम्‍पूर्ण सदाशयता से यह 'प्रलाप' किया है । चिपलूनकरजी यदि इसे खुद के खिलाफ मानें तो यह मेरे दुर्भाग्‍य के सिवाय और कुछ नहीं होगा - वे मुझे क्षमा कर दें ।

एस.डी.बर्मन : क्रिकेट और 'ड्रा'

इस समय शाम के साढे छ: बजने वाले हैं । मेरा छोटा बेटा तथागत अनमना, इधर-उधर घूम रहा है । थोडी-थोडी देर में बुध्दू बक्सा चालू करता है, रिमोट के बटन दबा-दबा कर, चैनलें बदल-बदल कर देख रहा है । जिन चैनलों पर क्रिकेट का स्कोर दिखाया जा रहा है, उन चैनलों को कुछ क्षणों तक देखता है और झुंझला कर बुध्दू बक्सा बन्द कर, रिमोट फेंक कर अपने कमरे में जा रहा है । उसे चैन नहीं पड रही है । दरअसल, 'एन पॉवर ट्राफी' क्रिकेट प्रतियोगिता में आज भारत और इंगलैण्ड के बीच श्रृंखला का तीसरा, अन्तिम और निर्णायक टेस्‍ट मैच है । पहला मैच अनिर्णीत कराने में सफल हो और दूसरा जीत कर भारत इस श्रृंखला में 1-0 की बढत लिए हुए है । भारत यदि यह मैच जीत जाता है तो बरसों के बाद वह इंग्‍लैण्ड को उसी की धरती पर हराने का श्रेय ले सकता है । लेकिन फिलहाल मेरा बेटा संकटग्रस्त और तनावग्रस्त है । मेरे शहर में यह मैच बुध्दू बक्से पर नहीं दिखाया जा रहा है और यही मेरे बेटे की बेचैनी का सबब बना हुआ है । उसे अपनी टीम की 'क्षमता' पर पूरा भरोसा है और मान कर चल रहा है कि उत्साह के अतिरेक में भारतीय टीम हारने का क्रम बनाए रख सकती है । सो, वह बेकल हुआ पडा है । भुनभुना रहा है ।


लेकिन अभी-अभी उसने मुझे चौंका दिया है । भुनभुनाते हुए वह भारतीय खिलाडियों को यह परामर्श देते हुए अपने कमरे में गया है - 'देखना रे ! महारथियों ! जीत नहीं सको तो मैच ड्रा ही करा लेना ताकि सीरीज पर तो कब्जा बना रहे ।' उसकी यह प्रार्थना मुझे 40 बरस पीछे खींच ले गई है । जिस ड्रा के लिए मेरा बेटा प्रार्थना कर रहा है उसी पर तो सचिन दा' (श्री एस. डी. बर्मन) ने तंज करते हुए क्रिकेट की मट्टी पलीद की थी !

वह सन् 1967 की मई की एक शाम थी ।

दादा (श्री बालकवि बैरागी) पहली बार विधान सभा का चुनाव लडे थे और जीते थे । कांग्रेस की राजनीति में 'लौह पुरूष' के रूप में पहचाने जाने वाले पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र ने 'अपने उम्मीदवार' के रूप में दादा को मनासा विधान सभा क्षेत्र से कांग्रेस का उम्मीदवार बनाया था । भारतीय जनसंघ के श्रीसुन्दरलाल पटवा 1957 और 1962 के चुनावों में लगातार जीत कर, अपनी आक्रामक वाक् शैली से विधान सभा में कांग्रेस सरकार की नींद हराम किए हुए थो । मनासा विधान सभा क्षेत्र से कांग्रेस का जीतना दूसरी प्राथमिकता थी, पहली प्राथमिकता थी - पटवाजी से मुक्ति पाना । चुनाव परिणाम ने मिश्रजी के दांव को कामयाब साबित कर दिया । मि‍श्रजी के प्यादे ने भारतीय जनसंघ के फरजी को पीट दिया था । महत्वपूर्ण बात यह रही कि मन्दसौर जिले की सात विधान सभा सीटों में से बाकी 6 पर भारतीय जनसंघ ने कब्जा किया था । केवल मनासा सीट कांग्रेस को मिल पाई थी । मिश्रजी ने इस जीत को यथोचित सम्मान देते हुए, दादा को अपने मन्त्रि मण्डल में संसदीय सचिव के रूप में शामिल किया था ।


उन दिनों, गरमी के मौसम में मध्‍य प्रदेश की राजधानी, सतपुडा की साम्राज्ञी पचमढी में स्‍थानान्‍तरित हो जाया करती थी । पूरा मन्त्रिमण्‍डल वहीं डेरा डाल लेता था । सो, दादा को तो जाना ही था, वे हम सबको भी साथ ले गए थे । वहां दादा को 'पंचायतन' नामक बंगला आवंटित हुआ था ।

एक शाम, वहां के प्रसिध्‍द 'राजेन्‍द्रगिरी उद्यान' में जाना हुआ तो देखा कि मध्‍य प्रदेश के वित्‍त मन्‍त्री पं. कुंजीलालजी दुबे विराजमान हैं । दादा उन्‍हें प्रणाम करने के लिए झुके तो दुबेजी ने दादा को बांहों में भर लिया और आशीर्वाद देते-देते बोले - 'बैरागी, भगवान तुम्‍हारा भला करे । तुमने पंछी के पर कतर दिए । उसने विधान सभा में जीना मुश्किल कर दिया था ।' 'पंछी' से उनका मतलब पटवाजी से था ।


पचमढी प्रवास में सूचना मिली कि प्रख्‍यात संगीतकार सचिन देव बर्मन भी पचमढी में ही हैं और 'होटल न्‍यू ब्‍लाक' में ठहरे हुए हैं । दादा बच्‍चों की तरह खुश हो गए । ताबडतोड सम्‍पर्क कर, सचिन दा' की एक शाम अपने लिए तय की ।


जिस शाम सचिन दा' 'हमारे यहां' आने वाले थे उस दिन सवेरे से ही हम सब रोमांचित थे । पूरा दिन अधीरता से कटा । शाम को बर्मन दम्‍पति जब बंगले के सामने अवतरित हुए तो हम लोगों की सांसें थमी हुई थीं । संगीत महर्षि साक्षात् हमारे सामने थे । लालिमा को छूता गोरा रंग, सफेद धोती-कुर्ता । वे बेहद दुबले थे । इतने दुबले कि कलाई में घडी बांधने के लिए कलाई पर पहले रूमाल लपेटना पड रहा था । वे खूब लम्‍बे-ऊँचे थे । लेकिन उनके हाथों की लम्‍बाई अतिरिक्‍त रूप से ध्‍यानाकर्षित करती थी । उनके हाथ, उनके घुटनों को स्‍पर्श कर रहे थे - बिलकुल 'आजानबाहु' को शब्‍दश: साकार करते हुए । उनकी धर्मपत्‍नी (अब तो मुझे उनका नाम भी याद नहीं रह गया है) उनके मुकाबले ठिगनी थीं । लेकिन गोरेपन में वे सचिन दा' को बिना किसी कोशिश के पल-पल मात दे रही थीं । सचिन दा' के चेहरे पर गम्‍भीरता और 'खोयापन' था तो भाभीजी के चेहरे पर 'भुवन माहिनी' मुस्‍कान का साम्राज्‍य था । उनका चेहरा मुझे बहुत ही जाना पहचाना लगा । इस अनुभूति ने मुझे हैरत में भी डाला और परेशान भी किया । लेकिन कुछ ही क्षणों में बात समझ में आ गई । उनके इकलौते बेटे राहुल देव बर्मन के चित्र कहीं छपे देखे थे । भाभीजी को देख कर समझ पडा कि राहुल देव ने अपनी मां की शकल पाई थी । इसीलिए भाभीजी को पहली बार देखने पर भी वे मुझे जानी-पहचानी लग रही थीं ।


दादा और सचिन दा' की बातें शुरू हुईं तो अविराम चलती रहीं । उन दिनों 'प्रेम पुजारी' बन रही थी । सचिन दा' उसके संगीतकार थे और नीरजजी उसके गीतकार । सचिन दा' मुक्‍त कण्‍ठ से नीरजजी की प्रशंसा किए जा रहे थे । वे नीरजजी की शब्‍दावली के तो मुरीद साबित हो रहे थे लेकिन उनसे मेहनत भी पूरी करवा रहे थे । सचिन दा' ने बताया था कि 'रंगीला रे, तेरे रंग में रंगा है ये मन । छलिया रे, किसी जल से न बुझेगी ये अगन' वाला मुखडा हासि‍ल करने के लिए उन्‍होंने नीरजजी से इतने मुखडे लिखवाए कि 194 पृष्‍ठों वाली दो कॉपयाँ भर गईं । नीरजजी की प्रशंसा करते हुए सचिन दा' ने कहा था - 'मैं एक-एक कर, मुखडे रिजेक्‍ट करता रहा लेकिन नीरजजी एक बार भी न तो थके, न चिढे और न ही निराश हुए ।' बातों ही बातों में सचिन दा' ने फिल्‍म 'मेरी सूरत तेरी ऑंखें' के, मन्‍ना दा' के गाए कालजयी गीत 'पूछो न कैसे मैं ने रैन बिताई' की सृजन गाथा विस्‍तार से सुनाई थी ।


इन्‍हीं सब बातों के बीच पता नहीं कैसे क्रिकेट पर बात आ गई । हममें से कोई भी न तो क्रिकेट का जानकार था और न ही शौकीन । मौसम की बातों की तरह ही क्रिकेट की बात हो गई तो हो गई । सो, जब सचिन दा' ने क्रिकेट पर बात शुरू की तो हम सबने केवल इस कारण ध्‍यान दिया कि सचिन दा' इस पर बात कर रहे हैं । लेकिन अगले ही क्षण उन्‍होंने हम सबको निराश कर दिया । उन्‍होंने पहले ही वाक्‍य में क्रिकेट से अपनी नापसन्‍दगी जाहिर कर दी । हम लोगों को तो कोई फर्क नहीं पडना था लेकिन इतना बडा आदमी क्रिकेट को नापसन्‍द करता है - हमारे लिए यही अजूबा था । हमारे चेहरों पर चिपकी जिज्ञासा को शायद सचिन दा' ने भांप लिया था । उन्‍होंने जो कुछ कहा था वह कुछ इस तरह था कि‍ भला क्रिकेट भी कोई खेल है ? खेल हो तो हॉकी, फुटबाल जैसा कि घण्‍टे-पौन घण्‍टे खेले, पूरा दमकस लगाया और नतीजा लेकर मैदान से निकले । और क्रिकेट ? पूरे पांच दिनों तक (तब एक दिवसीय मैच तो कल्‍पना में भी कहीं नहीं था) 'ठकाऽआऽआऽठक, 'ठकाऽआऽआऽठक' किया और मालूम पडा कि मैच ड्रा हो गया । भला यह भी कोई बात हुई ? पूरे पांच दिन भाग-दौड की, मैदान को छोटा साबित करते रहे और नतीजे में ड्रा ? उन्‍होंने 'ठकाऽआऽआऽठक, 'ठकाऽआऽआऽठक' को जिस अन्‍दाज में कहा, वह मेरे लिए वर्णनातीत है । ऐसा लग रहा था मानो किसी बच्‍चे की लिखी कविता के लिए वे अपनी कोई धुन सुना रहे हों । उनके 'ठकाऽआऽआऽठक, 'ठकाऽआऽआऽठक' को सुन कर हम सब तो हंसे ही, उनकी धर्मपत्‍नी हम सबसे ज्‍यादा हंसीं ।


सचिन दा' से हुई यह मुलाकात मैंने तब 'माधुरी' में भेजी थी । उस समय मेरी उम्र केवल 20 वर्ष थी और 'माधुरी' में छपना तब उस आयु वर्ग वालों के लिए अतिरिक्‍त गौरव की बात हुआ करती थी । सचिन दा' न केवल मेरे इस गौरव के निमित्‍त बने थे बल्कि तब मुझे 'माधुरी' से 5 रूपयों का पारिश्रमिक भी मिला था ।


इस बात को चालीस वर्ष हो गए हैं । आज मेरा बेटा क्रिकेट मैच के ड्रा होने की प्रार्थना कर रहा है और तब इसी ड्रा के कारण सचिन दा' क्रिकेट को ही खारिज कर रहे थे । चालीस साल के अन्‍तराल में यह बदलाव आया कि सचिन दा' की पीढी जिस ड्रा को खेल का बैरी मान रही थी, वही ड्रा उनकी तीसरी पीढी के लिए प्रार्थना का विषय बन गया है ।


मैं कल्‍पना भी नहीं कर पा रहा हूं कि सचिन दा' यदि यह प्रार्थना सुनते तो प्रतिक्रया में क्‍या कहते ।
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(4 अगस्‍त की सवेरे से मुझे इण्‍टर नेट सेवाएं नहीं मिल रही थीं । आज, 9 अगस्‍त की शाम को यह सेवा उपलब्‍ध हुई तो शाम कोई साढे छ: बजे लिखना शुरू किया । इसी बीच क़पालु ग्राहकों और मित्रों का आना-जाना बना रहा, सो यह पोस्‍ट 9 और 10 अगस्‍त की दरमियानी रात में कोई पौन बजे पूरी हो पाई । ब्‍लाग दुनिया से इतने दिनों तक कटे रहना बडा ही कष्‍टप्रद रहा ।)

आरक्षण : कला या विज्ञान ?

'हरि ' और 'हरि कथा' की ही तरह यह बहस भी अनन्‍त है कि आरक्षण का संरक्षण किया जाना चाहिए या क्षरण । नेताओं और राजनीतिक दलों के लिए यह अत्‍यन्‍त उपयोगी और सुविधाजनक झुनझुना है । जब वे सत्‍ता में होते हैं तो उनके लिए इसके मायने कुछ और होते हैं और जब वे प्रति पक्ष में होते तो कुछ और । कभी यह अपने बचाव के काम में आता है तो कभी प्रतिद्वन्‍दी पर घातक प्रहार करने के काम में । मजे की बात यह है कि खुली जाजम पर इसका विरोध कोई नहीं करता और बन्‍द कमरों में हर कोई इससे निजात पाने की कोशिशों में लगा रहता है । इसे लेकर ये राजनीतिक दल किस सीमा तक निर्लज्‍ज और पाखण्‍डी हो जाते हैं, यह इसी सोमवार, 30 जुलाई 2007 को मध्‍य प्रदेश विधान सभा में देखने को मिला ।


मध्‍य प्रदेश में इन दिनों भाजपा की प्रचण्‍ड बहुमत वाली सरकार है । उमा भारती ने कांग्रेस की जो धुलाई की उसके सदमे से कांग्रेस और कांग्रेसी अब तक नहीं उबर पाए हैं । 2003 के चुनावों में उमा भारती ने, 'अहर्निशम् सेवाऽमहे' सूक्ति को शब्‍दश: साकार करते हुए चौबीसों घण्‍टे मध्‍य प्रदेश में भाजपा के चुनावी अभियान की 'जोत' जगाई । उसीका परिणाम रहा कि भाजपा ने विधान सभा की तीन चौथाई सीटें जीतने का इतिहास रचा । यह अलग बात है कि उमा भारती आज भाजपा की देहलीज पर, मीरा बाई बन कर 'सुणो रे दयालु, म्‍हारी अरजी' का अनहद नाद कर रही हैं और पार्टी विधायकों की इस इफरात के चलते, विधायकों की पूछ-परख की जरूरत भी नहीं रह गई है ।


इन दिनों मध्‍य प्रदेश के जिला सहकारी बैंकों में अध्‍यक्षों के मनोनयन का सिलसिला जारी है । सामान्‍य समझ वाला सडक छाप आदमी भी जानता है कि ये बैंक, राजनीतिक सन्‍दर्भों में अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण, उपयोगी तथा प्रभावी संसाधन होते हैं । प्रत्‍येक जिले के लगभग सारे के सारे किसान इन बैंकों से ऋण या/अनुदान लेते हैं और इसीलिए इन बैंकों के पदाधिकारियों तथा अधिकारियों/कर्मचारियों के साथ कृतज्ञ-भाव से पेश आते हैं । ऐसे में, केवल एक किसान नहीं, उसका समूचा परिवार इन बैंकों से 'लाभिति' के रूप में जुडा रहता है । इन बैंकों का धन-बल (हिमालयी बजट) और जन बल (पूरे जिल में फैला अमला) चुनावों के समय बहुत काम में आता है और इन बैंकों के कार्यालय कमोबेश चुनावी कार्यालय बन जाते हैं । इन बैंकों पर अपना कब्‍जा बनाने के लिए और बनाने के बाद बनाए रखने के लिए, प्रत्‍येक सत्‍ताधारी दल इन बैंकों के चुनावों को यदि स्‍थगित नहीं करा पाता है तो विलम्बित जरूर करा देता है और फिर अगले चुनाव होने तक अपनी पार्टी के किसी 'क्षमतावान' कार्यकर्ता को इसका अध्‍यक्ष तथा अन्‍य कार्यकर्ताओं को इसके संचालक मण्‍डल का सदस्‍य बना देता है ।


मध्‍य प्रदेश में इन दिनों यह सिलसिला चल रहा है और इस खेल की रग-रग से वाकिफ कांग्रेसी इन नियुक्तियों को टुकुर-टुकुर देखने के सिवाय और कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं । लेकिन इस बार कांग्रेसियों ने एक पत्‍ता फेंका । उन्‍होंने सरकार से आग्रह किया कि नियुक्तियां तो वह बेशक अपनी पसन्‍द की करे लेकिन इन नियुक्तियों में आरक्षण प्रावधानों का पालन जरूर करे । मांग ऐसी थी कि कांग्रेसी तो कांग्रेसी, भाजपा के कई विधायक भी इसके समर्थन में उठ खडे हुए । सरकार के लिए यह स्थिति 'लफडे' से कम नहीं रही । बात यदि बहस में बदल जाए तो लेने के देने पड जाएं । सो सहकारिता मन्‍त्री ने इस सुझाव को फौरन, सिरे से ही नकार दिया और दलील दी कि सहकारिता अधिनियम में, मनोनयन करते समय आरक्षण की कोई व्‍यवस्‍था नहीं है । मजे की बात यह है कि मनोनयन में आरक्षण का निषेध भी कहीं नहीं किया गया है । याने सरकार चाहे तो, ऐसे मनोनयन में, आरक्षण के प्रावधानों को उपयोग करते हुए, आरक्षित वर्ग के लोगों को नेतृत्‍व के अवसर प्रदान कर सकती है । लेकिन ऐसा करना, सत्‍ता पक्ष के लिए सुविधाजनक और लाभदायक नहीं रहा होगा, सो इस बात को सिरे से ही खारिज कर दिया गया । कांग्रेसियों ने फिर एक पत्‍ता फेंका कि समस्‍त आरक्षित वर्गों को भले ही अवसर न दें किन्‍तु कुछ महिलाओं को तो अध्‍यक्ष पद पर मनोनीत कर दें । इस पत्‍ते की फेंट में भी भाजपा के कुछ विधायक आ गए और खडे होकर कांग्रेसियों का समर्थन करने लगे । लेकिन सहकारिता मन्‍त्री अपने इंकार पर 'अंगद-पद' की तरह अडे रहे । मन्‍त्रीजी ने एक और दलील दी कि प्रदेश के कई सहकारी बैंक घाटे में चल रहे हैं ऐसे में इन बैंकों पर कोई प्रयोग करना मुनासिब नहीं होगा । कांग्रेसियों ने ध्‍यानाकर्षण की कोशिश तो खूब की लेकिन नाकामयाब रहे और अन्‍तत: सुझाव निरस्‍त हो गया ।


समाचार तो यहां समाप्‍त हो गया लेकिन असल बात यहीं से आगे बढती है । वोट मांगते समय तमाम नेता और पार्टियां इसी आरक्षण की दुहाइयां देती हैं, इसे लागू करने के लिए अपनी प्रतिबध्‍दता जता-जता कर आम सभाओं में तालियां पिटवाती हैं और वोट बटोरती हैं । लेकिन जब वास्‍तव में कुछ करने का अवसर आता है तो वह करती है जो इस समय मध्‍य प्रदेश में हुआ । याने, आरक्षित वर्गों के लोगों को यदि नेतृत्‍व के अवसर हासिल करने हैं तो उन्‍हें चुनाव लडकर ही आना पडेगा, सत्‍ताधारी दल अपनी ओर से तब भी उन्‍हें मौका नहीं देगा जबकि वह आसानी से, बिना किसी रोक-टोक के, उन्‍हें यह मौका दे सकता है । मौका भी कैसा कि खुद प्रतिपक्ष इसके लिए सत्‍ताधारी दल से आग्रह कर रहा है ।


यह संयोग ही है कि मध्‍य प्रदेश में इन दिनों भाजपा सत्‍ता पर काबिज है और इस सवाल पर कुछ समय के लिए कटघरे में खडी हो गई है । लेकिन यदि कांग्रेस सत्‍ता में होती तो जरूरी नहीं कि वह भी आरक्षण के प्रावधानों का पालन कर ही लेती । विधायी सदनों की कार्रवाइयों के अभिलेख इस बात के गवाह हैं कि सदन में अपने बैठने के स्‍थान बदलने के साथ ही इन सबकी भाषा भी बदल जाती है ।


ऐसे में यह तो समझ पडता है कि आरक्षण के प्रति नेताओं और पार्टियों की असलियत क्‍या है लेकिन यह समझ पाना मुश्किल है कि अपने इस दोहरे व्‍यवहार को ये नेता और उनके दल, इतनी कुशलता से (भले ही इसके लिए उन्‍हें चरम निर्लज्‍जता ही क्‍यों न बरतनी पडे) कैसे साध लेते हैं, कैसे औचित्‍यपूर्ण बना लेते हैं ?


यह सवाल मैं ने, 'शालीग्राम' का रूतबा हासिल किए हुए एक नेताजी से पूछा तो वे ठठा कर हँस पडे । उन्‍होंने मेरी ओर ऐसे देखा जैसे दुनिया के सबसे बडे मूर्ख को पहली बार देख रहे हों । बॉंयी ऑंख दबा कर, रान पर हाथ फटकारते हुए बोले - समझ जाओ तो यह कला है वर्ना विज्ञान है ।

मुन्‍ना भाई : आह सजा ! वाह सजा !!

मुन्‍ना भाई याने अभिनेता संजय दत्‍त को मिली, 6 साल की सजा, ऐसा मामला बन गया है जिस पर लोग न तो हंस पा रहे हैं और न ही रो पा रहे हैं, या फिर रोना और हंसना साथ-साथ कर रहे हैं । बात ही ऐसी हो गई ।


यूं तो सटोरियों ने पहले ही मुन्‍ना भाई की सजा की पुष्टि कर दी थी । उनकी सजा का कोई 'खाईवाल' या तो मिल ही नहीं रहा था और यदि कोई मिल रहा था तो वह सचमुच में कौडियों के दाम गिनवा रहा था । ऐसे सटारिये शायद, सटोरिये होने का धर्म निभा रहे थे या फिर सट्टे की लाज रखने के लिए मैदान में उतरे थे । लेकिन शायद उससे भी पहले, खुद मुन्‍ना भाई को गले-गले तक खातरी हो चुकी थी कि उन्‍हें सजा हो कर रहेगी, इसीलिए वे मन्दिर-मन्दिर, मत्‍था टेक रहे थे और अपनी सलामती की याचना कर रहे थे । खुद को सजायाफ्ता होने का विश्‍वास उन्‍हें इतना था कि जब जज साहब ने उन्‍हें सजा सुनाई तो वे फिल्‍मी नायक की अदा में, एक बार भी 'नहीं ! नहीं !!' नहीं चिल्‍लाए और न ही कटघरे पर दोहत्‍थड मारे । उनकी आंखें भर आईं और उन्‍होंने अपने आंसुओं को यदि रोका नहीं तो धार-धार बहने भी नहीं दिया । उन्‍होंने आशा और अपेक्षा से अधिक संयम बरता और अपनी परिपक्‍वता साबित की ।


इस फैसले पर न केवल संजय दत्‍त के प्रशंसकों और आलोचकों की वरन् उन तमाम लोगों की भी नजरें टिकी हुई थीं जो भारतीय न्‍यायपालिका को अपनी शुभेच्‍छापूर्ण धारणाओं की कसौटी पर कसना चाह रहे थे । इन लोगों की ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे बनी हुई थी । ये लोग संजय का बुरा कतई नहीं चाहते थे किन्‍तु चाहते थे कि संजय को सजा अवश्‍य हो ताकि भारतीय न्‍यायालयों, न्‍यायाधीशों और समूची न्‍यायपालिका की छवि की सफेदी में बढोतरी हो । संजय दत्‍त के आलोचक उनके निर्दोष छूटने की प्रार्थना कर रहे थे ताकि वे कह सकें कि संजय ने न्‍याय को खरीद लिया । ऐसे लोग इस फैसले से दुखी ही हुए । संजय के प्रशंसक, अपने नायक को सजा होने से दुखी तो बहुत हैं लेकिन इसके समानान्‍तर वे इस बात से खुश भी हैं कि उनके मुन्‍ना भाई के कारण भारतीय न्‍यायपालिका की टोपी में एक पंख और लग गया ।


भारतीय न्‍याय व्‍यवस्‍था की उलझन भरी प्रक्रिया और देर से न्‍याय मिलने की वास्‍तविकता के चलते, भारतीय न्‍याय पालिका की दशा, श्रीलाल शुक्‍ल के 'राग दरबारी' में वर्णित हमारी शिक्षा पध्‍दति जैसी हो गई नजर आती है जिसे जो चाहे, आकर लात मार कर चला जाता है । इस फैसले ने ऐसी अनगिनत लातों को लात मार दी है । देश में कानून का राज होने की बात आज किसी भोंडे चुटकुले से कम नहीं लगती । स्थितियां कहने को विवश करती हैं कि कानून के लम्‍बे हाथ केवल गरीबों, असहायों और बिना सिफारिश वालों के गलों तक ही पहुंचते हैं और पैसों वालों की ड्योढी पर हमारा कानून कोर्निश बजाता नजर आता है । कानून की समानता को लकर भारतीय जन मानस की धारणा इसी बात बनती और बिगडती है कि पैसे वाले, बडे लोगों के साथ इसका व्‍यवहार कैसा होता है । किसी बडे आदमी को, लोगों की उम्‍मीदों के विरूध्‍द सजा मिलती है तो खुश होने वालों में अधिकांश लोग ऐसे होते हैं जो उन बडे लोगों को को जानते भी नहीं । लेकिन वे फकत इसी बात से खुश हो जाते हैं कि कोई बडा आदमी कानून की गिरफ्त में आ गया । उनकी दशा उन झुग्‍गी-झोंपडियों वालों जैसी होती है जो अतिक्रमण में आई किसी अट्टालिका को गिरते हुए देख कर खुश हो रहे होते हैं ।


लेकिन मुन्‍ना भाई को 6 साल की कैद वाला मामला ऐसा नहीं रहा । सब कोई जानते हैं कि संजय दत्‍त असंदिग्‍ध रूप से 'बडे आदमी' हैं । लेकिन उन्‍हें सजा होने पर खुश होने वालों की तादाद बहुत-बहुत कम होगी । 'ड्रग एडिक्‍ट बिगडैल बच्‍चे' की छवि से उबर कर संजय दत्‍त ने खुद को जिस तरह से एक भला आदमी साबित किया वह सफर आसान नहीं था । 'प्रतिकूलताओं को अनुकूलताओं में बदलने' के, मेनेजमेण्‍ट के बहु उच्‍चारित फण्‍डे को वास्‍तविकता में बदलने के लिए मुन्‍ना भाई ने खुद में 'नख-शिख' या कि 'आमूलचूल' परिवर्तन किए और यह सब केवल दिखावे में नहीं, आचरण में उतारे ।


यह फैसला भारतीय न्‍यायपालिका के पन्‍नों में भले ही एक सामान्‍य फैसला बन कर रह जाए लेकिन भारतीय जनमानस के लिए यह फैसला, जूलीयस सीजर की जग विख्‍यात 'टू डू ऑर नॉट टू डू' वाली दशा से कम नहीं रहा । यह तय करना मुश्किल हो रहा है कि इस पर आह भरी जाए या वाह की जाए ।


जाहिर है, इस फैसले पर 'आह सजा ! वाह सजा !!' से कम या ज्‍यादा और कुछ नहीं कहा जा सकता